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गीताध्याय -2, श्लोक -17,18

geeta आत्मतत्व समस्त शक्ति का उत्स अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।। (17) अविनाशि - अविनाशी तु - तो तत् - उसको विद्धि - जान, येन - जिससे इदम् - यह सर्वम् - सम्पूर्ण ( संसार ) ततम् - व्याप्त है। अस्य - इस अव्ययस्य - अविनाशी का विनाशम् - विनाश कश्चित् - कोई भी न - नहीं कर्तुम् - कर अर्हति - सकता। अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। (18) अनाशिनः - अविनाशी, अप्रमेयस्य - जानने में न आने वाले ( और ) नित्यस्य - नित्य रहने वाले शरीरिणः - इस शरीरी के इमे - ये देहाः - देह अन्तवन्तः - अन्त वाले उक्ताः - कहे गये है। तस्मात् - इस लिये भारत - हे अर्जुन! ( तुम ) युध्यस्व - युद्ध करो। "तू यह जान ले कि जिसके द्वारा यह सारा जगत व्याप्त है, वह तो अविनाशी है, क्योंकि इस अव्यय का नाश करने में कोई भी समर्थक नहीं है।" "नाशरहित, अमाप, नित्य, शरीरी आत्म...