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गीताध्याय -2, श्लोक -17,18

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geeta

आत्मतत्व समस्त शक्ति का उत्स


अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।। (17)

अविनाशि - अविनाशी
तु - तो
तत् - उसको
विद्धि - जान,
येन - जिससे
इदम् - यह
सर्वम् - सम्पूर्ण ( संसार )
ततम् - व्याप्त है।
अस्य - इस
अव्ययस्य - अविनाशी का
विनाशम् - विनाश
कश्चित् - कोई भी
न - नहीं
कर्तुम् - कर
अर्हति - सकता।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। (18)

अनाशिनः - अविनाशी,
अप्रमेयस्य - जानने में न आने वाले ( और )
नित्यस्य - नित्य रहने वाले
शरीरिणः - इस शरीरी के
इमे - ये
देहाः - देह
अन्तवन्तः - अन्त वाले
उक्ताः - कहे गये है।
तस्मात् - इस लिये
भारत - हे अर्जुन! ( तुम )
युध्यस्व - युद्ध करो।

"तू यह जान ले कि जिसके द्वारा यह सारा जगत व्याप्त है, वह तो अविनाशी है, क्योंकि इस अव्यय का नाश करने में कोई भी समर्थक नहीं है।"
"नाशरहित, अमाप, नित्य, शरीरी आत्मा के यह सारे शरीर नाशवान कहे गए हैं। अतएव हे भारतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।"


अविनाशी तथा अव्यय की व्याख्या


    17 वें श्लोक में कहते हैं कि सत् वह है, जो अविनाशी है। और अविनाशी कौन है?- वह जिसके द्वारा यह सारा जगह व्याप्त है। वह अविनाशी क्यों है?- इसलिए कि वह अव्यय हैं और इस अव्यय का नाश कोई भी नहीं कर सकता। 'ततम्' शब्द का अर्थ है -फैलाना, व्यापना, सुरक्षित रखना। अविनाशी वह है, जो इस जगत् को फैलाता है और उसमें व्याप्त हो जाता है। यह अविनाशी समस्त नाम रूपों में अनुस्यूत सत्ता है। विनाश तो उसका होता है, जो सीमित है। जो भी पदार्थ सीमित है, उसका जन्म होता है और इसलिए उसका विनाश भी होता है। पर जो सब में ओतप्रोत असीम सत्ता है, उसका कभी जन्म नहीं होता, और इसलिए उनका नाश भी कभी नहीं होता।
      'अव्यय' शब्द से यह सूचित किया कि जो सत् है, उसमें किसी प्रकार का व्यय या परिणाम या परिवर्तन नहीं होता। 'अविनाशी' से यह सूचित किया कि सत् सदैव सद् रूप ही रहता है, उसकी सद् रूपता का कभी विनाश नहीं होता। परिणाम या परिवर्तन तो तब होता है, जब किसी पदार्थ के अंगों या अवयवों में परिवर्तन होता है। यदि कोई वस्तु अवयववान् है, तो अवयव के घटने बढ़ने से उसके नाश और वृद्धि का प्रसंग उपस्थित हो सकता है। जैसे, वस्त्र तन्तुओं के संयोग से बना है। यदि हम तन्तुओं को अलग अलग कर दें अथवा जला दें, तो वस्त्र नष्ट हो जाएगा। पर जो सत् है, वह अवयव विहीन है। यह बात ततम् से सूचित की गई। जो सारे ब्रह्मांड को व्याप ले, उसका भला कैसा अवयव? जिसके अवयव नहीं, उसमें किसी प्रकार का व्यय भी नहीं। अतएव जो सत् है, वह अव्यय है।
      वेदांत दर्शन 'सच्चिदानंद' जो सत् का पर्याय मानता है, क्योंकि सत् चित् और आनंद में कभी स्वरूप का परिवर्तन नहीं देखा गया; अर्थात्, सत् कभी असत् नहीं होता, चित् का कभी विनाश नहीं होता, और जहां सत् और चित् है, वहां आनंद तो रहेगा ही। यदि यह कहा जाए कि सत् का भी अभाव होता है, तो उस अभाव का ग्रहण कौन करेगा? सत्ता के अभाव का ग्रहण करने वाला भी कोई सद् रूप ही होगा। और जब अभाव का ग्रहण करने वाला सत् विद्यमान है, तो फिर सत्ता का अभाव कहां हुआ? इसी प्रकार चित् या का यानी ज्ञान का कभी अभाव नहीं होता। यदि यह मान लें कि ज्ञान का अभाव होता है, तो उस अभाव को जानने वाला कौन है? जो ज्ञान के अभाव को जानेगा, वह ज्ञान रूप ही होगा, और इस प्रकार यह मानना पड़ेगा कि ज्ञान का कभी नाश नहीं होता। आनंद सत्ता और ज्ञान इन दोनों से अलग नहीं है। अतएव सत्ता, ज्ञान और आनंद उस सत् के ही रूप हैं।
     इस प्रकार उक्त श्लोक में यह बताया कि सत् क्या है। सत् वह है, जो अविनाशी और अव्यय हैं। विनाश और व्यय इन दोनों शब्दों में सूक्ष्म अंतर है। जैसे देह है, वह बढ़ती है और घटती है। आहार और पोषण पाकर वह बढ़ती है। यदि उसे भोजन न मिले, तो वह घटती है। इसे कहेंगे 'व्यय'। 'व्यय' का मतलब होता है घटना बढ़ना। देह से प्राण निकल गए, तो वह मर गए। यह देह का 'विनाश' हुआ। सत् में न इस प्रकार कोई 'व्यय' होता है, न 'विनाश'। इसलिए वह अव्यय है, अविनाशी है।

षड्विकार : नाश के सोपान


     फिर, नाश के छः सोपान हैं, जिन्हें 'षड्विकार' कहा जाता है- जायते, अस्ति, वर्धते, परिणमते, क्षीयते, नश्यते। जो नहीं था, वह जन्म लेता है, यह 'जायते' हुआ। वह जन्म लेकर अस्तित्ववान् हुआ, यह 'अस्ति' हुआ। फिर वह बढ़ता है, यह 'वर्धते' हुआ। तत्पश्चात उसमें परिवर्तन होते हैं, परिणाम होते हैं, वह बदलता रहता है, यह 'परिणमते' हुआ। धीरे-धीरे उसमें क्षरण होता है, वह छीजता है, यह 'क्षीयते' हुआ। अंत में उसका नाश होता है, यह 'नश्यते' हुआ। हमारा शरीर इन सारे छः विकारों से गुजरता है। यही विनाश की प्रक्रिया है। यह सत् इसलिए अव्यय और अविनाशी है कि इसमें उपर्युक्त 6 विकारों में से एक की भी विक्रिया नहीं होती। वह हरदम है, अतएव उसके जन्म का कोई प्रश्न नहीं। उसके कोई अंग प्रत्यंग नहीं, इसलिए जन्म लेना, बढ़ना, विकृत होना, छीजना और नष्ट होना यह कुछ भी उस पर लागू नहीं होता। इसलिए कहा गया कि - 'अस्य अव्ययस्य विनाशं न कश्चित् कर्तुम् अर्हति' - इस अव्यय का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
     अब 18वें श्लोक में यह बताते हैं कि असत् कौन है। असत् वह है, जिसकी वास्तविक सत्ता नहीं है। असत् की सत्ता थोड़े देर के लिए भले ही दिखाई देती हो, पर अंततः उसका विनाश हो जाता है। यह विनाशी सत्ता भी सत् की सत्ता का आधार लेकर ही खड़ी होती है। शरीर विनाशी है, असत् है। वह दिखाई देने से पूर्व नहीं था और विनष्ट होकर फिर से अदृष्ट हो जाएगा। पर शरीर की यह अनित्य सत्ता शरीरी आत्मा की नित्य सत्ता पर खड़ी होती है। इसे 'प्रतिभासिक सत्ता' कह कर पुकारा जाता है। यह 'प्रतिभासिक सत्ता' सिद्धांत की दृष्टि से वस्तुतः काल्पनिक सत्ता ही हुआ करती है।

आत्मा की अप्रमेयता


     विवेच्य श्लोक में शरीरी आत्मा के लिए एक वचन प्रयुक्त हुआ है तथा देह के लिए बहुवचन। इसका तात्पर्य यह है कि एक ही आत्मा अनंत देहों में रहता है। देहों की भिन्नता से आत्मा में भिन्नता नहीं होती। जैसे एक ही सूर्य हजारों जलाशयों में प्रतिबिंबित होता है तथा जलाशय के गुण के अनुसार मलिन, स्वच्छ, स्थिर या प्रकम्पित दिखाई देता है, उसी प्रकार वही एक आत्मा इन समस्त देहों में प्रतिबिंबित होता है और देह-मन के अनुसार अलग-अलग भासित होता है। पर है आत्मा एक ही। वह शरीर के भीतर रहता है और शरीर का स्वामी है, इसलिए 'शरीरी' कहलाता है। वह 'नित्य' है, अर्थात् सदा एक-सा रहता है। न जाने कितने शरीर मर चुके और कितने जन्म ले चुके, पर आत्मा जैसा का तैसा रहता है; वह एकरस है, इसलिए 'नित्य' है। पर उसकी नित्यता हिमालय की नित्यता से भिन्न है। हिमालय भी नित्य प्रतीत होता है, पर वह 'अनाशी', नाशरहित नहीं है। उसमें सतत नाश की क्रिया चल रही है। एक दिन हिमालय नहीं था, वह हुआ और तब से उसमें क्षरण हो रहा है। आत्मा की नित्यता इस प्रकार की नहीं। वह ऐसा नित्य है, जिसमें नाश की कोई क्रिया नहीं होती। अतः वह 'अनाशी' है। तो क्या तुमने इस सत् को, इस आत्मा को पूरी तरह से जान लिया? नहीं भाई, उसको नहीं जाना, क्योंकि उसे जाना नहीं जा सकता। वह अप्रमेय है, उसे मापा नहीं जा सकता। जिसको किसी प्रमाण द्वारा, बुद्धि की किसी वृत्ति द्वारा पकड़ा न जा सके, उसे अप्रमेय कहते हैं।

आत्मा : प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय नहीं


       प्रमाण चार प्रकार के होते हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। इंद्रियों से जो संस्पर्शज ज्ञान होता है, उसे 'प्रत्यक्ष प्रमाण' कहते हैं। इंद्रियां इस प्रकार से आत्मा को नहीं जान पाती, क्योंकि आत्मा अव्यक्त है, वह एक ऐसी अवस्था है, 'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह'- जहां से वाणी मन के साथ आत्मा को बिना पाए लौट आती है। उपनिषद् कहते हैं कि 'न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः'- वहां, उस आत्मा के समीप, न आंखें जा पाती हैं, न वाणी न मन। इसका कारण यह है कि इन इंद्रियों का विचरण क्षेत्र है द्वैत राज्य और आत्मा का साम्राज्य अद्वैत का है। वहां इंद्रियों की पहुंच नहीं। इसलिए आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय नहीं।
      यहां पर एक शंका उठ सकती है। यह कहा गया कि आत्मा मन का विषय नहीं। पर उपनिषद् तो यह भी कहता है कि 'मनसैवानुद्रष्टव्यम्'- अर्थात आत्मा मन से ही देखा जाता है। यह विरोध ही बात कैसे? यदि उपनिषद् की इस बात को सत्य मानें, तो आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय हो गया। इसके उत्तर में कहा जाता है कि यहां पर मन सामान्य अर्थ में नहीं लिया गया है। वह मन जो साधना द्वारा पूरी तरह शुद्ध हो चुका, अपने स्वभाव को त्यागकर, माण्डूक्य उपनिषद् के शब्दों में 'अमन' हो जाता है। यह 'अमनी मन' ही आत्मा की अनुभूति कराता है। मन को अमन बनाने की साधना 'ध्यान योग' कहलाती है, इसके संबंध में हमने पिछले भाग में कुछ विचार किया है। अतएव इस विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि 'प्रत्यक्ष प्रमाण' हमें आत्मा का ज्ञान नहीं दे सकता।

अनुमान प्रमाण तथा उपमान प्रमाण


     'अनुमान प्रमाण' का अर्थ है अनुमान के द्वारा वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना। जैसे हमने धुआं देखा। हमें मालूम है कि आग के साथ धुआं हरदम रहता है, इसलिए हमने धुएं को देखकर अनुमान लगाया कि वहां आग लगी है। पर इस प्रकार का अनुमान सीमित जगत् में ही चल सकता है। अनंत और असीम आत्मा के संदर्भ में हम अनुमान से काम नहीं ले सकते।
     'उपमान प्रमाण' ज्ञान का वह तरीका है, जहां हम उपमा से वस्तु को जानने का प्रयास करते हैं। जैसे, हमने किसी व्यक्ति को कहा नरकेसरी। इसका मतलब यह है कि हम उस व्यक्ति के बल की तुलना केशरी के बल से करते हैं। पर यह प्रमाण भी द्वैत के राज्य में ही चल सकता है। जहां आत्मा को छोड़ और कुछ नहीं है, वहां उसकी उपमा किससे दें, उसकी तुलना किससे करें? अतएव यह प्रमाण भी हमें आत्मा का ज्ञान नहीं दे सकता।

आगम प्रमाण : चिट्ठी का दृष्टांत


     अब रहा 'आगम प्रमाण', जिसका अर्थ है शास्त्रों के सहारे किसी को जानना। पर इस आत्मा को आगम प्रमाण के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता, क्योंकि शास्त्र स्वयं कहते हैं- 'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन'- 'यह आत्मा वेदाध्ययन द्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा शक्ति अथवा अधिक श्रवण से ही प्राप्त होता है।' यहां प्रश्न उठता है कि यदि यही सत्य हो, तो फिर शास्त्रों की उपयोगिता क्या है? श्री शंकराचार्य इस प्रश्न का उत्तर विवेच्य श्लोक पर अपने भाष्य में देते हैं। वे कहते हैं -'शास्त्रं तु अन्त्यं प्रमाणं,अतद्धर्माध्यारोपणमात्रनिवर्तकत्वेन प्रमाणत्वम् आत्मनि प्रतिपद्यते, न तु अज्ञातार्थज्ञापकत्वेन'- 'शास्त्र, जो कि अंतिम प्रमाण हैं, आत्मा में किए हुए अनात्म पदार्थों के अध्यारोप को दूर करने के कारण आत्मा के विषय में प्रमाण रूप से गृहीत होता है, न कि अज्ञात वस्तु का ज्ञान करवाने के कारण।' मतलब यह कि शास्त्र लक्ष्य का निर्देश करता है और उसकी प्राप्ति में जो बाधाएं आती हैं, उनको दूर करने का उपाय मात्र बताता है।
      श्री रामकृष्ण इस बात को समझाने के लिए चिट्ठी का दृष्टांत देते थे। गांव का एक लड़का शहर में नौकरी करता था। दुर्गा पूजा की छुट्टियां करीब आयीं। गांव से उसकी मां ने उसे चिट्ठी लिखी कि घर आते समय अमुक-अमुक चीजें लेते आना। छुट्टी पर जाने से एक दिन पूर्व लड़के ने तय किया कि आज मां की बताई चीजें खरीद लूं। वह चिट्ठी को ढूंढने लगा। मेज पर देखा, दराज में देखा, पुस्तकों की अलमारी में देखा, तकिया के नीचे, बिस्तर के नीचे सब जगह ढूंढ डाला। पर चिट्ठी मिली नहीं। वह बड़ा चिंतित हुआ। उसने एक किताब को खोल कर देखना शुरु किया, पर चिट्ठी न मिली। दो-तीन घंटे की परेशानी के बाद उसने अंत में देखा कि चिट्ठी कचरे के टोकरी में पड़ी है। उसने लपक कर उसे उठा लिया। एक बार उसने चिट्ठी को अच्छी तरह पढ़ लिया और फिर से उसे कचरेदान में फेंक दिया। बड़ी परेशानी के बाद चिट्ठी मिली ऐसा सोचकर उसने चिट्ठी को फ्रेम में जड़ कर तो नहीं रखा। चिट्ठी पढ़ ली, बस चिट्ठी का काम हो गया। अब वह बाजार जाएगा और चिट्ठी में बतायी गई चीजें खरीद कर लाएगा। ठीक उसी प्रकार शास्त्र लक्ष्य का मात्र करते हैं। वह बताते हैं कि लक्ष्य को पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए। शास्त्रों से यह जान लिया, तो उनका और प्रयोजन नहीं रह जाता। अब तो शास्त्रों के निर्देश के अनुसार चलना, साधना करना यही शेष रह जाता है। इसलिए कहा गया कि आत्मा को आगम प्रमाण के के द्वारा भी नहीं जाना जा सकता।

ब्रह्म वस्तु को छोड़ वेद वेदांत सब जूठे हो गये


     किस विवेचन का सार यही हुआ कि आत्मा चारों प्रमाणों से ज्ञेय न होने के कारण 'अप्रमेय' है। पुनः श्री रामकृष्ण देव के वचनों का यहां पर स्मरण हो जाता है। वे कहते थे -'ब्रह्म क्या है यह आज तक कोई मुंह से बोल ना सका। सारी चीजें जूठी हो गई है, वेद, पुराण, तंत्र, षड्दर्शन सब के सब जूठे हो गए हैं। ओठों से छू गए हैं, मुंह से उनका उच्चारण हुआ है, इसलिए जूठे हो गए हैं। केवल एक वस्तु जूठी नहीं हो पाई है, वह है ब्रह्म! वेद ब्रह्मा के मुंह से निकला है, तंत्र शिव के मुख से आया है, इसलिए वे जूठे हो गए हैं। पर उस आत्मा को, उस सच्चिदानंद ब्रह्म को कोई मुंह से नहीं निकाल सका, इसलिए वह जूठा नहीं हुआ।' नमक का पुतला हाथों में नापने की छड़ी लेकर गहराई नापने समुद्र में उतरा। एक कदम वह गया नहीं जल में घुल कर एक हो गया! अब कौन बताए कि समुद्र कितना गहरा है? इस प्रकार जीव आत्मा को, ब्रह्म को नापने जाता है। आत्मा के समीप वह गया कि उससे तद्रूप हो गया। अब कौन बताए कि आत्मा कैसा है!

आत्मा अप्रमेय परंतु अनुभवगम्य


     यहां पर पुनः एक शंका उपस्थित की जा सकती है कि जब आत्मा को 'अप्रमेय' कहा, तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा का दर्शन कभी नहीं हो सकता, वह मात्र एक कल्पनीय वस्तु ही बना रहेगा। फिर 'आत्मानं विजानीहि', 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः'- 'आत्मा को जानो', 'आत्मा को देखना चाहिए', ये जो वाक्य विन्यास हैं, इनका क्या मतलब हुआ? इसके उत्तर में कहा जाता है कि यद्यपि आत्मा और अप्रमेय है, तथापि उसे देखा जाता है, अनुभव में लाया जाता है। पिछले भाग में हमनें श्वेताश्वतरोपनिषत् के प्रथम अध्याय के तीसरे मंत्र पर श्री शंकराचार्य द्वारा किए गए भाष्य का हवाला दिया था, जहां वह करते हैं - 'प्रमाणान्तर-अगोचरे वस्तुनि प्रकारान्तरम् अपश्यन्तः ध्यानयोग-अनुगमेन परममूलकारणं स्वयमेव प्रतिपेदिरे'- 'जो परम मूल कारण आत्म तत्व किसी भी प्रमाण से गोचर नहीं हुआ, उसे उन ऋषियों ने स्वयं एक भिन्न प्रकार से देखा, और वह भिन्न प्रकार था ध्यान योग का अनुगमन।' इस ध्यान योग पर हमने पिछले भाग में विस्तार से चर्चा की है अतः उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं।
     इसलिए श्री भगवान कहते हैं -अर्जुन! यह शरीरी आत्मा, यह सत्य, यह सर्वत्र व्यापक ब्रह्म अप्रमेय है। पर इसके जो असंख्य शरीर हैं, वे समस्त अंतवान् हैं, नाशवान है। जो नाशवान है, उसका नाश आज नहीं होगा तो कल होगा, तू नहीं करेगा तो दूसरा करेगा। पर आत्मा का तो किसी काल में नाश नहीं है। फिर तू उसके संबंध में सोच-सोच कर शोक क्यों कर रहा है? 'तस्मात् भारत युध्यस्व'- इसलिए हे भारत! तू उठ और युद्ध के लिए प्रस्तुत हो जा।

आत्मा का विचार : अक्षय शक्ति का स्रोत


     श्रीभगवान् की यह सीख हममें अद्भुत साहस का संचार करती है। हम मर्त्यशील शरीर नहीं है, हम जो अजर अमर अविनाशी आत्मा तत्व हैं। शरीर का चिंतन दुर्बलता को जन्म देता है, आत्मा का विचार हममें अक्षय शक्ति का संचार करता है। शरीर को तुच्छ मानने से ही महत् कर्म संपादित होते हैं। जो शरीर को तुच्छ मानता है, वही त्याग कर सकता है, वहीं समाज देवता राष्ट्र देवता या विश्व देवता की सेवा के लिए अपने जीवन को निछावर कर सकता है। शरीर को सर्वस्व मानने वाले लोग कभी महान् नहीं बने। शरीर ही आसक्ति का और समस्त दुर्बलता का कारण है। शरीर सबसे पहले हमें इंद्रियों की तुच्छ सीमा में बांधता है। उस दायरे से किसी प्रकार से निकले, तो परिवार की सीमा हमें बांध लेती है। उससे आगे किसी प्रकार बढे, तो जाति की दुर्भेद्य दीवार अपने शिकंजे में हमें जकड़ लेती है। आज जाति वर्ण आदि के भेदों ने राष्ट्र की कैसी दुर्दशा कर रखी है! हमारा सारा चिंतन इन्हीं तंग दायरों से बंधा होता है। जब तक हम इस सीमा के ऊपर नहीं उठेंगे, तब तक हमारे सारे प्रयत्नों के बावजूद राष्ट्र उपर नहीं उठ सकेगा। अर्जुन शरीर द्वारा निर्धारित सीमा में बंध गया था। इसीलिए श्री कृष्ण उससे कहते हैं- इस नाशवान् सीमा को तोड़। अपने भीतर के शरीरी को देख। वह कभी नहीं मरता। जब तक तू अपने को शरीर मानेगा, तू शौक का शिकार होगा। शरीर का चिंतन कापुरुषता को दूर करेगा और युद्ध के लिए तुझे साहस और मनोबल प्रदान करेगा।

आध्यात्मिक साहस : सिकंदर का दृष्टांत


    साहस दो प्रकार का होता है। एक प्रकार का साहस है- तोप के मुंह में दौड़ जाना। दूसरे प्रकार का साहस है -अपने को आत्मा मानकर विश्वास करना। कहते हैं कि एक बार सिकंदर महान जब भारत आया, तो यहां महात्माओं की खोज में लग गया। उसके गुरु ने उससे कहा था जब तुम भारत जाओ, तो वहां से एक तत्व ज्ञानी महात्मा को अपने साथ सम्मान पूर्वक लेते आना। उससे तुम्हारा और तुम्हारे देश का कल्याण होगा। सिकंदर महान का परिश्रम सफल हुआ। बहुत खोज करने के बाद उसने देखा कि एक वृद्ध साधु नदी के तीर पर एक शिला खंड पर बैठे हुए हैं। वह उनसे बातें करके बडा प्रभावित हुआ। उसने उन्हें अपने साथ देश ले जाने की इच्छा प्रकट की। पर साधु ने इसे स्वीकार नहीं किया और कहा, "मैं इस वन में बड़े आनंद में हूं।" सिकंदर बोला, "मैं समस्त पृथ्वी का सम्राट हूं। मैं आपको असीम ऐश्वर्य और उच्च पद मर्यादा दूंगा।" साधु बोले, "ऐश्वर्य, पद-मर्यादा आदि किसी बात की इच्छा नहीं।" तब सम्राट ने साधु को डर दिखाते हुए कहा, "यदि आप मेरे साथ नहीं चलेंगे, तो मैं इस तलवार से आपको काट डालूंगा।" इस पर साधु बहुत हंसे और बोले, "राजन! आज तुमने अपने जीवन में सबसे मूर्खतापूर्ण बात कही। तुम्हारी क्या हस्ती कि मुझे मारो? सूर्य मुझे सुखा नहीं सकता, आग मुझे जला नहीं सकती, कोई शस्त्र मुझे काट नहीं सकता, क्योंकि मैं जन्म रहित, अविनाशी, नित्य विद्यमान सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आत्मा हूं।" यह आध्यात्मिक साहस है।

विवेकानंद का उद्बोधन


       स्वामी विवेकानंद इसी आध्यात्मिक साहस को अपने देशवासियों में देखना चाहते थे। वे कहते हैं- "हे नर-नारियों! उठो, आत्मा के संबंध में जाग्रत् होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो, सत्य के अभ्यास का साहस करो। संसार को कोई सौ साहसी नर नारियों की आवश्यकता है। अपने में वह साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके, जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करे, जो मनुष्य को ज्ञान करा दे कि वह आत्मा है और सारे जगत् में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो उसका विनाश कर सके। तब तुम मुक्त हो जाओगे।" यह ज्ञान शोक को दूर करेगा। तभी तो विवेकानंद गाते हैं-

किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशक्तिः
आमन्त्रयस्व भगवन् भगदं स्वरूपम्।
त्रैलोक्यमेतदखिलं तव पादमूले
आत्मैव हि प्रभवते न जडः कदाचित् ।।

     -'हे सखे! तुम क्यों रो रहे हो? सब शक्ति तो तुम्हीं में है। हे भगवन्! अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे है। जड की कोई शक्ति नहीं, प्रभाव तो आत्मा का भी होता है।'
        भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को इसी बल का पाठ पढ़ाते हैं। वे कहते हैं -अर्जुन! आत्मा के स्वरूप को इस तरह जानकर अब अपनी कापुरुषता का त्याग करो। शरीर नष्ट होते हैं, पर शरीर आत्मा का किसी काल में विनाश नहीं होता। इस सत्य की धारणा करो और 'युध्यस्व' - युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

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