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14- सुप्तिङन्तं पदम् 1|4|14|| |
पदसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्
14- सुप्तिङन्तं पदम् 1|4|14||
सुबन्तं तिङन्तं च पदसंज्ञं स्यात् |
इति संञ्ज्ञाप्रकरणम्||1||
सुबन्त और तिङन्त पद संज्ञक होते हैं।
सुप् प्रत्यय आगे अजन्तपुल्लिंग प्रकरण में तथा तिङ् प्रत्यय भ्वादिप्रकरण प्रकरण में बताए जाएंगे | सु, औ, जस् आदि सु से सुप् तक के प्रत्यय जिन शब्दों में लगे हुए हैं, उन शब्दों को सुबन्त और तिप्, तस्, झि आदि से वहि, महिङ् तक के प्रत्यय जिन शब्दों के अंत में लगे हो उन्हें तिङन्त कहते हैं | ऐसे सुबन्त और तिङन्त शब्दों की पदसंज्ञा इस सूत्र से की जाती है | पद संज्ञा करने के बाद ही वह पद कहलाता है | पद होने के बाद ही उसका व्यवहार लोक में होता है | अपदं न प्रयुञ्जीत अर्थात् जो पद नहीं है, वह लोक में व्यवहार के योग्य नहीं होता।
एक बात और जानना जरूरी है कि क्ष्, त्र्, ज्ञ् ये अक्षर स्वतंत्र नहीं है अपितु दो-दो अक्षरों के संयोग से बने हैं | जैसे क्+ष्=क्ष्, त्+र्=त्र्, ज्+ञ्=ज्ञ् | इस प्रकार से क्ष् का कण्ठ और मुर्धा स्थान, त्र् का दन्त और मूर्धा स्थान तथा ज्ञ् का तालु और नासिका स्थान है।
इस तरह लघुसिद्धांतकौमुदी के संज्ञा प्रकरण में 14 ही सूत्र बताए गए हैं | अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय में संज्ञाविधायक अनेक सूत्र हैं | उनमें केवल 13 संज्ञा सूत्र और एक तस्य लोपः विधिसूत्र को मिलाकर के इन 14 सूत्रों को लेकर बनाए गए प्रकरण को संज्ञा प्रकरण कहना कितना उचित है ? क्या इसके बाद संज्ञा विधायक सूत्र नहीं आते ? इस पर यह कहा जाता है कि संन्धि आदि के लिए सामान्यतः उपयोगी सूत्रों को ही इस प्रकरण में लिया गया है | तत्तत् कार्य विशेष के लिए यथा स्थान उन-उन संज्ञाओं का कथन वहीं पर किया जाता है | जैसे अच् सन्धि में टिसंज्ञा, हल् संधि में आम्रेडित संज्ञा, षड्लिङ्गों में प्रातिपदिक संज्ञा आदि आदि | यह संध्युपयोगी संज्ञाओं का प्रकरण है।
व्याकरण के सूत्रों की 6 श्रेणियां हैं अर्थात् 6 प्रकार के सूत्र होते हैं।
संज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियम एव च |
अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधं सूत्रलक्षणम् ||
1-संज्ञासूत्र, 2-परिभाषासूत्र, 3-विधिसूत्र, 4-नियमसूत्र, 5-अतिदेशसूत्र और 6-अधिकारसूत्र।
1- संज्ञासूत्र | जो सूत्र संज्ञाओं का विधान करते हैं, ऐसे सूत्र संज्ञासूत्र या संज्ञाविधायक सूत्र कहलाते हैं | जैसे- हलन्त्यम्, अदर्शनं लोपः, तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् आदि।
2- परिभाषासूत्र | जो अनियम होने पर नियम करते हैं, ऐसे सूत्र परिभाषा सूत्र कहलाते हैं | जैसे- स्थानेऽन्तरतरमः, यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाम्, अनेकाल्शित् सर्वस्य आदि।
3- विधिसूत्र | जो सूत्र यण्, गुण, वृद्धि, दीर्घ, प्रत्यय, आदेश आदि का विधान करते हैं, ऐसे सूत्र विधिसूत्र कहलाते हैं | जैसे- इको यणचि, एचोऽयवायावः, आद्गुणः, वृद्धिरेचि, अकः सवर्णे दीर्घः आदि।
4- नियमसूत्र | किसी सूत्र के द्वारा कार्य सिद्ध होते हुए उसी कार्य के लिए यदि किसी अन्य सूत्र को पढ़ा गया हो तो वह सूत्र नियमसूत्र कहलाता है। सिद्धे सत्यारम्भमाणो विधिर्नियमाय भवति अर्थात सिद्ध होने पर भी पुनः विधान करने से एक विशेष नियम का संकेत उससे प्राप्त होता है | जैसे- रात्सस्य, पतिः समास एव, एच इग्घ्रस्वादेशे।
5- अतिदेशसूत्र | जो वैसा नहीं है, उसे वैसा मानना अतिदेश है | जैसे- कि शिष्य जो गुरू नहीं है, अब उसे गुरु के तुल्य माना जाए | सूत्र भी बहुत स्थानों पर ऐसा कार्य करते हैं | ऐसे सूत्रों को अतिदेशसूत्र कहा गया है | जैसे- अन्तादिवच्च, स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ, तृज्वत्क्रोष्टुः इत्यादि।
6- अधिकारसूत्र | कुछ सूत्र ऐसे होते हैं जो अपने क्षेत्र में कोई कार्य नहीं करते किंतु अन्य सूत्रों के क्षेत्र में अपना अधिकार रखते हैं, उसके सहायक बनते हैं | ऐसे सूत्र अधिकारसूत्र हैं | प्रत्ययः, परश्च, ङ्याप्प्रातिपदिकात्, धातोः आदि।
सूत्रों में अनुवृत्ति की भी प्रक्रिया है जो हलन्त्यम् सूत्र की व्याख्या में बता चुके हैं | अनुवृत्ति और अधिकार में कुछ साम्य हैं, अंतर यह है कि अधिकारसूत्र अपने क्षेत्र में कोई काम नहीं करता किंतु उत्तरसूत्र में उसकी सहायता के लिए उपस्थित होता है और अनुवृत्ति में वह शब्द अपने क्षेत्र में काम करते हुए उत्तरसूत्र के सहायतार्थ उपस्थित होता है।
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