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लघुसिद्धान्तकौमुदी |
|| श्रीगणेशाय नमः ||
लघुसिद्धान्तकौमुदी
नत्त्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् |
पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् |
लघुसिद्धांतकौमुदी के प्रारंभ में कौमुदी कर्ता वरदराजाचार्य ने नत्वा सरस्वतीं देवीम् इस श्लोक से मंगलाचरण किया है | मंगलाचरण के तीन प्रयोजन है- 1- प्रारंभ किए जाने वाले कार्य में विघ्न ना आए अर्थात् विघ्नों का नाश हो, 2- ग्रंथ पूर्ण हो जाए अौर, 3- रचित ग्रंथ का प्रचार-प्रसार हो।
यह प्रश्न उदित होता है कि मंगलाचरण तो ईश्वर की स्तुति रूप है, उसको ग्रंथ आरंभ के समय विशेष तरीके से ध्यानावस्थित होकर या वैदिक मंत्रों का उच्चारण आदि करके ग्रंथ के बाहर कर सकते हैं, तो ग्रंथ के आदि में ही क्यों लिखें ? उत्तर यह है कि मंगल तो विघ्नवनाशक के लिए ही किया जाता है और वह ग्रंथ के बाहर भी भगवान की स्तुति आदि करने से हो सकता है, फिर भी ग्रंथ लेखन, अध्ययन, शुभ कार्य आदि के प्रारंभ में मंगलाचरण अवश्य करना चाहिए, इस बात की भी शिक्षा देना चाहते हैं ग्रंथकार | इसलिए अपने ग्रंथ में ही मंगलाचरण को भी जोड़ देते हैं।
मंगलाचरण के तीन प्रकार होते हैं-
1- नमस्कारात्मक मंगल, जिसमें अपने-अपने आराध्य देव की स्तुति, प्रार्थना, वंदना आदि की जाती है।
2- आशीर्वादात्मक मंगल, जिसमें किसी प्रिय व्यक्ति या ग्रंथ के अध्येयताअों की मंगल कामना की गई होती है।
3- वस्तुनिर्देशात्मक मंगल, जिसने ग्रंथ के मूल विषय एवं उसके लक्ष्य का निर्देश होता है।
कहीं केवल नमस्कारात्मक मंगल होता है तो कहीं आशीर्वादात्मक या वस्तुनिर्देशात्मक मंगल | कहीं-कहीं दोनों, तीनों मंगलो का भी समावेश मिलता है | यहाॅं पर नत्त्वा सरस्वतीं देवीम् इस वाक्य से नमस्कारात्मक मंगल एवं पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धांतकौमुदीम् से वस्तुनिर्देशात्मक मंगल हुआ है।
अर्थ- 'मैं वरदराजाचार्य शुद्ध रूप वाली, प्रशस्त गुणों से युक्त सरस्वती देवी को नमस्कार करके पाणिनि जी के व्याकरणशास्त्र में सरलता से प्रवेश के लिए लघुसिद्धांतकौमुदी की रचना करता हूॅं।
अथ संज्ञाप्रकरणम्
माहेश्वरशूत्राणि
अइउण् 1| ऋलृक् 2| एओङ् 3| ऐऔच् 4| हयवरट् 5| लण् 6| ञमङणनम् 7| झभञ् 8| घढधष् 9|
जबगडदश् 10| खफछठथचटतव् 11| कपय् 12| शषसर् 13 हल् 14||
इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि | एषामन्त्या इतः | हकारादिष्वकार उच्चारणार्थः | लण्मध्ये त्वित्संज्ञकः ||
इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि | माहेश्वर की कृपा से प्राप्त ये 14 सूत्र अण् आदि प्रत्याहारों की सिद्ध के लिए हैं।
विषेश-
सृष्टिकाल से आज तक उपलब्ध है व्याकरणों में पाणिनीय व्याकरण ही सर्वोत्कृष्ट है | इसके विकल्प तो अन्य व्याकरण हो सकते हैं किंतु इसकी तुलना अन्य किसी से नहीं की जा सकती | तुलना दो तरह से हो सकती है- प्रथम तो बराबरी दिखाने के लिए और द्वितीय दोनों में अंतर दिखाने के लिए | पाणिनीय व्याकरण के बराबरी दिखाने के लिए कोई व्याकरण नहीं है | अतः इस तरह की तुलना ही व्यर्थ है किंतु अन्य व्याकरणों से इस व्याकरण में कितना अंतर है ? इस बात को जानने के लिए अवश्य तुलना कर सकते हैं।
इस व्याकरण के रचयिता महर्षि पाणिनि है | कठोर साधना के बाद ईश्वरीय कृपा से उन्होंने व्याकरण के लिए सूत्र बनाए | पाणिनि के द्वारा रचित सूत्रों की संख्या लगभग 4000 है | सूत्रों की संख्या में मतभेद है, क्योंकि कहीं-कहीं योग विभाग करके एक ही सूत्र को 2 सूत्र भी माना गया है | अतः कई विद्वानों में मत में सूत्रों की संख्या केवल 3965 ही है तो कुछ लोग इसेसे ज्यादा मानते हैं | हाॅं 4000 से ऊपर नहीं है और 3965 से नीचे नहीं है | इसलिए लगभग 4000 है, ऐसा कहना ही ठीक है | इन सूत्रों के साथ धातु पाठ में लगभग 2000 धातुएॅं हैं | पाणिनि जी ने सूत्र पाठ, धातु पाठ, गण पाठ, लिंगानुशासन और पाणिनीय शिक्षा ये पांच विषयों से पूर्ण व्याकरण बनाया था।
पाणिनि जी के द्वारा सूत्रों में उस समय जो न्यूनताएॅं दृष्टिगोचर हुई, उनकी पूर्ति के लिए कात्यायन जी ने वार्तिक बनाए | सूत्र और वार्तिकों की व्याख्या के रूप महर्षि पतंजलि ने विशालतम महाभाष्य लिखा | अष्टाध्यायी के क्रम में काशिका आदि अनेक ग्रंथ लिखे गए | बाद में अष्टाध्यायी के क्रम से भिन्न किंतु अष्टाध्यायी के सूत्रों को लेकर रूपावतार, प्रक्रियाकौमुदी आदि ग्रंथों की रचना हुई | प्रक्रिया ग्रंथों में आज भट्टोजिदीक्षित जी की रचना वैयाकरणसिद्धांतकौमुदी अति प्रसिद्ध है जिसमें पाणिनि जी के समस्त सूत्रों का समावेश है, जिसके समग्र अध्ययन के पश्चात शब्द प्रक्रिया का संपूर्ण ज्ञान हो जाता है | इसके बाद इनके ही शिष्य वरदराजाचार्य जी ने सारसिद्धांतकौमुदी, लघुसिद्धांतकौमुदी और मध्यसिद्धांतकौमुदी की रचना की | लघुसिद्धांतकौमुदी का आज व्यापक प्रचार है, जिसमें पाणिनि जी के 1276 सूत्रों का उपयोग किया गया है।
अइउण् आदि ये 14 सूत्र महेश्वर की कृपा से पाणिनि जी को प्राप्त हुए हैं, इनसे अण् आदि प्रत्याहारों की सिद्धि की जाती है।
एषामन्त्या इतः | इसके अन्त्य वर्ण इत्संज्ञक हैं।
हकारादिष्वकार उच्चारणार्थः | हकार आदि में पठित अकार उच्चारण के लिए है।
लण्मध्ये त्वित्संज्ञकः | लण् इस छठे सूत्र में पठित अकार इत्संज्ञक है, उच्चारणार्थ नहीं।
विवरण- अइउण् आदि ये 14 सूत्र हैं इसलिए इन्हें चतुर्दशसूत्र कहते हैं | इनसे प्रत्याहार बनाए जाते हैं, अतः इन्हें प्रत्याहार सूत्र भी कहते हैं | भगवान शंकर के डमरू से निकलकर पाणिनि जी को प्राप्त हुए हैं, अतः इन्हें शिव सूत्र कहते हैं और व्याकरण शास्त्र में प्रारंभिक ककहरा हैं अर्थात् बालक को सबसे पहले ककहरा अर्थात् वर्णमाला की शिक्षा दी जाती है | ये संस्कृत भाषा में ककहरा अर्थात् वर्णमाला हैं | ये वेद तुल्य हैं, इसलिए वर्णसमाम्नाय भी कहते हैं | छात्र को चाहिए कि इनको अच्छी तरह से रट लें | इसके बाद प्रत्येक सूत्र के अंतिम अक्षरों को छोड़कर उच्चारण करने का भी अभ्यास कर लें | जैसे- अ, इ,उ | ऋ,लृ | ए,ओ | ऐ, औ | ह्,य्,व्,र् | ल् | ञ्, म्, ङ्, ण्, न् | झ्, भ्, | घ्, ढ्, ध् | ज्, ब्, ग्, ड्, द् | ख्, फ्, छ्, ठ्, थ्, च्, ट्, त् | क्, प् | श्, ष्, स् | ह् |
ऐसी प्रसिद्धि है कि पाणिनि जी ने व्याकरण की रचना करने की शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से हिमालय पर जाकर तपस्या की थी | उनकी कठोर तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हुए और उनकी तपस्या को पूर्ण करने के लिए उनके सामने प्रकट होकर नृत्य किया | नृत्य करते समय भगवान शंकर के डमरू से यह 14 सूत्र निकले | पाणिनि जी ने इनको ग्रहण किया और भगवान शंकर का वरदान समझकर यहां से प्रारंभ कर के लगभग 4000 सूत्रों वाली पाणिनीयाष्टाध्यायी की रचना की | कहते हैं कि भगवान शंकर से जब इन्होंने यह 14 सूत्र प्राप्त किया तो इन सूत्रों के अंत में जो ण् क् ङ् च् आदि हल् वर्ण लगे हुए हैं, ये नहीं थे | इन हल् वर्णों को पाणिनि जी ने प्रत्याहारों की सिद्धि के लिए अपनी ओर से लगाया है।
इन 14 सूत्रों का प्रयोजन बता रहे हैं- इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि | (सूत्राणि+अणादि = सूत्राण्यणादि) संसार में मूर्ख से भी मूर्ख व्यक्ति किसी काम में लग जाता है तो उसका कुछ न कुछ प्रयोजन होता है | प्रयोजन के बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी काम में नहीं लगता | पाणिनि जी परम ज्ञानी थे और शंकर भगवान भी योगेश्वर माने जाते हैं | पाणिनि जी की तपस्या और शंकर भगवान का वरदान ये दोनों व्यर्थ नहीं थे | इनका कोई न कोई प्रयोजन तो था ही | पाणिनि जी का प्रयोजन व्याकरण शास्त्र की रचना थी और उन्हें ये 14 सूत्र प्राप्त हुए हैं | इनका क्या प्रयोजन है ? मूल में कहा गया है- इन 14 सूत्रों का प्रयोजन अण्, अच् आदि प्रत्याहारों की सिद्धि है | इनसे अण् आदि प्रत्याहार बनाए जाते हैं | प्रत्याहार बनाने की प्रक्रिया आगे बताएंगे | प्रत्याहारों से अनेक सूत्रों द्वारा प्रयोगों की सिद्धि की जाएगी।
इन 14 सूत्रों के अन्त्य में लगे हुए हल् अक्षर किन्ही विशेष प्रयोजन के लिए हैं | अर्थात् इनकी विशेष संज्ञा की जाएगी- एषामन्त्या इतः | इन 14 सूत्रों के अन्त्य में लगे हुए ण्, क्, ङ्, च्, ट्, ण्, म्, ञ्, ष्, श्, व्, य्, र्, ल् इन वर्णों की इत् संज्ञा की जाती है | जो अन्त में रहे उसे अन्त्य कहते हैं | संज्ञा नाम को कहते हैं | इत् नामक संज्ञा इनकी होगी अर्थात् ये इत् नाम वाले कहलाते हैं | व्याकरण में संज्ञा, संज्ञक और संज्ञी का जगह व्यवहार जगह-जगह पर किया जाता है | नाम को संज्ञा और नाम वाले को संज्ञक या संज्ञी कहते हैं | जैसे आप में से किसी का नाम पुरुषोत्तम हो तो यह शब्द संज्ञा है और पुरुषोत्तम नाम वाला शरीरधारी संज्ञक या संज्ञी है | अर्थात् आप पुरुषोत्तम-संज्ञक या पुरुषोत्तम-संज्ञी है | इसी प्रकार अन्त्य वर्ण इत्संज्ञक अर्थात इत्संज्ञी है और इत् संज्ञा है | इन 14 सूत्रों के अन्त्य वर्णों की इत्संज्ञा करने का फल भी प्रत्याहार बनाना ही है जिसकी प्रक्रिया आगे बताएंगे।
हकारादिष्वकार उच्चारणार्थः | संस्कृत भाषा के वर्णमाला में जितने अक्षर हैं उनको दो भागों में बाॅंटा गया है- स्वर एवं व्यंजन | स्वर को अच् और व्यंजन को हल् कहते हैं | अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ए, ऐ, ओ, औ ये स्वर हैं तथा क्, ख् से लेकर ज्ञ् तक के वर्ण व्यंजन है | ये व्यंजन अर्थात हल् अक्षर क, ख, ग, घ, ङ ऐसे न होकर क्, ख्, ग्, घ्, ङ् ऐसे हैं | उनका ठीक तरह से उच्चारण हो, इसलिए इन वर्णों के बाद स्वर वर्ण लगाए जाते हैं | जैसे- क्+अ=क, क्+आ=का, क्+इ=कि, क्+ई=की, क्+उ=कु, क्+ऊ=कू, क्+ऋ=कृ, क्+लृ=क्लृ, क्+ए=के, क्+ऐ=कै, क्+ओ=को, क्+औ=कौ, क्+अं=कं, क्+अः=कः | इसी प्रकार ख्+अ=ख आदि आगे भी जानें।
इस तरह से यह स्पष्ट हो गया कि हयवरल आदि में ह्, य्, व्, र्, ल् के साथ अकार जोड़कर उच्चारण किया गया है | इनमें उच्चारित अवर्ण केवल उच्चारण के लिए है | जहाॅं ह् आदि वर्णों का प्रत्याहार आदि के मध्य से प्रयोग होगा तो वहां अकार का ग्रहण नहीं किया जाता किंतु केवल हल् वर्ण मात्र गृहीत होता है।
ज्ञानवर्धक जानकारी
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