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@geeta |
शरीर का शोक व्यर्थ
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।। (13)
देहिनः - देहधारी के
अस्मिन् - इस
देहे - मनुष्य शरीर में
यथा - जैसे
कौमारम् - बालकपन,
यौवनम् - जवानी ( और )
जरा - वृद्धावस्था ( होती है ),
तथा - ऐसे ही
देहान्तरप्राप्तिः - दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है।
तत्र - उस विषय में
धीरः - धीर मनुष्य
न, मुह्यति - मोहित नहीं होता।
"देहधारी ( आत्मा ) को इस देह में जिस प्रकार बालपन, तरुणाई और बुढ़ापा प्राप्त होता है, उसी प्रकार ( आगे उसी आत्मा को ) दूसरी देह की प्राप्ति होती है। अतः इस विषय में ज्ञानी पुरुष मोहित नहीं होता।"
पूर्व श्लोक में भगवान् ने जीवन की नित्यता बताकर अर्जुन को समझाया की आत्मा की दृष्टि से किसी के लिए शोक करना उचित नहीं है। अर्जुन इस तर्क को स्वीकार करता है, और कहता है कि ठीक है, आत्मीय स्वजन आत्मा की दृष्टि से नित्य हैं, किंतु उनके शरीर तो नष्ट होंगे ही। अतः शरीर का विछोह होने के कारण दुःख होना स्वाभाविक है। मैं तो उनके शरीर पर बिछोह की कल्पना से दुःखी हो रहा हूं। इस पर श्रीभगवान् कहते हैं कि अर्जुन, व्यक्ति का शरीर तो हरदम बदलता रहता है। बचपन का शरीर युवावस्था में नहीं रहता, यौवन का शरीर बुढ़ापे में नहीं रहता। देख शरीर तो बदल गया, पर इस परिवर्तन के कारण कोई तो रोता नहीं। ठीक इसी प्रकार एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर के ग्रहण को भी समझना चाहिए। यह देही आत्मा अपने इस शरीर में क्रम से जैसे बालकपन, तारुण्य और बुढ़ापे का अनुभव करता है, अर्थात जिस सहजता से बालपन को छोड़ तरुणाई में आता है और तरुणाई को छोड़ बुढ़ापे में, ठीक उसी सहजता से वह इस देह को छोड़ दूसरे का ग्रहण करता है। अतः ज्ञानी पुरुष को शरीर का मोह नहीं करना चाहिए।
आधुनिक चिकित्सा शास्त्र कहता है कि शरीर के सारे अवयव रुधिर, अस्थि, मज्जा आदि सतत् परिवर्तित हो रहे हैं और 7 वर्ष में सारे कण नष्ट होकर नवीन हो जाते हैं। भारत की शास्त्रीय परंपरा भी इस बात को स्वीकार करती है कि 12 वर्ष में मानव देह के समस्त कण नष्ट होकर नूतन हो जाते हैं। इसलिए संभवतः हमने 12 वर्ष की अवधि को 'युग' की संज्ञा दी है। एक युग में मनुष्य का सारा शरीर बदल जाता है। एक अवस्था के अवयव दूसरी अवस्था में नहीं पहचाने जाते। कहां जन्म के समय एक बालिश्त का बच्चा और कहां युवावस्था का साढे तीन हाथ का मनुष्य! क्या कोई समानता है दोनों में? पर कोई इसलिए तो नहीं रोता कि बच्चा विकसित होकर युवक हो गया! तब देही यदि इस देह को छोड़कर दूसरी देह धारण करें, तो फिर रोना क्यों?
इस प्रकार कोई कह सकता है कि भले ही शरीर बदलता रहे, पर यह प्रतीति, यह प्रत्यभिज्ञा तो बनी रहती है कि वही शरीर विकसित या क्षीण हो रहा है, जबकि अन्य देह प्राप्त होने से यह प्रत्यभिज्ञा थोड़े ही बनी रहती है, वहां तो यही प्रतीत होता है कि शरीर का नाश हो गया। इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि इस सीमित दृष्टि का दोष हमारा अपना है। प्रत्यभिज्ञा एक प्रकार के ज्ञान को कहते हैं। बुद्धि जब निर्मल होती है तो उसमें प्रत्यभिज्ञा होती है। जो योग और उपासना आदि के द्वारा अपनी बुद्धि को शुद्ध कर लेते हैं, उनमें शरीरान्तर ग्रहण के अनंतर भी प्रत्यभिज्ञा बनी रहती है। वे दूसरी देह धारण करने के बाद भी अपनी पूर्व देह का स्मरण रखते हैं। ऐसे लोग 'जातिस्मर' के नाम से पुकारे जाते हैं। ऊपर हमने कहा है कि कोई कोई बच्चे अचानक अपने पूर्व जन्म की बातें स्मरण करने लगते हैं।
देही की परिभाषा
'देही' का अर्थ होता है देह धारी आत्मा। यह आत्मा जैसे इस देह में विभिन्न अवस्थाओं का अनुभव करता है, वैसे ही विभिन्न देहों का भी। इस अपरिवर्तनशील आत्मा के ही कारण स्मरण की क्रिया संभव हो पाती है। सतत परिवर्तनशील अवस्थाओं की बातें स्मरण रखना तथा उनको एक श्रृंखला में गूंथकर देखना इस कूटस्थ आत्म तत्व के ही कारण संभव होता है। वही निरंतर भागते हुए घटना प्रभावों को अर्थ प्रदान करता है। जैसे हम सिनेमा देखते हैं। पर्दे पर, स्क्रीन पर भागती हुई फिल्मों को प्रतिबिंबित किया जाता है। अलग-अलग टुकड़ों में यदि फिल्म को देखें तो वह सारी की सारी फिल्में अर्थहीन मालूम पड़ती है। पर जब इन फिल्मों को हम एक स्थिर पर्दे पर प्रोजेक्ट करते हैं -प्रतिबिंबित करते हैं, तो उन्हीं फिल्मों में एक अर्थ की कड़ी पिरोयी मालूम पड़ती है। यदि पर्दा हिलता रहे, तो यह अर्थ प्रकट नहीं हो पाता। सतत् भागती हुई फिल्मों में निहित अर्थ को पकड़ने के लिए पर्दे का स्थिर होना अनिवार्य है। इसी प्रकार, देह और मन सतत भाग रहे हैं। इन भागते हुए घटना चक्रों को अर्थ प्रदान करने वाला वह स्थिर आत्म तत्व है, जो देह और मन के आधार के रूप में अवस्थित है और जिसे 'देही' कहकर पुकारा गया। यह देही ही अनेकता में एकता की प्रतीति उत्पन्न करता है।
देही की धारणा मनुष्य को धीर बनाती
जैसे हम किसी धनिक व्यक्ति के बैठक खाने में गए। वहां उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक के सैकड़ों चित्र क्रम से बने हुए हैं। पहला चित्र तब का है, जब वह कुछ क्षण पहले माता के गर्भ से बाहर निकला था और अंतिम चित्र तब का है जब उसे चिता पर लिटाया जा रहा है। कितनी विभिन्नता है चित्रों में। पर सभी चित्रों में एकता का आभास देने वाला वही देही है, जो शरीर की अवस्थाओं के परिवर्तन साक्षी हैं तथा शरीर के परिवर्तनों का भी। नोबेल लॉरेट एलेक्सिस कैरल की भाषा में यह देही ही Man the Unknown ( मानव का अज्ञात रूप ) है। Man the Known ( मनुष्य का ज्ञात रूप ) सभी का जाना पहचाना है। मनुष्य का वजन कितना है, उसकी ऊंचाई कितनी है, उसके शरीर का रंग कैसा है, उसके चलने का ढंग कैसा है, उसकी वेशभूषा कैसी है- यह सब मनुष्य का ज्ञात रूप है, जो सतत् बदलता रहता है। इन बदलते रूपों के पीछे यदि उसका अपरिवर्तनशील अज्ञात रूप न होता, तो इन रूपों का कोई अर्थ ही नहीं हो पाता। यह अज्ञात रूप ही स्मृति शक्ति और विचारों की सुसम्बद्धता का आधार है। जो व्यक्ति इस देही की धारणा करने में समर्थ है, वही श्रीभगवान् की भाषा में 'धीर' है, बुद्धिमान और विवेकी है। अर्जुन से वह धीर बनने को कहते हैं। जो धीर बनता है, वहीं मोह से ऊपर उठने में समर्थ होता है।
अर्जुन इसे भी समझ लेता है। पर कहता है कि इच्छा करने मात्र से तो धीर नहीं बना जा सकता। धीर बनना साधना सापेक्ष है। अतः जब तक धीर नहीं बन जाता, तब तक तो स्वजनों के शरीर के वियोग से दुःख होगा ही। ऐसी दशा में क्या किया जाय? भगवान् इसका उपाय बताते हुए आगे का श्लोक कहते हैं।
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