द्वन्द्वों की अनित्यता
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। (14)
कौन्तेय - हे कुन्तीनन्दन!
मात्रास्पर्शाः - इन्द्रियों के विषय ( जड पदार्थ )
तु - तो
शीतोष्णसुखदुःखदाः - शीत (अनुकूलता ) और उष्ण ( प्रतिकूलता ) के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं ( तथा )
आगमापायिनः - आने जाने वाले ( और )
अनित्याः - अनित्य हैं।
भारत - हे भरतवंशोद्भव अर्जुन!
तान् - उनको ( तुम )
तितिक्षस्व - सहन करो।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। (15)
हि - कारण कि
पुरुषर्षभ - हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन!
समदुःखसुखम् - सुख-दुःख में सम रहने वाले
यम् - जिस
धीरम् - बुद्धिमान
पुरुषम् - मनुष्य को
एते - ये मात्रा स्पर्श ( पदार्थ )
न, व्यथयन्ति - विचलित ( सुख-दुःख ) नहीं करते,
सः - वह
अमृतत्वाय - अमर होने में
कल्पते - समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।
"हे कुंती पुत्र! इंद्रियों और उनके साथ विषयों के संयोग शीत-उष्ण सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों को उपजाते हैं; वे आते हैं और चले भी जाते हैं, अतः अनित्य हैं। इस कारण हे भारतवंशी अर्जुन! उनको तू सहन कर।"
"हे पुरुष श्रेष्ठ! सुख-दुःख में समान रहने वाले जिस धीरपुरुष को ये इंद्रियां और विषयों के संयोग व्यथित नहीं करते, वहीं अमरता का अधिकारी होता है।"
इन दो श्लोकों में भगवान अपरिहार्य को सहने का उपदेश देते हैं। तब तक इंद्रियों का अपने विषयों से संयोग होता ही रहेगा। इसे कोई रोक नहीं सकता। आंखें हैं, तो देखेंगे ही। कान है, तो सुनेंगे ही। नाक है, तो गंध लेगी ही। रसना है, तो स्वाद ग्रहण करेगी ही। त्वगिन्द्रिय है, तो स्पर्श करेगी ही। 'मात्रा' का एक अर्थ 'इंद्रिया' लिया जाता है और दूसरा अर्थ 'प्रकृति', 'मैटर'। मात्रा और मैटर शब्दों का ध्वनिसाम्य दर्शनीय है। श्रीशंकराचार्य के अनुसार, 'अभिः मीयन्ते शब्दादय इति श्रोत्रादीनि इन्द्रियाणि'- जिनसे शब्द आदि विषयों को जाना जाए वे स्रोत आदि इंद्रियां 'मात्रा' कहलाती हैं। 'स्पर्श' से तात्पर्य है इन इंद्रियों का अपने विषयों से संयोग। तो ये इंद्रियां और विषयों से उनके संयोग शीत-उष्ण सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों को उपजाते हैं। इंद्रियों और विषयों के संयोग से ये अस्तित्व में आते हैं तथा इंद्रियों का विषयों से वियोग होने पर इनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। अतः यह द्वन्द्व आगमापायी हैं- आते हैं और जाते हैं। और चूंकि ये द्वन्द्व उपजते हैं और नष्ट होते हैं, इसलिए अनित्य हैं। कोई सुख नित्य नहीं, कोई दुःख नित्य नहीं। इंद्रिय और उनके विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाली सारी संवेदनाएं इसी प्रकार क्षणिक होती हैं। अतएव मनुष्य को ऐसा विचार कर इन द्वन्द्वों को सहने का अभ्यास करना चाहिए।
द्वन्द्वों को सह लो
यहां पर शीत-उष्ण और सुख-दुःख यह द्वंद्व लिए गए हैं। सुख-दुःख ऐसे द्वंद्व हैं, जिनकी संवेदनात्मक अनुभूति में कभी परिवर्तन या व्यभिचार नहीं होता। यह निश्चित रूप हैं, अर्थात सुख की अनुभूति में या दुःख की अनुभूति में कभी फेर-फार या रद्दोबदल नहीं होता, जबकि शीतोष्ण की संवेदना में व्यभिचार होता है। क्या मतलब? यही कि शीत गर्मी के दिनों में तो सुख रूप होता है, पर ठंड के दिनों में दुःख रूप। उसी प्रकार उष्ण ठंड के दिनों में सुख रूप होता है, पर गर्मियों में दुःख रूप। एक वस्तु कभी दुःख रूप होती है, तो कभी सुख रूप। इसको उसके धर्म का व्यभिचार या परिवर्तन कहते हैं। फिर वही एक वस्तु एक ही समय एक के लिए सुख रूप होती है, तो दूसरे के लिए दुःख रूप। शीत-उष्ण त्वगिन्द्रिय के द्वंद्व हैं। ये उपलक्षण हैं, यानी ऐसा ही हमें अन्य इंद्रियों से उपजने वाले द्वन्द्वों के बारे में समझना चाहिए। इस क्षण जलेबी मुझे प्रिय है और मैं चाव से उसे खाता हूं। रसना का यह स्वाद सुख रूप है। पर जब खाते-खाते पेट भर गया, तो अब मैं जलेबी की ओर ताक भी नहीं सकता। एक छोटा सा टुकड़ा मुंह में डालने पर उबकाई आती है। रसना का यह स्वाद दुःख रूप है। फिर वही जलेबी एक व्यक्ति के खाली पेट के लिए अमृत रूप है, तो दूसरे व्यक्ति के भरे पेट के लिए विष रूप। इस प्रकार इन सभी द्वन्द्वों का पर्यवसान सुख या दुःख में होता है। इसके प्रतिकार का एकमात्र उपाय हैं सहनशीलता। हम बाहर की परिस्थितियों को अपने अनुकूल नहीं बना सकते, इसलिए उचित यह है कि हम अपने ही भीतर परिवर्तन लाएं। जो बाहर प्रतिकूलतायें देखकर उन्हें सुधारने के लिए जाता है, वह असफल होता है और इसलिए दुःख का भागी होता है। हमें इन प्रतिकूलताओं को सहने का अभ्यास करना चाहिए। इसी को भगवान 'तितिक्षा' की संज्ञा देते हैं। श्री रामकृष्णदेव अपनी सहज सरल भाषा में कहते हैं -"देखो, 'स' के तीन भेद हैं -श, ष और स। जानते हो, इसका क्या तात्पर्य है? तात्पर्य है -स, स, स यानी सहो, सहो,सहो।" अतएव, द्वन्द्वों से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय हैं उनको सह लेना।
भय ही मृत्यु
भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे नरश्रेष्ठ! तुम स्वजनों के वियोग की कल्पना से जो दुःखित हो रहे हो, वह उचित नहीं। जब वियोग का समय आएगा, तो उसे अनिवार्य मान कर लेना। जो इस प्रकार सुख-दुःख द्वन्द्वों का विचार करता हुआ उनमें समान रहता है और उनसे पीड़ित नहीं होता, वह 'धीर' बन जाता है और फलस्वरूप अमरता का अधिकारी होता है। अमरता से तात्पर्य है भय से मुक्ति। भय ही मृत्यु है। हम जीवन में सतत् डरते हैं। परिस्थितियां हमें डराती रहती हैं। जो परिस्थितियों से डरता है और उनके दबाव में आ जाता है, वह जीवन में सदैव मृत्यु को ही देखता है। लड़के को रोग हो गया, मानो हमीं मर गए! व्यापार में पैसा डूब गया, मानो हमीं मर गए! परंतु जो परिस्थितियों के दबाव को हटा देता है, वह अभय का, अमरता का अधिकारी हो जाता है। परिस्थितियों का आत्मविश्वास पर हावी होना मृत्यु है और आत्मविश्वास का परिस्थितियों पर हावी होना अमरता है।
बहुत सुन्दर
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