सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गीताध्याय 2, श्लोक -16



सदसत्-विवेचन


नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।

असतः - असत् का तो
भावः - भाव ( सत्ता )
न, विद्यते - विद्यमान नहीं है
तु - और
सतः - सत् का
अभावः - अभाव
न, विद्यते - विद्यमान नहीं है
तत्वदर्शिभिः - तत्व दर्शी महापुरुषों ने
अनयोः - इन
उभयोः - दोनों का
अपि - ही
अन्तः - तत्व
दृष्टः - देखा अर्थात् अनुभव किया है।

"असत् का कभी अस्तित्व नहीं होता और जो सत् है, उसकी कभी अविद्यमानता नहीं होती। वास्तव में तत्वद्रष्टाओं ने इन दोनों का इस प्रकार अंतिम निश्चय किया है।"


सत् और असत् का भेद


    यहां पर श्री भगवान् एक गूढ दार्शनिक सत्य की घोषणा करते हैं। वे साधक को दर्शन का पाठ पढ़ाते हैं। वे बतलाते हैं कि असत् वह है, जिसका कभी अस्तित्व नहीं होता, वह हरदम असत् ही होता है। यदि असत् अभी सत् सा मालूम भी पड़े, तो वह मालूम पड़ना अज्ञान या भ्रम का कारण होता है। और जो सत् है, उसका किसी काल में लोप नहीं होता। जो एक काल में दिखाई पड़े और दूसरे काल में न दिखाई पड़े, उसे असत् जानना चाहिए। सत् की सत्ता तीनों कालों में होती है। भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों कालों में सत् की सत्ता एक जैसी होती है। जिसकी सत्ता में किसी प्रकार का परिवर्तन हो, वह वस्तुतः असत् ही है। सत् और असत् दोनों परस्पर भिन्न हैं और अलग-अलग गुण धर्मों से युक्त हैं। संसार में केवल ये दो ही पदार्थ हैं। इस प्रकार का अंतिम निश्चय उन लोगों ने किया है, जो तत्व द्रष्टा हैं, जिन्होंने जीवन के सत्य को देखा और समझा है।
     इस श्लोक के माध्यम से एक ऐसा सत्य घोषित हुआ है, जिसकी धारणा बड़ी कठिन मालूम होती है। इस कठिनाई का कारण यह है कि जो सत् पदार्थ है, वह इंद्रियगम्य नहीं होता। उसका बोध इंद्रियों के द्वारा नहीं होता, प्रत्युत एक अलग ही तरीके से होता है। श्री शंकराचार्य श्वेताश्वतरोपनिषत् के प्रथम अध्याय के तीसरे मंत्र पर भाष्य करते हुए लिखते हैं -'प्रमाणान्तर-अगोचरे वस्तुनि प्रकारान्तरम् अपश्यन्तः ध्यानयोग-अनुगमेन परममूलकारणं स्वयमेव प्रतिपेदिरे'- जो वस्तु प्रमाणों से गोचर नहीं होती, उसे उन ऋषियों ने एक भिन्न ही प्रकार से देखा। वह भिन्न प्रकार था ध्यानयोग का अनुगमन, जिसके द्वारा उन्होंने जगत् के उस परममूलकारण का अपने तईं अनुभव कर लिया।

सद्वस्तु जगत का परममूलकारण


     यह परममूलकारण ही एकमात्र सद् वस्तु है, क्योंकि तीनों कालों में इसी की विद्यमानता है। शेष जितने भी कारण पदार्थ हैं, वे कार्य पदार्थ भी हुआ करते हैं, और चूंकि कार्य पदार्थ एक काल में विद्यमान रहता है और दूसरे काल में नहीं, इसलिए असत् है। इसी तर्क को सभी स्तरों पर लागू करते हुए ले जाएं, तो हम देखेंगे कि समस्त कार्य श्रृंखला असत् है। एकमात्र वही सत् है, जो किसी कारण का कार्य नहीं है और ऐसी सद् वस्तु का बोध कराने के लिए ही 'परममूलकारण' शब्द की व्यंजना की गई है। 'परममूलकारण' वह है, जो कभी भी किसी का कार्य या परिणाम नहीं होता, बल्कि जो सभी कार्यों के आधार के रूप में विद्यमान रहता है। उदाहरण के लिए मिट्टी से बने एक खिलौने को लें। 'खिलौना' कार्य है और उसका कारण है 'मिट्टी'। पर मिट्टी स्वयं अपने आप में एक कार्य है और उसका कारण है 'पंचमहाभूत'। पर यह पंचमहाभूत भी अपने आप में एक कार्य हैं और उसका कारण हैं 'तन्मात्राएं'। ( तन्मात्रा की स्थूल तुलना एक विद्युत कण से की जा सकती है।) तन्मात्राएं भी अपने आप में कार्य हैं और उनका कारण है 'अहंकार'। अहंकार भी स्वयं में कार्य है और उसका कारण है 'महत्'। महत् भी स्वयं एक कार्य है और उसका कारण है 'प्रकृति'। इस प्रकृति को 'प्रधान' या 'अव्यक्त' कहकर भी पुकारा गया है। यह सांख्य दर्शन की दृष्टि है। सांख्य 'पुरुष' और 'प्रकृति' ऐसे दो तत्व जीव के भीतर में मानता है। पुरुष उसमें का चैतन्य तत्व है और प्रकृति जड़ तत्व। सांख्य की दृष्टि में जितने जीव हैं, उतने ही पुरुष। पुरुष की उपस्थिति से प्रकृति में विक्रिया होकर महत्, अहंकार, तन्मात्राएं और पंचमहाभूत आदि उत्पन्न होते हैं। पुरुष अविकारी हैं, जबकि प्रकृति विकारी, पर पुरुष और प्रकृति दोनों में ही सत् है यह सांख्य दर्शन का मत है।

वेदांत और सांख्य दर्शन में भेद


     वेदांत और कुछ आगे जाता है। वह सांख्य के सृष्टि तत्व को स्वीकार तो करता है, पर वह प्रकृति को 'असत्' मानता है, सांख्य के समान सत् नहीं। वह मात्र ब्रह्म या आत्म तत्व को ही सत् मानता है और प्रकृति को ब्रह्म की अनिर्वचनीय माया शक्ति का परिणाम समझता है। वेदांत का आत्म तत्व सांख्य के पुरुष के साथ स्वरूपतः समान होता हुआ भी वेदांत आत्मक तत्व को एकरस, एकमेवाद्वितीय मानता है, सांख्य के पुरुष के समान अनंत नहीं।

परा तथा अपरा प्रकृति


    वेदांत की दृष्टि में यह प्रकृति प्राण और आकाश इन दो तत्वों से बनी है। प्राण 'एनर्जी' ( energy ) का बोधक है और आकाश 'मैटर' ( matter ) का। प्रश्नोपनिषद् ने इन्हीं दो तत्वों को क्रमशः 'प्राण' और 'रथि' कहकर पुकारा है। प्राण जब आकाश पर अपनी क्रिया करता है, तब प्रकृति में, जो कि सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों की साम्यावस्था है, विकार उत्पन्न होता है। यही प्राण और आकाश की भी साम्यावस्था है। प्राण के आकाश में गतिशील होने पर गुणों की यह समता नष्ट हो जाती है और सारा कार्य समुदाय क्रमशः उत्पन्न होता है। प्रकृति के इस रूप को गीता में 'अपरा' कह कर पुकारा गया है, जो जड़ और अष्टध विभाजित है। इसके पीछे जो चेतन तत्व है, जो आत्मा की सन्निधि के कारण जीव की उपाधि ग्रहण करता है, उसे गीता ने 'परा प्रकृति' कह कर संबोधित किया है। इसी को क्रमशः क्षर और अक्षर या क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ भी कहा है। आत्मा, परमात्मा, पुरुषोत्तम, ब्रह्म या परममूलकारण प्रकृति के इन दोनों रूपों से परे है और एकमात्र वही सत् है। गीता में (7/4-5) श्री भगवान कहते हैं-

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिः अष्टधा।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयः तथा।।
मत्तः परतरं नान्यत् किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।

   -'अर्थात्, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ( ये पांच सूक्ष्म भूत ) मन, बुद्धि और अहंकार इन आठ प्रकारों में मेरी प्रकृति विभाजित है। यह अपरा अर्थात् निम्न श्रेणी की ( प्रकृति ) है। हे महाबाहो! यह जानो कि इससे भिन्न, जगत् को धारण करने वाली परा अर्थात् उच्च श्रेणी की जीवरूप मेरी दूसरी प्रकृति है। समझ रखो कि इन्हीं दोनों से सब प्राणी उत्पन्न होते हैं। सारे जगत् का प्रभव यानी मूल और प्रलय यानी अंत मैं ही हूं। हे धनंजय! मुझ से परे और कुछ नहीं है। धागे में पिरोए हुए मणियों के समान मुझ में यह सब गुंथा हुआ है।'

प्रकृति का कारण परमात्मा


    इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृति के ये दोनों रूप, जिनसे यह सारा चराचर जगत् उत्पन्न हुआ है, साक्षात् उस परम तत्व से ही निकले हैं। अर्थात्, प्रकृति भी वस्तुतः स्वयं एक कार्य है और उसका कारण है परमात्मा, जिसे श्रीशंकराचार्य ने 'परममूलकारण' कह कर पुकारा है। मुंडक उपनिषद् (2/1/2) भी इसी अर्थ को ध्वनित करते हुए कहता है-

एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथवी विश्वस्य धारिणी।।

     -'इस ( परम पुरुष ) से प्राण, सब इंद्रियां, आकाश, वायु, अग्नि, जल और विश्व को धारण करने वाली पृथ्वी- ये ( सब ) उत्पन्न होते हैं।' प्रश्नोपनिषद् (6/4) में भी पिप्पलाद ऋषि भरद्वाज के पुत्र सुकेशा के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं - 'स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथवीन्द्रियं मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च' -  'उस पुरुष ने प्राण को रचा, फिर प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इंद्रिय, मन और अन्न को तथा अन्न से वीर्य, तप, मंत्र, कर्म और लोकों को एवं लोकों में नाम को उत्पन्न किया।'

'स्वयंभू' शब्द की व्याख्या


    इस प्रकार गीता और उपनिषद् हमें यही बताते हैं कि वह परमात्मा ही एकमात्र ऐसा कारण है, जो स्वयं कभी किसी का कार्य नहीं बनता। इसलिए उसे शास्त्रों ने 'स्वयंभू' कह कर पुकारा है -वह, जो अपने आप ही उत्पन्न हुआ हो, जो किसी का परिणाम ना हो। गीता के जिस इस लोक का हम अभी विवेचन कर रहे हैं, वह कहता है कि सद् वस्तु वह है जो हरदम है। एकमात्र परमात्मा ही ऐसा है जो हरदम है, शेष सब तो कार्य की श्रेणी में आने के कारण उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं, इसलिए एक काल में होते हैं और दूसरे काल में नहीं होते। मिट्टी का खिलौना एक समय नहीं था, दूसरे समय हुआ और तीसरे समय फिर से नष्ट हो जाता है। मिट्टी अभी है, पर जब हम उसके भीतर घुसकर उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं, तो देखते हैं कि वह सूक्ष्म रूप धारण कर रही है, वह अणु ( molecule ) मात्र हो गई है। जब हम इस अणु के भीतर घुसते हैं, तो देखते हैं वह परमाणु ( atom ) मात्र हो गया है, और जब हम इस परमाणु के अंदर जाने की कोशिश करते हैं, तो देखते हैं वह इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन बनकर हमारी पकड़ से बाहर हो गया है। आज का विज्ञान हमें बताता है कि यह इलेक्ट्रान भी शक्ति तरंग में पर्यवसित होकर गायब हो जाता है। संसार में जितने पदार्थ हैं, उनकी अंत में यही गति होती है। 'शतपथ ब्राह्मण' जो आज से लगभग 3000 वर्ष पूर्व लिखा माना जाता है, हमें बतलाता है कि सभी पदार्थ अंत में 'यत्' और 'जूः' नामक तत्वों में पर्यवसित होते हैं। वहां इन दो तत्वों को 'प्राण' और 'आकाश' की पूर्व अवस्था के रूप में निरूपित किया गया है और शक्ति तरंग के रूप में, एक प्रकार के प्राण के रूप में उनकी अवस्थिति मानी गई है। इलेक्ट्रान और प्रोटोन के साथ 'यत्' और 'जूः' के लक्षणों का साम्य विस्मयकारी है। पर वैदिक विज्ञान इससे भी आगे गया है। वह इन्हें क्षर पुरुष के रूप मानता है और कहता है कि ये अक्षर से उद्भुत हुए हैं। अक्षर की उत्पत्ति अव्यय से होती है और यह अव्यय उस एक मूल तत्व का माया विशिष्ट रूप है।
    इस विवेचन का सार यह हुआ कि एकमात्र परमात्मा ही सद् वस्तु है और शेष सभी असद् वस्तु की श्रेणी में आते हैं। अतएव परमात्मा हरदम है और एकमात्र उसी का अस्तित्व है तथा अन्य जितने रूप दिखाई देते हैं, उनका अस्तित्व कभी नहीं है। इसका व्यावहारिक अर्थ भगवान् श्रीकृष्ण यह करते हैं कि अर्जुन, तुम अपने आत्मीय स्वजनों के जिन शरीरों के नाश की चिंता से आकुल हो, वे शरीर असत् हैं। अतः भले ही वे दिखते हैं, पर उनकी विद्यमानता नहीं है। इसलिए तुम उनके लिए शोक मत करो। भगवान् यह चाहते हैं कि अर्जुन उन शरीरों के पीछे सदैव विद्यमान उस शरीरी को देखे, जो नित्य है।

दृश्यमान संसार एक विराट् स्वप्न


     अब यह बड़ी विचित्र बात मालूम पड़ती है कि जो सत् है, वह इंद्रिय गोचर नहीं है और जो इंद्रिय गोचर है, वह असत् है। इसका मतलब यह हुआ कि यह सारा संसार जिसमें हम जन्म लेते हैं और बने रहते हैं, कार्य की श्रेणी में होने के कारण असत् है और इसलिए इसका अस्तित्व नहीं है। यहां पर कहा जा सकता है कि इस ठोस संसार को असत् कहने वाला कोई पागल ही हो सकता है। यह सुंदर शरीर दिखाई देता है, वह कैसे असत् हो सकता है? कल-कल नाद करके बहने वाली नदी असत् कैसे हो सकती है? युगों से सिर ऊंचा उठाए खड़ा हुआ हिमालय असत् कैसे हो सकता है? इन प्रश्नों के उत्तर में हम सपने की बात सोचें। सपने में हम भव्य मंदिर, उत्तुंग शिखर और जाने कितनी चीजें देखते हैं। जब तक स्वप्न चलता है, तब तक उस में दिखने वाली सारी वस्तुएं सत् मालूम पड़ती हैं। पर ज्यों ही सपना टूटा, सब की सब एक साथ असत् प्रमाणित होती हैं। इसी प्रकार आज की हमारी यह जाग्रत् अवस्था भी तुरीय यानी ज्ञान की चरम अवस्था की अपेक्षा से एक विराट् स्वप्न ही है। जब हम ज्ञान की उस भूमिका में पहुंचते हैं, जिसे सद् वस्तु के साक्षात्कार की अवस्था कहा है, तब यह सारा ठोस दिखने वाला संसार असत् साबित होता है।

नित्य सत्य और अनित्य सत्य


     जैसे, एक जादूगर अपने जादू के करतब दिखाता है। जब तक हम वह सब करतब देख रहे हैं, जादू सत्य ही मालूम पड़ता है। पर ज्यों ही जादूगर अपना जादू समेटता है, त्यों ही जादू की अनित्यता हमारी आंखों के सामने कौंध जाती है। जादूगर ऐसा सत्य है, जो उसके जादू की अपेक्षा से नित्य है। जादू ऐसा सत्य है, जो अनित्य हैं। हम किसी व्यक्ति के 100 चित्र देखते हैं। ये उस व्यक्ति के सौ भिन्न-भिन्न रूप हैं। ये रूप सत्य तो हैं, पर अनित्य हैं। उस व्यक्ति का वह रूप जो दिखाई तो नहीं देता पर जिसकी विद्यमानता के कारण उसके ये विभिन्न रूप सत्य मालूम पड़ते हैं, ऐसा सत्य है जो नित्य है। इस प्रकार सत्य की दो श्रेणियां हुईं- एक नित्य सत्य और दूसरा अनित्य सत्य। इस नित्य सत्य को ही विवेच्च श्लोक में 'सत्' के नाम से पुकारा गया है और 'अनित्य सत्य' को 'असत्' कहा गया है। इस सत् का, इस नित्य सत्य का कभी अभाव नहीं होता, यानी यह सदैव विद्यमान है यह बात तो समझ में आती है, पर इस असत् का, अनित्य सत्य का कभी भाव नहीं है, यानी वह कभी अस्तित्व में नहीं है, इस बात को समझने में कठिनाई होती है। यह कठिनाई इसलिए है कि असत् कुछ काल के लिए ही सही, दृष्टिगोचर तो होता ही है। जो दिखे, उसके लिए कहें कि यह कभी विद्यमान ही नहीं है, बड़ा विचित्र सा मालूम पड़ता है।

अनित्य सत्य - असत् - रस्सी में सांप का भ्रम


    पर वेदांत इस बात की तर्कसंगत व्याख्या करता हुआ कहता है कि देखो, रज्जु में, रस्सी में जब सर्प का भ्रम होता है, तो क्या वहां सर्प होता है? नहीं। फिर भी सर्प की प्रतीति कैसे होती है? जब हमें सीपी में चांदी का भ्रम होता है, तो क्या वहां पर चांदी है? नहीं। तो फिर चांदी का भ्रम कैसे हुआ? जब मरुस्थल में जल का भ्रम होता है, तो क्या वहां जल होता है? नहीं। तब फिर जल का भ्रम कैसे हुआ? तो जिस प्रकार सर्प, चांदी और जल न होकर भी होते से दिखाई देते हैं, उसी प्रकार यह असत् या अनित्य सत्य भी वस्तुतः नहीं है, पर हुआ सा दिखाई देता है।
     इस प्रकार कोई कह सकता है कि ठीक है, सर्प नहीं है, फिर भी रस्सी में सर्प का जो भ्रम हुआ, उसका कारण यह है कि पहले कभी सर्प की प्रतीति अवश्य हुई है, यदि सर्प की प्रतीति पहले से नहीं होती, तो उसका भ्रम कैसे होता? यदि चांदी या जल का हमें पहले से अनुभव न होता, तो सीपी में चांदी का या मरुस्थल में जल का भ्रम कैसे होता? इसी प्रकार यदि असत् की प्रतीति पूर्व से न हो, तो साथ में उसका भ्रम कैसे संभव है? अतएव यह मानना पड़ेगा कि असत् पूर्व से विद्यमान है, यानी असत् का भाव है। यदि असत् हो ही नहीं, तो उसकी प्रतीति भला कैसे हो सकती है? वंध्यापुत्र की प्रतीति तो नहीं होती, खरगोश के सींग की प्रतीति तो नहीं होती।

जगत् का स्वरूप


   इस शंका के उत्तर में यह कहा जाता है कि यह तर्क ठीक है। यह ठीक है कि यदि असत् की प्रतीति पहले से न हो, तो उसका भ्रम नहीं हो सकता। वंध्यापुत्र या खरगोश के सींग होता ही नहीं, इसलिए उसका भ्रम भी कभी किसी को नहीं होता। भ्रम हुआ इसका मतलब है कि उसकी प्रतीति है। यह जगत् वंध्यापुत्र या खरगोश के सींग के समान असत् नहीं है। आचार्य शंकर मुंडकोपनिषद् पर अपने भाष्य में जगत् का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं- 'कदलीगर्भवदसारान् मायमरीच्युदकगन्धर्वनगराकारस्वप्नजलबुद्बुदफेनसमान् प्रतिक्षणप्रध्वंसान्'- 'वह केले के भीतरी भाग के समान सार हीन है, माया, मृगजल और गंधर्वनगर के समान भ्रमपूर्ण है तथा स्वप्न, जल-बुद्बुद और फेन के सदृश क्षण क्षण में नष्ट होने वाला है।' जिस अर्थ में स्वप्न, मृगजल या जल के बुलबुले का 'भाव' नहीं है, उसी अर्थ में असत् का भी 'भाव' नहीं है। पिछले जन्म में हमारे मन पर इस 'असत्' यानी 'अनित्य सत्य' के संस्कार पड़े, इसलिए इस जन्म में हमें इस असत् जगत् की प्रतीति हुई और इसी कारण रज्जु में सर्प के भासने के समान ब्रह्म में असत् का भास होता है। प्रश्न उठता है कि पिछले जन्म में असत् की प्रतीक कैसे हुई? उत्तर है कि उससे भी पिछले जन्म में असत् जगत् के संस्कार मन पर पड़े थे इसलिए। इस तर्क को और पीछे खींच कर ले जाएं, तो यह प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर सबसे प्रथम इस असत् की प्रतीति का प्रारम्भ कब से हुआ? इसका उत्तर वेदांत देता है अनादिकाल से।
-क्यों हुआ?
-माया के कारण।
-यह माया क्या है?
-उस ब्रह्म की, उस एकमात्र सद् वस्तु की अनिर्वचनीय शक्ति हैं।
-यदि माया को अनादि मानो, तो उसका अंत भी नहीं है और यदि माया अनादि के साथ-साथ अनंत भी है, तो फिर वह भी सद् वस्तु हुई?
-नहीं, माया अनादि भले ही है, पर वह अनंत नहीं है, उसका अंत होता है। इसलिए वह सद् वस्तु नहीं हो सकती।
-उसका अंत कब होता है?
-उस समय, जब उस ब्रह्म को, इस परममूलकारण को, उस एकमात्र सद् वस्तु को जान लिया जाता है, जिसके संबंध में श्रुति भगवती कहती हैं - 'सदेव सोम्य इदमग्रासीत् एकमेवाद्वितीयम्'- 'हे सोम्य! सर्वप्रथम वह एक और अद्वितीय सद् वस्तु ही विद्यमान थी।'
-उसका ज्ञान कैसे होता है?
-ध्यान योग के अनुगमन द्वारा।

ध्यान योग तथा एकाग्रता में भेद


    आचार्य शंकर श्वेताश्वतरोपनिषत् भाष्य में कहते हैं कि ऋषियों ने उस परममूलकारण को, जो समस्त प्रमाणों के अगोचर है, एक भिन्न ही प्रकार से देखा और वह था ध्यान योग का अनुगमन। जब हम अपने मन को संसार की वस्तुओं से समेटकर उसके अपने ही ऊपर एकाग्र करते हैं, तो यह ध्यान योग के अभ्यास के नाम से जाना जाता है। मात्र मन की एकाग्रता को ध्यान योग नहीं कहते। मन तो अपनी अभिरुचि के विषय में सहज ही एकाग्र हो जाता है। यदि किसी की संगीत में रुचि है, तो संगीत का अभ्यास करते समय उसका मन संसार के सब विषयों से हटकर संगीत में एकाग्र हो जाता है। यदि किसी को चित्रकारी में रुचि हो तो चित्र बनाते समय उसका मन वहां एकाग्र हो जाता है। कलाकार का मन कला में एकाग्र हो जाता है। पर इसे 'ध्यानयोग' नहीं कहते। हम 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक में पढ़ते हैं कि शकुंतला दुष्यंत के ध्यान में इतनी तल्लीन थी कि उसे दुर्वासा मुनि के आने का पता तक न चला और इस प्रकार वह उनकी शाप भाजन बनी। पर उसकी यह एकाग्रता ध्यान योग की एकाग्रता नहीं है। तो ध्यान योग की एकाग्रता क्या है? जब हम अपने मन को संसार के पदार्थों से समेट कर उसके अपने ऊपर ही केंद्रित करते हैं, तो यह अभ्यास ध्यान योग के अभ्यास के नाम से जाना जाता है। जिस उपाय से हमारा मन बाहर के पदार्थों से हटकर अपने स्वयं के ऊपर आकर खड़ा हो जाए, उसे ध्यान योग कहते हैं। आज हमारा मन अत्यंत बिखरा हुआ है, इसलिए हमें उसकी संभावनाओं का पता नहीं चलता। आज हमारा मन भोथरा है, उसमें penetrating power ( भेदन शक्ति ) नहीं है। परंतु जिस समय ध्यान योग के अभ्यास के द्वारा हम अपने मन को स्वयं अपने ही ऊपर एकाग्र करने में समर्थ होते हैं, तो मन में अंतर भेदन की शक्ति आ जाती है और वह अपनी गहराइयों में उतरने लगता है, अपनी पर्तों को छेदता हुआ नीचे उतरता जाता है। उस समय कुंडलिनी शक्ति का जागरण होता है और हमें विलक्षण आध्यात्मिक अनुभव होने लगते हैं। एक समय ऐसा भी आता है, जब मन अपनी सारी परतों को भेद कर अपनी सीमा को मानो ना छलांग मारकर पार कर जाता है और उस अवस्था में लीन हो जाता है, जिसे माण्डुक्योपनिषद् की भाषा में कहा गया है-
   'अदृष्टम् अव्यवहार्यम् अग्राह्यम् अलक्षणम् अचिन्त्यम् अव्यपदेश्यम् एकात्मप्रत्ययसारं प्रपंचोपशमं शान्तं शिवम् अद्वैतं चतुर्थम्। स आत्मा से विज्ञेयः।'- वह चौथी अवस्था तुरीय ऐसी है, जो अदृष्ट ( ज्ञानेंद्रियों के पकड़ में ना आने वाली ), अव्यवहार्य ( व्यवहार से परे ), अग्राह्य ( कर्मेंद्रियों की पकड़ में ना आने वाली ), अलक्षण ( सब प्रकार के लक्षणों से, पहचान से शून्य ), अचिन्त्य ( मन बुद्धि से परे ), अव्यपदेश ( वाणी द्वारा अकथनीय ), एकात्मप्रत्ययसार ( एकमेव आत्मतत्व के बोध से ही प्राप्त होने वाली ), प्रपंचो से परे, शांत ( अविकारी ), शिव ( मंगलमय ) और अद्वैत ( सब प्रकार के भेदों से रहित ) है। वही आत्मा है और वही ज्ञातव्य है।'

नित्य सत्य - सत् - तुरीय अवस्था


      यह तुरीय, यह चतुर्थ अवस्था, यह आत्मा ही एकमात्र सत् है। शेष तीन अवस्थाओं में- जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति में जो कुछ अनुभव में आता है, सब असत् है। भगवान् कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि सत् और असत् के तत्व को तत्वद्रष्टाओं ने इस प्रकार जाना है कि सत् सदैव है और असत् कभी नहीं है। यह जो असत् अस्तित्ववान् सा दिखाई देता है, वह इस सत् की ही अनिर्वचनीय माया शक्ति का खेल है। यदि पूछो कि सत् की इस माया शक्ति का उद्भव कब, क्यों और कैसे हुआ?- तो इसका उत्तर मात्र मौन है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

लघुसिद्धान्तकौमुदी संज्ञा प्रकरण

लघुसिद्धान्तकौमुदी || श्रीगणेशाय नमः || लघुसिद्धान्तकौमुदी नत्त्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् | पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् |      लघुसिद्धांतकौमुदी के प्रारंभ में कौमुदी कर्ता वरदराजाचार्य ने नत्वा सरस्वतीं देवीम् इस श्लोक से मंगलाचरण किया है | मंगलाचरण के तीन प्रयोजन है - 1- प्रारंभ किए जाने वाले कार्य में विघ्न ना आए अर्थात् विघ्नों का नाश हो , 2- ग्रंथ पूर्ण हो जाए अौर , 3- रचित ग्रंथ का प्रचार - प्रसार हो।

लघुसिद्धान्तकौमुदी पदसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

14-  सुप्तिङन्तं पदम्  1|4|14|| पदसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 14- सुप्तिङन्तं पदम् 1|4|14|| सुबन्तं तिङन्तं च पदसंज्ञं स्यात् | इति संञ्ज्ञाप्रकरणम् ||1||      सुबन्त और तिङन्त पद संज्ञक होते हैं।

लघुसिद्धान्तकौमुदी उदात्त, अनुदात्त, स्वरितसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी उदात्तसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 6- उच्चैरुदात्तः 1|2|29|| अनुदात्तसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 7- नीचैरनुदात्तः 1|2|30|| स्वरितसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 8- समाहारः स्वरितः 1|2|31|| स नवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकत्वाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा |