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लघुसिद्धान्तकौमुदी 'अ' आदिसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी 'अ' आदिसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र
लघुसिद्धान्तकौमुदी

'' आदिसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्

11- अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः 1|1|69||

प्रतीयते विधीयत इति प्रत्ययः |

अविधीयमानोऽणुदिच्च सवर्णस्य संज्ञा स्यात् |

अत्रैवाण् परेण णकारेण |

कु-चु-टु-तु-पु एते उदितः |

तदेवम्- अ इत्यष्टादशानां संज्ञा | तथेकारोकारौ |

ऋकारस्त्रिंशतः | एवं लृकारोऽपि | एचो द्वादशानाम् |

अनुनासिकाननुनासिकभेदेन यवला द्विधा; तेनाननुनासिकास्ते द्वयोर्द्वयोः संज्ञाः |

    अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः | इस सूत्र में प्रत्यय शब्द यौगिक अर्थ में लिया जाता है, न कि व्याकरणशास्त्र में संज्ञा से बोध्य सुप्-तिङ् आदि प्रत्यय | इसीलिए जिसका विधान किया जाता है, उसे प्रत्यय कहते हैं, अर्थात् जो विधेय हो उसे प्रत्यय कहते हैं और जो विधेय नहीं है, वह अप्रत्यय हैं।

    अप्रत्यय अण् और उदित् ये सवर्ण के बोधक अर्थात् ग्राहक होते हैं।

    कु, चु, टु, तु, पु ये ही उदित् हैं, क्योंकि इन पाॅंचों की ही प्राचीन आचार्यों ने उदित् संज्ञा की है।

    जिस सूत्र में अण् विधीयमान अर्थात् विधेय नहीं है, वहाॅं एक अण् प्रत्याहार के वर्ण से उसके अन्य सवर्णी वर्णों का ग्रहण किया जाता है | जैसे इको यणचि में इक् प्रत्याहार से केवल , , और लृ ही नहीं लिए जाते अपितु , , आदि दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, अनुनासिक, अननुनासिक आदि सभी 18 भेदों का ग्रहण किया जाता है | तात्पर्य यह है कि जिन-जिन वर्णों की आपस में तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् से सवर्ण संज्ञा हुई है | वे यदि अण् प्रत्याहार में आते हैं तो वे अपने सवर्णियों के ग्राहक अर्थात् बोधक होते हैं | एक के ग्रहण से दूसरे का ग्रहण हो जाता है | यह नियम अण् के लिए है | शेष वर्णों में उदित् होना जरूरी है, तभी सवर्ण का ग्रहण किया जाएगा | जैसे- कुहोश्चुः, चोः कु आदि सूत्रों में उकारयुक्त कु, चु आदि पढ़े गए हैं | ऐसे स्थलों पर सवर्ण का ग्रहण होगा, अन्यत्र क्, च् से अपने सवर्णियों का बोध नहीं होगा।

    अत्रैवाण् परेण णकारेण | इस सूत्र में अण् प्रत्याहार को पर णकार अर्थात् लण् के णकार को लेकर माना गया है, अन्यत्र सर्वत्र अइउण् वाले णकार को लेकर ही अण् प्रत्याहार माना जाता है | तात्पर्य यह है कि इस सूत्र में कथित अण् से , , , , लृ, , , , , ह्, य्, व्, र्, ल् का बोध होता है और अन्यत्र अण् से , , का मात्र बोध होता है।

    तदेवम्- अ इत्यष्टादशानां संज्ञा | तथेकारोकारौ | इस प्रकार से से 18 प्रकार के अकार का बोध अथवा ग्रहण किया जाता है | इसी प्रकार इकार और उकार से भी 18-18 प्रकार के इकार और उकार का ही बोध अर्थात् ग्रहण किया जाता है।

    ऋकारस्त्रिंशतः | एवं लृकारोऽपि | ऋकार से 30 प्रकार के ऋकार (18 प्रकार के ऋकार तथा 12 प्रकार के लृकार) का बोध अर्थात् ग्रहण किया जाता है | इसी तरह लृकार से भी 30 ही प्रकार का बोध होता है, क्योंकि ऋकार और लृकार की सवर्णसंज्ञा होती है | अतः ये दोनों वर्ण आपस में सवर्णी हैं | जहाॅं ये विधीयमान नहीं है, वहां पर ऋकार से ऋकार के 18 भेद और लृकार के 12 भेद इसी प्रकार लृकार से भी ऋकार और लृकार के सभी भेद वाले ग्रहण किए जाते हैं | इसका फल आगे स्पष्ट किया जाएगा।

    एचो द्वादशानाम् | एच् के प्रत्येक , , , वर्णों से 12-12 प्रकार के भेदों सहित एचों का ग्रहण किया जाता है।

    अनुनासिकाननुनासिकभेदेन यवला द्विधा; तेनाननुनासिकास्ते द्वयोर्द्वयोः संज्ञाः | य्, व्, ल् ये वर्ण यॅं्, वॅं्, लॅं, के रूप में अनुनासिक और य्, व्, ल् के रूप में अननुनासिक (निरनुनासिक) हैं | अतः य्, व्, ल् से अनुनासिक और अननुनासिक दोनों प्रकार के यकार, वकार, लकार का बोध होता है।

    इस तरह से पहले अइउण् आदि सूत्रों का पठन, उसके बाद अंत्य वर्ण की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा और उसका तस्य लोपः से लोप करके आदिरन्त्येन सहेता से प्रत्याहार बनाने के बाद उन अचों की ह्रस्व, दीर्घ, प्लुतसंज्ञा, उसके बाद उदात्त-अनुदात्त-स्वरितसंज्ञा, उसके बाद अनुनासिक और अननुनासिकसंज्ञा करके वर्णों के स्थान एवं प्रयत्न को जानने के बाद जिनका आपस में स्थान और प्रयत्न मिलते हैं, उनकी सवर्णसंज्ञा करके उन सवर्णियों का अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः से ग्रहण किए जाने के वर्णाश्रित-प्रक्रिया को आप अच्छी तरह से समझ गए होंगे | अब इन्हीं प्रत्याहार, स्थान, प्रयत्न, सवर्णसंज्ञा और सवर्णियों का ग्रहण आदि करके सूत्रों से अनेक कार्य किए जाते हैं | अच् सन्धि से लेकर स्त्री प्रत्यय तक प्रत्याहार, स्थान, प्रयत्न एवं सवर्णसंज्ञा की नितान्त आवश्यकता होती है।

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