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लघुसिद्धान्तकौमुदी |
अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्
9- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् |
तदित्थम्- अ-इ-उ-ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |
लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् |
एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् |
मुख और नासिका से एक साथ उच्चारित होने वाले वर्ण अनुनासिकसंज्ञक होते हैं।
वास्तव में वर्णों का उच्चारण तो मुख से ही होता है किंतु ङ्, ञ्, ण्, न्, म् आदि वर्ण और अनुनासिक (अॅं, इॅं, उॅं आदि) तथा अनुस्वार (अं, इं, उं आदि) के उच्चारण में नासिका (नाक) की भी सहायता चाहिए | नाक की सहायता से मुख से उच्चारित होने वाले ऐसे वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं | जो अनुनासिक नहीं है, वे अननुनासिक या निरनुनासिक कहलाते हैं | हम पहले बता चुके हैं कि ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, अनुनासिक ये अचों में रहने वाले धर्म है | अपवाद के रूप में ङ्, ञ्, ण्, न्, म् ये व्यंजन होते हुए भी इन्हें अनुनासिक कहा जाता है | इसी प्रकार यॅं, वॅं, लॅं भी अनुनासिक माने जाते हैं और य्, व्, ल् के रूप में निरनुनासिक भी हैं | जहाॅं पर अनुनासिक का व्यवहार होगा वहां पर अनुनासिक अच् और ङ्, ञ्, ण्, न्, म् ये समझे जाते हैं | इस संबंध में आगे यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा आदि सूत्रों का प्रसंग देखना चाहिए।
तदित्थम्- अ-इ-उ-ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः | इस प्रकार से अ, इ, उ और ऋ इन चार वर्णों के अट्ठारह-अट्ठारह भेद हुए।
लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | लृ के दीर्घ न होने से 12 भेद होते हैं।
एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् | एचों का ह्रस्व नहीं होता है, इसलिए 12 ही भेद होते हैं।
पहले अच् अर्थात् अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ ये वर्ण ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के कारण प्रत्येक तीन-तीन भेद वाले हो गए किंतु लृ की दीर्घ मात्रा नहीं है, इसलिए लृ के ह्रस्व और प्लुत दो ही भेद हुए | इसी प्रकार एच् अर्थात् ए, ओ, ऐ, औ का ह्रस्व नहीं होता, अतः एच् के दीर्घ और प्लुत ही दो-दो भेद हो गए | शेष अ, इ, उ, ऋ ये चारों वर्ण ह्रस्व भी हैं, दीर्घ भी होते हैं और प्लुत भी होते हैं, इसलिए यह तीन-तीन भेद वाले माने जाते हैं।
इस प्रकार से दो एवं तीन भेद वाले प्रत्येक अच् वर्ण उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से पुनः तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं | जैसे प्रत्येक ह्रस्व अच् उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का, दीर्घ अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का और प्लुत अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार के हो जाने से कुछ अच् छः प्रकार के और कुछ 9 प्रकार के हो गए | छः प्रकार के इसलिए कि जिन वर्णों में ह्रस्व या दीर्घ नहीं थे वे दो-दो प्रकार के थे, सो अब उदात्तादि स्वरों के कारण छः-छः प्रकार के हो गए | जिन अच् वर्णों के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों हैं वे उदात्तादि स्वरों के कारण नौ-नौ प्रकार के हो गए | इस प्रकार से अभी तक अचों के 6 या 9 प्रकार के भेद सिद्ध हुए।
वे ही वर्ण पुनः अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप ये 12 और 18 प्रकार के भेद वाले हो जाते हैं | इसके पहले जो 6 प्रकार के थे, वे 12 प्रकार के एवं जो 9 प्रकार के थे, वे 18 प्रकार के हो जाते हैं।
अनुनासिक पक्ष के छः और नौ भेद तथा अननुनासिक पक्ष के भी छः और नौ भेद होते हैं | इस प्रकार से अ, इ, उ, ऋ के अट्ठारह-अट्ठारह भेद तथा लृ, ए, ओ, ऐ, औ के 12-12 भेद सिद्ध हुए | य्-व्-ल् ये वर्ण अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।
इस विषय को तालिका के माध्यम से समझते हैं-
ह्रस्व-अ, इ, उ, ऋ, लृ | दीर्घ-आ, ई, ऊ, ॠ, ए, ओ, ऐ, औ | प्लुत-अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ |
1. ह्रस्व उदात्त अनुनासिक | 7. दीर्घ उदात्त अनुनासिक | 13. प्लुत उदात्त अनुनासिक |
2. ह्रस्व उदात्त अननुनासिक | 8. दीर्घ उदात्त अननुनासिक | 14. प्लुत उदात्त अननुनासिक |
3. ह्रस्व अनुदात्त अनुनासिक | 9. दीर्घ अनुदात्त अनुनासिक | 15. प्लुत अनुदात्त अनुनासिक |
4. ह्रस्व अनुदात्त अननुनासिक | 10. दीर्घ अनुदात्त अननुनासिक | 16. प्लुत अनुदात्त अननुनासिक |
5. ह्रस्व स्वरित अनुनासिक | 11. दीर्घ स्वरित अनुनासिक | 17. प्लुत स्वरित अनुनासिक |
6. ह्रस्व स्वरित अननुनासिक | 12. दीर्घ स्वरित अननुनासिक | 18. प्लुत स्वरित अननुनासिक |
अब अगले सूत्र से वर्णों की आपस में सवर्णसंज्ञा की जाएगी | सवर्ण संज्ञा के लिए स्थान और प्रयत्नों का जानना आवश्यक है | मुख के जिस भाग विशेष के विशेष जुड़ाव या प्रक्रिया से वर्णों का उच्चारण होता है, उस वर्ण का वही स्थान होता है | जैसे प् का उच्चारण दोनों होठों के आपस में जोड़ने पर होता है | अतः प् का स्थान ओष्ठ है | अ का उच्चारण सीधे कंठ से होता है | अतः अ का स्थान कण्ठ है।
वर्णों के उच्चारण में शरीर के नाभि भाग से प्रारंभ होकर ह्रदय और शीर्ष भाग होते हुए मुख से बाहर तक एक प्रकार का यत्न होता है, और जो वर्ण उच्चारण होते समय जिस स्थान या क्रिया विशेष को प्रभावित करता है, वही उसका प्रयत्न होता है।
व्याकरण में कवर्ग आदि का प्रयोग बहुत जगहों पर होगा | कु से कवर्ग, चु से चवर्ग, टु से टवर्ग, तु से तवर्ग और पु से पवर्ग समझना चाहिए | वर्गों में भी कवर्ग का तात्पर्य क, ख, ग, घ, ङ एवं चवर्ग का तात्पर्य च, छ, ज, झ, ञ और आगे भी इसी प्रकार वर्ग समझना चाहिए।
विसर्ग के तीन भेद हैं | जो सर्वत्र प्रचलित दो बिंदुओं वाला है उसे विसर्जनीय अथवा सामान्य विसर्ग कहते हैं, किंतु क और ख के पहले आने वाला विसर्ग कभी जिह्वामूलीय तो कभी विसर्जनीय अर्थात सामान्य विसर्ग होता है | इसी प्रकार प और फ के पहले आने वाला विसर्ग कभी उपध्मानीय तो कभी विसर्जनीय अर्थात सामान्य विसर्ग रहता है।
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