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लघुसिद्धान्तकौमुदी |
संस्कृत व्याकरण में परिभाषायें
अष्टाध्याई ग्रंथ लगभग 4000 सूत्रों से निर्मित है और पाठ 8 अध्यायों में विभाजित है | प्रत्येक अध्याय में 4 पद हैं | (5 सूत्रों को छोड़कर शेष) समस्त सूत्रों का मूल रूप सौभाग्यवस पंडितों द्वारा सुरक्षित चला आया है |
प्रथम अध्याय में व्याकरण शास्त्र संबंधी संज्ञाए तथा परिभाषाएं हैं | दूसरे अध्याय में समासों का विस्तृत विवेचन तथा कारक की व्याख्या है | तीसरे अध्याय में तथा आठवें में कृदंत प्रकरण है | चौथे और पांचवें ने तद्धित प्रकरण है तथा इसके पश्चात छठे और सातवें में तिङ्, सुप् प्रत्ययों से संबंधित प्रक्रिया का विवेचन है | आठवें में संधि प्रकरण भी है | पाणिनि ने अत्यंत श्रृंखलाबद्ध और संश्लिष्ट विधि से व्याकरण की बिखरी हुई सामग्री को सफलता के साथ एकत्र किया है | पाणिनि का ध्यान इस प्रयास में संक्षेपातिशय पर बहुत केंद्रित रहा है | इसलिए अष्टाध्यायी का दुर्गम होना स्वाभाविक है।संक्षेप करने में प्रधान हेतु संभवतः कंठाग्र करना और लेखन सामग्री की प्रचुरता के अभाव ही रहे होंगे | इस संक्षेप के लिए पाणिनि को मुख्य रूप से 6 साधनों का आश्रय लेना पड़ा है--1- प्रत्याहार, 2-अनुबंध, 3-गण, 4-संज्ञाएॅं, (घ, षट्, श्लु, लुक्, टि, घु प्रभृत्ति) 5-अनुवृत्ति, 6-जगह-जगह कई सूत्रों के लागू होने वाले स्थानों के लिए पूर्वत्राऽसिद्धम् (8-2-1) सदृश नियमों (परिभाषाओं) की स्थापना | यहां संक्षेप में इन साधनों की कुछ व्याख्या की जाती है।
प्रत्याहार – प्रत्याहार नीचे 14 माहेश्वर सूत्रों को आधार मानकर बनाए गए हैं
अइउण् 1| ऋलृक् 2| एओङ् 3| ऐऔच् 4| हयवरट् 5| लण् 6| ञमङणनम् 7| झभञ् 8| घढधष् 9| जबगडदश् 10| खफछठथचटतव् 11| कपय् 12| शषसर् 13 हल् 14||
इनमें जो अक्षर हल् है (अर्थात स्वर से वियुक्त है) वे इत् कहलाते हैं जैसे ण्, क् आदि | इन्हें इत् संज्ञा देने वाला सूत्र हलन्त्यम् (1/3/3) है | आदिरन्त्येन सहेता (1/1/71) इस सूत्र से इन चतुर्दश गणों में आने वाला इत् से भिन्न कोई भी अक्षर जब किसी इत्संज्ञक अक्षर के पूर्व मिलाकर लिखा जाता है तब प्रत्याहार बनता है | जैसे अइउण् से अ को लेकर अौर ऋलृक् से इत्संज्ञक क् को लेकर अक् प्रत्याहार बनता है जो 'अ इ उ ऋ लृ' समुदाय का बोधक होता है | इसी तरह झश् प्र्त्याहार द्वारा 'झ भ घ ढ ध झ ब ग ड द ' समुदाय का बोध होता है | प्रत्याहार की इस विधि के द्वारा अत्यन्त संक्षेप हो गया है |
अनुबंध - जो अक्षर इत् होते हैं उनकी सूची निम्नलिखित है- 1- उन्हीं उपदेशों के अंत में आने वाला हल् 2- (हलन्त्यम् 1/3/3), धातु, प्रत्यय, आगम, आदेश आदि (उपदेश) के मूल में स्थित 'अनुनासिक स्वर' (उपदेशेऽनुनासिक इत् 1/3/2), 3- किसी धातु के आदि में प्रयुक्त ञि, टु, डु (आदिर्ञिटुडवः 1/3/5), 4- किसी प्रत्यय के आदि में आने वाले चवर्ग और टवर्ग (चुटू 1/3/7), 5- किसी प्रत्यय के आदि में आने वाला ष् (षः प्रत्ययस्य 1/3/6) 6- तद्धित से भिन्न अन्य प्रत्ययों के आदि में आने वाले ल्, स् और कवर्ग (लशक्वतद्धिते 1/3/8) | इन इत् संज्ञकों का यद्यपि लोप हो जाता है, पर इनका उपयोग दूसरे प्रकार से होता है | ये अनुबंध प्रायः वृद्धि, गुण, आगम, आदेश, उदात्तादि स्वर प्रभृति प्रक्रियाओं के निमित्त बनते हैं | उदाहरणार्थ, स्त्रीप्रत्यय के विधान के लिए एक सूत्र है (षिद्गौरादिभ्यश्च 4/1/41) | इसके अनुसार जिन प्रत्ययों में ष् इत् होता है उन प्रत्ययों वाले शब्दों में स्त्रीलिंग के द्योतनार्थ ङीष् प्रत्यय जुड़ता है; जैसे रजक (रञ्ज्+ष्वुन्) शब्द में ष्वुन् प्रत्यय आया है | इसलिए उसमें ङीप् जुड़कर 'रजकी' यह रूप बनेगा | इन अनुबंधों का उपयोग वैदिक भाषा पर विचार करते समय पाणिनि ने अधिक किया है।
गणपाठ- जब कई ऐसे शब्द हों जिनमें एक ही प्रत्यय लगना हो या किसी एक प्रकार के विधान की रचना बतानी हो तो उन सब का एक गण बनाकर गण के आदि में आने वाले शब्द को लेकर ही एक सूत्र रच दिया गया है और गण पाठ अंत में दे दिया गया है | उदाहरणार्थ गर्गादिभ्यो यञ् (4/1/105) एक सूत्र है | इसके अनुसार गर्ग से शुरू होने वाले गण में यञ् प्रत्यय लगता है | गर्गादि गण में 102 शब्द आए हैं | ये सब शब्द सूत्र में नहीं गिनाए गए और गर्गादि कह कर काम निकाल लिया गया | इस तरह जगह बहुत कम घिरती है और सुविधा के साथ नियम भी बन जाते हैं।
संज्ञाएॅं और परिभाषाएॅं - प्रयत्नलाघव के लिए इनकी रचना हुई है | इनमें से कुछ पाणिनि की स्वयं बनाई और कुछ उनके पहले से चली आई हैं | कुछ मुख्य-मुख्य यहां दी जाती हैं-
1- वृद्धि- वृद्धिरादैच् (1/1/1) – आ, ऐ, अौ को वृद्धि कहते हैं।
2- गुण- अदेङ् गुणः (1/1/2)- अ, ए ओ गुण कहलाते हैं।
3- संप्रसारण- (इग्यणः सम्प्रसारणम् 1/1/45)- य्, व्, र्, ल् के स्थान पर इ, उ, ऋ, लृ का हो जाना संप्रसारण कहलाता है।
4- टि- अचोऽन्त्यादि टि (1/1/64)- किसी भी शब्द के अंतिम स्वर और यदि उसके बाद कोई व्यंजन हो तो वह भी 'टि' कहा जाता है, जैसे शक में क का अकार तथा मनस् में अस् 'टि' है।
5- उपधा- अलोऽन्त्यात्पूर्वं उपधा (1/1/65)- अंतिम वर्ण (स्वर या व्यंजन) के तुरंत पहले आने वाले वर्ण (स्वर या व्यंजन) को 'उपधा' कहते हैं।
6- प्रातिपदिक- अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् (1/2/24)- धातु, प्रत्यय और प्रत्ययान्त के अतिरिक्त कोई भी शब्द जो अर्थयुक्त हो, वह प्रातिपदिक होता है | इनके अतिरिक्त कृदन्त, तद्धितान्त और समस्त पदों को भी यह संज्ञा प्राप्त होती है- कृत्तद्धितसमासाश्च (1/2/26) | उदाहरण के लिए राम शब्द लीजिए | अवतार राम के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के केवल नाम होने से यह अर्थवान है, उसके विषय में न यह धातु है और न प्रत्ययान्त ही | इसलिए यह प्रातिपदिक कहा जाएगा | किंतु जब अवतार राम के लिए होगा तो रम् धातु से घञ् प्रत्ययान्त होकर कृदंत होने के नाते प्रातिपदिक कहलाएगा | इसी प्रकार रघु में अण् प्रत्यय जोड़ने से तद्धितान्त राघव प्रातिपदिक बना।
7- पद- सुप्तिङ्न्तं पदम् (1/4/14)- सुप् और तिङ् प्रत्ययों से युक्त होने पर कोई शब्द पद बनता है | प्रातिपदिक में लगने वाले प्रत्ययों को सुप् तथा धातु में लगने वाले प्रत्ययों को तिङ् कहते हैं | राम में सु प्रत्यय से रामः बना | यह पद हुआ | इसी प्रकार भू धातु में तिप्, तस् इत्यादि तिङ् प्रत्यय जुड़ने से भवति, भवतः इत्यादि क्रियापद बनते हैं | इसके अतिरिक्त सु से लेकर कप् तक के प्रत्ययों में, सर्वनाम स्थान को छोड़कर अन्य प्रत्ययों के आगे जुड़ने पर पूर्व शब्द की भी 'पद' संज्ञा होती है। स्वादिष्वसर्वनामस्थाने (1/4/17) |
8- सर्वनामस्थान- सुडनपुंसकस्य (1/1/43)- पुल्लिंग और स्त्रीलिंग प्रातिपदिक शब्दों के आगे लगने वाले सुट्- सु, अौ, जस्,अम् तथा औट् (विभक्ति) प्रत्यय सर्वनाम स्थान कहलाते हैं।
9- यस्मात्प्रत्ययविधिस्तदादि प्रत्ययेऽङ्गम् (1/4/13)- जिस शब्द के आगे कोई प्रत्यय जोड़ा जाए, उस प्रत्यय के पूर्व संपूर्ण शब्द समुदाय को अंग कहते हैं।
10- भ- यचि भम् (1/4/18)- सु से लेकर कप् तक के प्रत्ययों में यकार अथवा स्वर से आरंभ होने वाले प्रत्ययों के आगे जुड़ने पर पूर्व शब्द की ('पद' संज्ञा न होकर) 'भ' संज्ञा होती है।
11-घु- दाधाघ्वदाप् (1/1/20)- दाप् (काटना) और दैप् (साफ करना) को छोड़कर दा और धा स्वरूप वाली धातु की 'घु' संज्ञा होती है।
12- घ- तरप्तमपौ घः (1/123)- तरप् और तमप् इन प्रत्ययों की 'घ' संज्ञा होती है।
13- विभाषा- नवेति विभाषा (1/1/44)- जहां पर विकल्प से होने और न होने, दोनों की संभावना रहती है, वहां पर विभाषा संज्ञा होती है।
14- निष्ठा- क्तक्तवतू निष्ठा (1/1/26)- क्त और क्तवतु इन दोनों प्रत्ययों की 'निष्ठा' संज्ञा है।
15- संयोग- हलोऽनन्तराः संयोगः (1/1/7)- बीच में किसी स्वर के न होने पर, दो या अधिक मिले हुए हल् (व्यंजन) 'संयुक्त' कहे जाते हैं जैसे भव्य शब्द में व् और य् के बीच में कोई स्वर नहीं आया है इसलिए वे संयुक्त वर्ण कहे जाएंगे | इसी प्रकार कार्त्स्न्य, माहात्म्य आदि शब्दों में भी देखा जाता है।
16- संहिता- परः सन्निकर्षः संहिता (1/4/109)- वर्णों की अत्यंत समीपता संहिता कही जाती है।
17- प्रगृह्य- ईदूदेद्द्विवचनं प्रगृह्यम् (1/1/11)- ईकारान्त, ऊकारान्त, ऐकारान्त, द्विवचन (सुबन्त अथवा तिङन्त) पद प्रगृह्य कहे जाते हैं।
18- सार्वधातुक प्रत्यय- तिङ् शित् सार्वधातुकम् (3/4/113)- धातुओं के आगे जुड़ने वाले प्रत्ययों में तिङ् प्रत्यय एवं वे प्रत्यय जिनमें श् इत्संज्ञक हो जाता है (जैसे शप्, शतृ आदि) सार्वधातुक प्रत्यय कहलाते हैं।
19- आर्धधातुक प्रत्यय- आर्धधातुकं शेषः (3/4/114)- धातुअों से जुड़ने वाले शेष अर्थात् सार्वधातुक के अतिरिक्त प्रत्यय आर्धधातुक कहे जाते हैं |
20- सत्- तौ सत् (3/2/127)- शतृ और शानच् दोनों का नाम सत् है।
21-अनुनासिक- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः (1/1/8)- जिन वर्णों का उच्चारण मुख और नासिका दोनों से होता है उन्हें अनुनासिक कहा जाता है, जैसे अॅं, आॅं, एॅं, लॅं इत्यादि | यह अनुनासिक चिन्ह के द्वारा प्रकट किया जाता है | वर्गों के पंचमाक्षर ङ्, ञ्, ण्, न्, तथा म् भी अनुनासिक वर्ण हैं, क्योंकि इनमें भी नासिका की सहायता ली जाती है।
22- सवर्ण- तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् (1/1/9)- जब दो या उससे अधिक वर्णों के उच्चारण स्थान (मुख विवर में स्थित ताल्वादि) और आभ्यान्तर प्रयत्न समान या एक हों तो उन्हें परस्पर 'सवर्ण' कहते हैं।
अनुवृत्ति- सूत्रों के विस्तार को अधिक से अधिक संकुचित करने के लिए अनुवृत्ति पांचवीं प्रणाली है | पाणिनि ने कुछ ऐसे सूत्र बनाए हैं जिनका अलग तो कोई अर्थ नहीं होता, लेकिन परवर्ती सूत्र माला के प्रत्येक सूत्र से युक्त होने पर अर्थ निकलता है | ऐसे सूत्र 'अधिकारसूत्र' कहे जाते हैं | इनकी अनुवृत्ति का क्षेत्र तब तक बना रहता है जब तक कोई दूसरा अधिकारसूत्र नहीं आ जाता | जैसे तस्य विकारः (4/3/134), तस्यापत्यम् (4/1/92), अनभिहिते (2/3/1) प्रभृति सूत्र हैं।
इसके अतिरिक्त पाणिनि की अष्टाध्यायी के समझाने के लिए टीकाकारों ने ज्ञापक सूत्रों को अलग से ढूंढ निकाला है तथा सूत्रों में योगविभाग करके कुछ स्पष्ट न कही गई बातों को भी शामिल किया है | परंतु इन सब का ज्ञान केवल सूक्ष्म अध्ययन करने वाले के लिए अपेक्षित है, इसलिए यहां इनकी विवेचना नहीं की जा रही है।
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