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लघुसिद्धान्तकौमुदी भूमिका भाग-1


|| श्रीगणेशाय नमः ||


लघुसिद्धान्तकौमुदी

लघुसिद्धान्तकौमुदी भूमिका भाग-1
लघुसिद्धान्तकौमुदी

    विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में संस्कृत भाषा प्राचीनतम है | यद्यपि भाषा विचार विनिमय के मूलभूत साधन के रूप में परिभाषित है , फिर भी संस्कृत भाषा मात्र है, यहीं तक सीमित नहीं है, हम हर एक भाषा का संबंध उसके राष्ट्र से केवल सामाजिक सांस्कृतिक रूप से नहीं, अपितु शाब्दिक रूप से भी पाते हैं | जैसे जर्मनी की भाषा को जर्मन, चीन की भाषा को चीनिया आदि | परंतु संस्कृत भाषा का नामकरण संस्कृत किसी सामाजिक या सांस्कृतिक कारण को धारण करते हुए नहीं बल्कि स्वयं में परिष्कृतता एवं परिमार्जितता की वैज्ञानिक प्रधानता से है।


    आज जो प्रवृत्ति संसार में पनप रही है, उसका मूल कारण संस्कार का ही अभाव है अथवा यह कहा जा सकता है कि आज संसार में अच्छे संस्कारों का अभाव सा होता जा रहा है।

    शिक्षा संस्कारों से संबंधित है तो संस्कार शिक्षा के बिना कल्पनातीत हैं | शिक्षा का भाषा के बिना हस्तांतरित एवं विकसित होना असंभव है | शैक्षिक खजाने का अथाह भंडार चाहे अलौकिक हो या चाहे अलौकिक, वह यदि किसी भी भाषा में सुरक्षित हो | अगर हम उस भाषा को अपनाएं, उसने गोता लगाएं तो अवश्य ही हमारा जीवन बिना आर्दृीभूत के नहीं रह सकता | इसी तरह की भाषा है संस्कृत | इसमें निहित ज्ञान की अनंतता, भाषा का सौष्ठव एवं माधुर्य के सर्वविदित होने की बात पर वेद आदि शास्त्र ही है प्रमाण के रूप में।

    सारी दुनिया भारत भूमि को ऋषियों की तपस्थली के रूप में जानती है | ऋषियों का कोई भी तप स्वार्थ प्रेरित नहीं था | इसका संबंध सामाजिक संरचना एवं पद्धति के साथ था | सर्वांगीण रूप से प्राणीय कल्याण ही लक्ष्य था ऋषियों का | इसी लक्ष्य से प्रेरित हो चिंतन एवं तपस्या का निष्कर्ष समेटा संस्कृत भाषा में उन्होंने | फलतः आज भी हमारे सारे सामने मौजूद है वेद, वेदांग, उपनिषद् आदि वेद के षडङ्गों का चक्षुरूप अंग है व्याकरण | पाश्चात्य परिभाषा की तरह भाषा विज्ञान का एक अंग न होकर पूर्वीय चिंतन धारा में भाषा का अंगी है व्याकरण | अतः कहा जाता है कि-

छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते |

ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ||

शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम् |

तस्मात् साङ्गनधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ||

    अर्थात् व्याकरण वेद रूपी शरीर का मुख है | शरीर में मुख ही प्रधान है | यदि मुख नहीं है तो शरीर का पोषण कैसे हो सकेगा ? अत एव महाभाष्यकार ने उद्धृत किया है-

"ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च, प्रधानं च षट्स्वङ्गेषु व्याकरणम्, प्रधाने च कृतो यत्नः फलवान् भवति |"

    अर्थात् किसी कारण से नहीं अपितु कर्तव्य बुद्धि से व्याकरण आदि अंगों सहित वेद के अध्ययन को अनिवार्य बताते हुए षडङ्गो में व्याकरण की प्रधानता स्पष्ट है | व्याकरण की अनिवार्यता के संदर्भ में एक और सूक्ति प्रचलित है-

यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् |

स्वजनः श्वजनो माभूत् सकलं शकलं सकृच्छकृत् ||

    अर्थात् और ज्यादा नहीं पढ़ सकते तो कम से कम व्याकरण तो पढ़ो ही | अन्यथा कहीं स्वजन (अपने जन) की जगह कहीं श्वजनः (कुत्ता जन) न बन जाय | इसी तरह सकलम् (संपूर्ण) की जगह शकलम् (टुकड़ा) न हो जाए और सकृत् (एक बार) के स्थान पर शकृत् (विष्टा) न हो जाय | तात्पर्य है कि व्याकरण के बिना भाषाई शुद्धता नहीं आ सकती | उसमें भी संस्कृत के विषय में तो व्याकरण अत्यंत ही अनिवार्य रूप से रहा है | तभी तो पूर्वीय व्याकरण के अनेक कर्ताओं में इंद्र, चंद्र, काशकृस्त्न, पाणिनि आदि नाम विशेष रूप से ऐतिहासिक हुआ |



व्याकरण के आचार्य

    ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बरहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्य ऋषयो ब्रह्मणेभ्यः | यद्यपि महाभारत में उद्धृत इन कथनों से यह पता चलता है कि शब्द शास्त्र के आदि प्रवक्ता ब्रह्मा हैं तथापि आज उनका एतद्विषयक शास्त्र उपलब्ध नहीं है | इतिहासविद् प्रायः नौ व्याकरणों का नाम लेते हैं जैसा कि-

ऐन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम् |

सारस्वतं चापिशलं शाकलं पाणिनीयकम् |

    उनमें भी समग्र वैज्ञानिकता को अपनाते हुए रचित होने के कारण से व्याकरण श्रृंखला में पूर्वीय एवं पाश्चात्य चिंतकों एवं भाषा वैज्ञानिकों ने मणि के रूप में ग्रहण किया पाणिनीय व्याकरण को | इसको अधिक स्पष्ट एवं भाषा सापेक्ष बनाने का अविस्मरणीय कार्य किया क्रमशः कात्यायन एवं पतंजलि ने | विभिन्न विद्वानों एवं मनीषियों के चिंतन तथा तपस्या द्वारा इस भारत भूमि में पुष्पित और पल्लवित होने के क्रम में आगे जाकर पाणिनीय व्याकरण क्रमशः प्राचीन एवं नव्य के रूप से दो धाराओं में विभक्त हुआ | प्राचीन धारा में सूत्रानुसारी व्याख्यात्मक ग्रंथ जयादित्य वामनकृत काशिका आदि लिए जाते हैं तो नव्य धारा में प्रक्रिया ग्रंथ भट्टोजिदीक्षितकृत वैयाकरणसिद्धांतकौमुदी एवं इसी के व्याख्यात्मक ग्रंथ प्रौढ़मनोरमा एवम नागेशकृत लघुशब्देन्दुशेखर आदि आते हैं।रण से व्याकरण श्रृंखला में पूर्वीय एवं पाश्चात्य चिंतकों एवं भाषा वैज्ञानिकों ने मणि के रूप में ग्रहण किया पाणिनीय व्याकरण को | इसको अधिक स्पष्ट एवं भाषा सापेक्ष बनाने का अविस्मरणीय कार्य किया क्रमशः कात्यायन एवं पतंजलि ने | विभिन्न विद्वानों एवं मनीषियों के चिंतन तथा तपस्या द्वारा इस भारत भूमि में पुष्पित और पल्लवित होने के क्रम में आगे जाकर पाणिनीय व्याकरण क्रमशः प्राचीन एवं नव्य के रूप से दो धाराओं में विभक्त हुआ | प्राचीन धारा में सूत्रानुसारी व्याख्यात्मक ग्रंथ जयादित्य वामनकृत काशिका आदि लिए जाते हैं तो नव्य धारा में प्रक्रिया ग्रंथ भट्टोजिदीक्षितकृत वैयाकरणसिद्धांतकौमुदी एवं इसी के व्याख्यात्मक ग्रंथ प्रौढ़मनोरमा एवम नागेशकृत लघुशब्देन्दुशेखर आदि आते हैं।

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