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लघुसिद्धान्तकौमुदी |
लोपसंज्ञाविधायकमं संज्ञासूत्रम्
2- अदर्शनं लोपः 1/1/60|
प्रसक्तस्यादर्शनं लोपसंज्ञं स्यात् ||
(पहले) विद्यमान का (बाद में) अदर्शन होना, न सुना जाना लोपसंज्ञक (लोपसंज्ञा वाला) होता है।
लोक में लोप का एक अर्थ नाश भी होता है किंतु पाणिनीय व्याकरण शास्त्र में लोप का अर्थ अदर्शन माना गया है | अदर्शन अर्थात् जो न दीखे, जो न सुनाई पड़े | वस्तुतः शब्द कभी दीखता नहीं है, अतः अदर्शन का अर्थ अश्रवण करना चाहिए | इसीलिए जो पहले सुनाई देता था और अब वह न सुनाई दे तो उसे लोप कहते हैं | तात्पर्य यह है कि जो पहले से था किंतु बाद में किसी सूत्र आदि के द्वारा लुप्त हो जाए तो वह न तो कहीं दिखाई पड़ेगा और न ही वह सुनाई पड़ेगा | जो पहले से था उसी का ही लोप होता है, जो पहले से नहीं था, उसका क्या लोप करें! इस प्रकार से यह सिद्ध हुआ कि पाणिनीय व्याकरण में किसी भी अक्षर या शब्द का विनाश नहीं होता | जहां जहां भी लोप का विधान किया गया वहां वहां अदर्शन मात्र समझना चाहिए | यह सूत्र केवल लोप क्या है ? इतना ही बताता है किंतु लोप नहीं करता | लोपविधायक विधिसूत्र आगे कहा जा रहा है।
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