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लघुसिद्धान्तकौमुदी सवर्ण संज्ञा विधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी
लघुसिद्धान्तकौमुदी

सवर्णसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्

10- तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम्1|1|9||

ताल्वादिस्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नश्चेत्येतद्द्वयं यस्य येन तुल्यं तन्मिथः सवर्णसंज्ञं स्यात् |

( वार्तिकम् ) ऋलृवर्णयोर्मिथः सावर्ण्यं वाच्यम् |


( अथ स्थानानि )

अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः |

इचुयशानां तालु |

ऋटुरषाणां मूर्धा |

लृतुलसानां दन्ताः |

उपूपध्मानीयानामोष्ठौ |

ञमङणनानां नासिका |

एदैतोः कण्ठतालु |

ओदौतोः कण्ठोष्ठम् |

वकारस्य दन्तोष्ठम् |

जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् |

नासिकाऽनुस्वारस्य |



( अथ प्रयत्नाः )

यत्नो द्विधा- आभ्यन्तरो बाह्यश्च |

आद्यः पञ्चधा- स्पृष्टेषत्स्पृष्टेषद्विवृतविवृतसंवृतभेदात् |

तत्र स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम् | ईषत्स्पृष्टमन्तः स्थानाम् |

ईषद्विवृतमूष्मणाम् | विवृतं स्वराणाम् |

ह्रस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम् | प्रक्रियादशायां तु विवृतमेव |

बाह्यप्रयत्नस्त्वेकादशधा- विवारः संवारः श्वासो नादो घोषोऽघोषोऽल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति |

खरो विवाराः शवासा अघोषाश्च |

हशः संवारा नादा घोषाश्च |

वर्गाणां प्रथमतृतीयपञ्चमा यणश्चाल्पप्राणाः |

वर्गाणां द्वितीयचतुर्थौ शलश्च महाप्राणाः |

कादयो मावसानाः स्पर्शाः | यणोऽन्तःस्थाः |

शल ऊष्माणः | अचः स्वराः |

इति कखाभ्यां प्रागर्धविसर्गसदृशो जिह्वामूलीयः|

इति पफाभ्यां प्रागर्धविसर्गसदृश उपध्मानीयः |

अं अः इत्यचः परावनुस्वारविसर्गौ |

    तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् | तालु आदि स्थान और आभ्यान्तर प्रयत्न ये दो जिस वर्ण का जिस वर्ण के साथ तुल्य हों, वे वर्ण आपस में सवर्णसंज्ञक होते हैं।

    यह सूत्र दो या दो से अधिक वर्णों की आपस में सवर्ण संज्ञा करता है | सवर्ण का अर्थ है- समान वर्ण, सामान जाति, समान स्थान वाले वर्ण, समान प्रयत्न वाले वर्ण, वर्णों की आपस में स्थान और प्रयत्न से तुल्यता | सवर्ण संज्ञा वाले वर्णों को सवर्णी कहते हैं और सवर्णसंज्ञा को सावर्ण्य भी कहते हैं | सवर्ण संज्ञा के लिए स्थान और प्रयत्न की समानता चाहिए | सवर्ण संज्ञा में आभ्यान्तर-प्रयत्न ही लिया जाता है | वाह्य-प्रयत्न का उपयोग किसी वर्ण के स्थान पर कोई आदेश करने में किया जाएगा | जिन दो वर्णों का आपस में स्थान भी एक हो और प्रयत्न भी एक हो तो वे वर्ण आपस में सवर्णी हैं अर्थात् सवर्ण संज्ञा वाले हैं | सवर्ण संज्ञा वाले वर्णों का एक से दूसरे, तीसरे सवर्णसंज्ञा वाले वर्ण का ग्रहण करते हैं | जैसे- और में अकार का स्थान भी कण्ठ है और आकार का स्थान भी कण्ठ है तथा दोनों का विवृत प्रयत्न है | और का स्थान और प्रयत्न एक होने के कारण इनकी आपस में सवर्ण संज्ञा हो जाती है | ये आपस में सवर्णी कहलाए | अब जहाॅं का ग्रहण होगा वहाॅं का भी ग्रहण हो जाएगा | इसी प्रकार क् और घ् में दोनों का कण्ठ स्थान है और दोनों का स्पृष्ट-प्रयत्न है, इसलिए क् और घ् की आपस में सवर्णसंज्ञा हुई | केवल क् और घ् की ही नहीं अपितु क्, ख्, ग्, घ्, ङ् ये सभी समान स्थान और समान प्रयत्न वाले हैं, इसलिए इनकी आपस में सवर्ण संज्ञा हो जाती है | इस संज्ञा के बाद अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः के बल से अण् और कु, चु, टु, तु, पु के ग्रहण से दूसरे का भी ग्रहण हो जाएगा किंतु वहाॅं पर ही ग्रहण होगा जहाॅं पर, जिस सूत्र और वार्तिक में कु, चु, टु, तु, पु ऐसा उच्चारण किया गया हो, अन्यत्र क् से ख् ग् आदि का ग्रहण नहीं होगा।

    क् और च् की आपस में सवर्ण संज्ञा नहीं होगी क्योंकि क् और च् का एक ही स्पृष्ट प्रयत्न होते हुए भी दोनों का स्थान भिन्न है | ह् और न् कि सवर्ण संज्ञा नहीं होगी क्योंकि इन दोनों का आपस में स्थान भी भिन्न है और प्रयत्न भी भिन्न है | इस प्रकार से सवर्ण संज्ञा को समझना चाहिए और अच्छी तरह से याद भी होना चाहिए | याद रहे कि सवर्ण संज्ञा को जानने के लिए वर्णों का स्थान और प्रयत्न का जानना आवश्यक है | स्थान और प्रयत्न आगे बताए जाएंगे।

    ऋलृवर्णयोर्मिथः सावर्ण्यं वाच्यम् | यह वार्तिक है | और लृ वर्ण की आपस में सवर्ण संज्ञा होती है, ऐसा कहना चाहिए।

     और लृ इन दो वर्णों में स्थान का भेद है, अतः सूत्र से सवर्ण संज्ञा की प्राप्ति नहीं थी जिसके लिए कात्यायन जी ने वार्तिक बनाकर सवर्ण संज्ञा कर दी है | इससे तवल्कारः आदि की सिद्धि होगी, जिसका विषय आगे स्पष्ट होगा | इन दो वर्णों की आपस में सवर्ण संज्ञा होने से 18 प्रकार का और 12 प्रकार का लृ ये मिलकर 30 प्रकार के हो जाते हैं | एवं एक के ग्रहण से दूसरे का ग्रहण हो जाता है | सवर्णसंज्ञा का मुख्य प्रयोजन अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः के द्वारा एक से दूसरे वर्ण का ग्रहण करना।

    अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः | 18 प्रकार के सभी अकार, कवर्ग, हकार और विसर्ग का कण्ठ स्थान है | जिस वर्ण की मुख के जिस भाग से उत्पत्ति होती है, वह स्थान वर्णों का स्थान है | अकार, कवर्ग अर्थात् क्, ख्, ग्, घ्, ङ् और विसर्जनीय विसर्ग इनका उच्चारण सीधे कण्ठ से ही होता है, इसलिए इन वर्णो का कण्ठ स्थान है।

    इचुयशानां तालु 18 प्रकार के सभी इकार, चवर्ग, यकार और शकार का तालु स्थान है | अब इकार , चवर्ग अर्थात् च्, छ्, ज्, झ्, ञ्, यकार और शकार इनके उच्चारण में तालु का विशेष प्रयोग होता है | अतः इनका तालु स्थान है | ऊपर वाले दांतो के पीछे ऊपरी जो मांसल भाग है, जो कुछ खुरदरा सा लगता है, उसे तालु कहते हैं।

    ऋटुरषाणां मूर्धा | अट्ठारह प्रकार के सभी ऋकार, टकार, रकार और षकार का मूर्धा स्थान है | ऋकार, टकार अर्थात् ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्, रकार और षकार का उच्चारण मूर्धा- जीभ को पीछे ले जाकर शिर के मध्य भाग के ठीक नीचे मुखभाग में जो कोमल भाग है, उससे होता है, अतः इनका मूर्धा स्थान है | संस्कृत में शिर को मूर्धा भी कहते हैं।

    लृतुलसानां दन्ताः | 12 प्रकार के सभी लृकार, तवर्ग, लकार और सकार का दन्त स्थान है | लृकार, तवर्ग अर्थात् त्, थ्, द्, ध्, न्, लकार और सकार का उच्चारण जीभ के ऊपरी दातों से टकराने से होता है, अतः इनका दन्त स्थान है।

    उपूपध्मानीयानामोष्ठौ | 18 प्रकार के उकार, पवर्ग, उपध्मानीय-विसर्ग का ओष्ठ स्थान है | उकार, पवर्ग अर्थात प्, फ्, ब्, भ्, म् और उपध्मानीय-विसर्ग का उच्चारण दोनों होठों के टकराने से होता है, अतः इनका ओष्ठ स्थान है।

    ञमङणनानां नासिका च | ञ्, म्, ङ्, ण्, न् का नासिकास्थान भी होता है | तात्पर्य यह है कि इसके पहले ञ् का तालु स्थान, म् का ओष्ठ स्थान, ङ् का कण्ठ स्थान, ण् का मूर्धा स्थान और न् का दन्त स्थान है, यह बताया जा चुका है | अब इनका नासिका स्थान भी होता है, ऐसा कहा जा रहा है | जैसे ञ् का तालुस्थान और नासिकास्थान है | इनका उच्चारण नाक की सहायता से होता है इसलिए नासिकास्थान भी बताया गया।

    एदैतोः कण्ठतालु | और का उच्चारण कण्ठ और तालु से होता है, अतः इनका कण्ठतालु स्थान है।

    ओदौतोः कण्ठोष्ठम् | , का उच्चारण कण्ठ और ओष्ठ से होता है | अतः उनका कण्ठ-ओष्ठस्थान है।

    वकारस्य दन्तोष्ठम् | वकार का दन्त-ओष्ठ स्थान है | वकार का उच्चारण दाॅंत और होठों से होता है | अतः वकार का दन्त+ओष्ठ=दन्तोष्ठस्थान है।

    जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् | जिह्वामूलीयविसर्ग का जिह्वामूलस्थान है, क्योंकि इसका उच्चारण सीधे जीभ के मूल भाग से होता है।

    नासिकाऽनुस्वारस्य | अनुस्वार का उच्चारण नासिका के सहयोग से होता है, अतः अनुस्वार का नासिका स्थान है।

    स्थान और प्रयत्न को कौमुदी में या अष्टाध्यायी में सूत्रों के द्वारा नहीं बताया गया किन्तु पाणिनीयशिक्षा आदि ग्रन्थों से लेकर यहाॅं प्रयोग किया गया है।

    जैसे वर्णसमाम्नाय अर्थात् चतुर्दश-सूत्रों में पढ़ा गया किंतु नहीं पढ़ा गया, का उच्चारण है किन्तु का उच्चारण नहीं है फिर भी सवर्णसंज्ञा के बाद अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः के बल से से का ग्रहण और से का ग्रहण होना चाहिए तो ऐऔच् सूत्र बनाने की क्या जरूरत थी ? इस विषय पर बताते हैं कि ये सूत्र बनाए नहीं गए हैं अपितु शंकर जी के डमरू से निकले हैं, यह सूत्र ज्यादा, निकल कर के इस बात को प्रमाणित करता है कि और की तथा और की आपस में सवर्णसंज्ञा नहीं होती है।

    सवर्णसंज्ञा के लिए स्थान और प्रयत्न का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है | इस तरह से याद हो कि पूछते ही तत्काल बता सकें | जैसे किसी ने पूछा कि भ का क्या स्थान है ? तो एक क्षण भी लगाए बिना तत्काल उत्तर दे सकें कि का ओष्ठस्थान होता है | प्रमाण भी बता सकें कि उपूपध्मानीयानामोष्ठौ | वर्णों के स्थान के संबंध में बारंबार अभ्यास करें | अपने साथियों के साथ बैठकर के एक दूसरे से पूछें और उत्तर दें | इसी तरह का अभ्यास प्रयत्न के संबंध में भी करें।

    स्थान जानने के बाद प्रयत्न की जिज्ञासा होती है, क्योंकि सवर्ण-संज्ञा में प्रयत्न की भी आवश्यकता होती है | अतः आगे प्रयत्न बताए जा रहे हैं।

    यत्नो द्विधा- आभ्यन्तरो बाह्यश्च | प्रयत्न दो प्रकार के हैं- एक आभ्यांतर-प्रयत्न और दूसरा वाह्य-प्रयत्न।

    आद्यः पञ्चधा- स्पृष्टेषत्स्पृष्टेषद्विवृतविवृतसंवृतभेदात् | पहला अभ्यांतर प्रयत्न स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, ईषद्विवृत, विवृत और संवृत के भेद से पांच प्रकार का है।

    तत्र स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम् | उनमें स्पर्श संज्ञक वर्णों का स्पृष्ट-प्रयत्न है | ( से तक के वर्ण स्पृष्टसंज्ञक हैं।)

    ईषत्स्पृष्टमन्तः स्थानाम् | अन्तःस्थसंज्ञक वर्णों का ईषत्स्पृष्ट-प्रयत्न है | (यण् प्रत्याहारस्थ य्, व्, र्, ल् ये वर्ण अन्तःस्थसंज्ञक होते हैं।)

    ईषद्विवृतमूष्मणाम् | ऊष्मसंज्ञक वर्णों का ईषद्विवृत्त-प्रयत्न है | (शल् अर्थात् श्, ष्, स्, ह् ये ऊष्मसंज्ञक है |)

    विवृतं स्वराणाम् | स्वरसंज्ञक वर्णों का विवृत-प्रयत्न है | (अच् ही स्वरसंज्ञक हैं।)

    ह्रस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम् | प्रक्रियादशायां तु विवृतमेव | ह्रस्व अवर्ण का प्रयोग अवस्था अर्थात् उच्चारण अवस्था में संवृत-प्रयत्न और साधनिका अवस्था अर्थात् प्रयोगसिद्धि की अवस्था में विवृत-प्रयत्न ही रहता है।

    बाह्यप्रयत्नस्त्वेकादशधा- विवारः संवारः श्वासो नादो घोषोऽघोषोऽल्पप्राणो महाप्राण उदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्चेति | विवार, संवार, श्वास, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद वाह्य प्रयत्न 11 प्रकार का होता है।

    अच् प्रत्याहारस्थ वर्णों का उदात्त, अनुदात्त और स्वरित प्रयत्न होते हैं, क्योंकि पहले ही इनकी ये संज्ञाएॅं की जा चुकी है।

    खरो विवाराः शवासा अघोषाश्च | खर् प्रत्याहारस्थ वर्णों का विवार, श्वास और अघोष प्रयत्न है | खर् प्रत्याहार अर्थात् ख्, फ्, छ्, ठ्, थ्, च्, ट्, त्, क्, प्, श्, ष्, स् इन सब का विवार, श्वास, अघोष ये तीनों प्रयत्न है।

    हशः संवारा नादा घोषाश्च | हश् प्रत्याहार के वर्णों का संवार, नाद और घोष प्रयत्न है | हश् प्रत्याहार में ह्, य्, व्, र्, ल्, ञ्, म्, ङ्, ण्, न्, झ्, भ्, घ्, ढ्, ध्, ज्, ब्, ग्, ड्, द् ये वर्ण आते हैं, इन सबों का संवार, नाद, घोष ये तीनों प्रयत्न हैं।

    वर्गाणां प्रथमतृतीयपञ्चमा यणश्चाल्पप्राणाः | वर्गों के प्रथम, तृतीय, पंचम अक्षर और यण् का अल्पप्राण प्रयत्न होता है | वर्ग के प्रथम अक्षर हैं- क्, च्, ट्, त्, प्, तृतीय हैं- ग्, ज्, ड्, द्, ब्, पंचम अक्षर हैं- ङ्, ञ्, ण्, न्, म् और यण् हैं- य्, व्, र् और ल् | इनका अल्पप्राण प्रयत्न है।

    वर्गाणां द्वितीयचतुर्थौ शलश्च महाप्राणाः | वर्गों के द्वितीय, चतुर्थ अक्षर और शल् का महाप्राण प्रयत्न होता है | वर्ग के द्वितीय अक्षर हैं- ख्, फ्, छ्, ठ्, थ् और चतुर्थ हैं- घ्, झ्, ढ्, ध्, भ् तथा शल् हैं- श्, ष्, स्, ह् | इनका महाप्राण प्रयत्न है।

    अल्पप्राण और महाप्राण प्रयत्न, ये दोनों पृथक् प्रयत्न होते हुए भी कभी भी वर्ण का केवल अल्पप्राण अथवा केवल महाप्राण प्रयत्न नहीं होता अपितु संवार, नाद, घोष, अल्पप्राण या संवार, नाद, घोष, महाप्राण तथा विवार, श्वास, अघोष, अल्पप्राण या विवार, श्वास, अघोष, महाप्राण प्रयत्न, इस प्रकार से प्रत्येक वर्ण के चार-चार प्रयत्न होते हैं।

    हम पहले ही बता चुके हैं कि विसर्ग के तीन भेद हैं- विसर्जनीय अर्थात सामान्य विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय | विसर्ग को विसर्जनीय के रूप में व्यवहार होता है।

    क ≍ख इति कखाभ्यां प्रागर्धविसर्गसदृशो जिह्वामूलीयः| ऐसे में और से पहले आने वाला आधा विसर्ग जैसा जो होता है, वह जिह्वामूलीय विसर्ग माना जाता है।

    फ इति पफाभ्यां प्रागर्धविसर्गसदृश उपध्मानीयः | प ≍फ ऐसे में और से पहले आने वाला आधा विसर्ग जैसा जो होता है, वह उपध्मानीय विसर्ग माना जाता है।

    अं अः इत्यचः परावनुस्वारविसर्गौ | अं में जैसे अकार के ऊपर एक बिंदु अनुस्वार है, वैसे ही सभी अच् वर्णों के ऊपर का एक बिंदु अनुस्वार कहलाता है और अः में जैसे अकार के बाद का दो बिंदु विसर्ग है, वैसे ही सभी अच् स्वर वर्णों के बाद का दो बिंदु विसर्ग कहलाता है।

    मकार और नकार के स्थान पर आदेश होकर अनुस्वार बनता है और रेफ के स्थान पर आदेश होकर विसर्ग बनता है, इस विषय को हम आगे स्पष्ट करेगें।

हम छात्रों को बारंबार यह समझा रहे हैं जब तक संज्ञा प्रकरण पूर्णतया कंठस्थ नहीं होगा और जब तक एक-एक अक्षर को नहीं समझेंगे तथा जब तक प्रत्याहार, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, अनुनासिक, अननुनासिक, स्थान, प्रयत्न, सवर्णसंज्ञा, सवर्णग्रहण, संहितासंज्ञा, पदसंज्ञा, इत्संज्ञा आदि नहीं समझेंगे तब तक आगे पढ़ना व्यर्थ है, क्योंकि इनके बिना आगे कुछ समझ में नहीं आएगा।

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