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लघुसिद्धान्तकौमुदी भूमिका भाग-2

लघुसिद्धान्तकौमुदी भूमिका भाग-2
laghusiddhantkaumudi

पाणिनि एवं अष्टाध्यायी

    खेद पूर्वक कहना पड़ता है कि उन मनीषियों के ऐतिहासिक तथ्य आज यथार्थ रूप में उपलब्ध नहीं है किंतु अगत्या केवल आनुमानिक चिंतन से उनके देश कालादि का निर्णय किया जाता है क्योंकि प्राच्य चिंतक एवं मनीषियों ने इस भारत भूमि कठोर तपस्या एवं चिंतन निःस्वार्थ सामाजिक सुसंस्कार एवं सुशिक्षा हेतु किया था,

न कि स्वप्रतिष्ठा एवं सम्मानार्थ | उन तपस्वियों ने एक पक्ष में न केवल भारत भूमि के पुत्रों को अपितु सारी दुनिया को स्वचिन्तन एवं तप का निष्कर्ष नवनीतरूप लौकिक एवं पारलौकिक अथाह ज्ञानराशि को देकर धन्यातिधन्य बनाया तो दूसरे पक्ष में ठोस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से वंचित होने के लिए बाध्य करा दिया केवल अपने सामान्य परिचयाभाव का स्थान छोड़कर स्वग्रंथों में | यही समस्या हमें पाणिनि जी के संबंध में झेलना पड़ता है | उनके जीवनवृत्त के विषय में निश्चित इतिहास का अभाव होते हुए भी पतंजलि के महाभाष्य (1-2-20) से पता लगता है कि उनकी माता का नाम दाक्षि था | पाणनीय जी के समय के संबंध में भी विद्वानों का मतभेद है | युधिष्ठिर मीमांसक उनका काल लगभग 2100 वि० पू० मानते हैं तो डॉक्टर वासुदेवशरण अग्रवाल ने उनको नंदराजा महानंद के समकालीन बताते हुए इसवी पूर्व 500 निश्चित किया है |कोई पाणिनि को वाहीकदेशीय कहते हैं तो भी शलातुर नामक ग्राम उनका जन्म स्थान होने का तथ्य गणतंत्र महोदधि के आधार पर सिद्ध होता है।

    पाणिनीय व्याकरण केवल सूत्रों से ही नहीं अपितु गण, पाठ, धात पाठ, लिंगानुशासन और उणादी को भी लेकर पंचांग होकर ही पूर्णता को प्राप्त करता है | पाणिनि जी स्वव्याकरण निर्माण में शब्द प्रयोग के संबंध में अत्यंत लाघव के पक्षधर हैं | अतः पाणिनीय व्याकरण में प्रायः कोई भी ऐसा शब्द नहीं है जो दो बार या व्यर्थ प्रयुक्त हो | इसके कारणों को पतंजलि जी स्पष्ट करते हैं।

    न केवल शब्द ज्ञान के लिए अपितु प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक तथ्य एवं तत्वों का ज्ञान कराने के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है पाणिनीय शब्दानुशासन का | इस व्याकरण अध्ययन से तात्कालिक इतिहास एवं भूगोल के हर एक जिज्ञासुओं को अप्राप्य जानकारियां भी हस्तगत होती है | अतः निसंकोच कह सकते हैं कि पाणिनीय व्याकरण का स्थान उच्चतम एवं महनीय है।

    पाणिनि जी के द्वारा विरचित सूत्रों की संख्या लगभग 4000 है | वृद्धिरादैच् प्रथम और अ अ अंतिम सूत्र है | ज्यादा से ज्यादा विषय को संक्षेप में कहने के लिए ही सूत्र होते हैं | जैसा कि-

अल्पाक्षरमसन्दिग्धं सारवद्विश्वतोमुखम् |

अस्तोभमनवद्यं च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ||

    अल्प अक्षरों से अधिक अर्थ बताने की क्षमता, संदेह रहित विषय की प्रस्तुति, सारतम प्रक्रिया सारणी, आवश्यक सभी जगहों पर प्रवृत्त होने की क्षमता, दोषों का अभाव होना और आनिन्दनीय रहना ये सूत्रों के 6 लक्षण है | ऐसे सूत्रों को पाणिनि जी ने छः कोटियों में रखा है-

संज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियम एव च |

अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधं सूत्रलक्षणम् ||

    संज्ञा सूत्र, परिभाषा सूत्र, विधि सूत्र, नियम सूत्र, अतिदेश सूत्र और अधिकार सूत्र | सबसे अधिक विधि सूत्र, उनसे कम संज्ञा सूत्र, और इसी प्रकार अधिकार सूत्र, परिभाषा सूत्र, नियम सूत्र और अतिदेश सूत्र उत्तरोत्तर न्यून हैं।


कात्यायन एवं वार्तिक


    पाणिनीय व्याकरण को और भी परिष्कृत एवं सुबोध बनाने वाले वालों पाणिनि के बाद में महत्वपूर्ण नाम आता है कात्यायन का | वास्तव में यह शब्द गोत्र प्रत्ययान्त है | श्री युधिष्ठिर मीमांसा के मत में कात्यायन का तात्पर्य शुक्ल यजुर्वेदीय, आङ्गिरस शाखा के प्रवर्तक का कात्यायान पुत्र एवं याज्ञवल्क्य के पौत्र वररुचि ही कात्यायन हैं, जो विक्रमी पूर्व 2700 शती के थे | परन्तु अन्य विद्वान् इनको 400-300 इसवी पूर्व के बीच के मानते हैं | इनके दाक्षिणात्य होने की बात महाभाष्य में स्थित 'प्रियतद्धिता दाक्षिणात्याः' (1-1-1) वाक्य से सिद्ध होती है | इन्होंने वार्तिक पाठ नामक पाणिनीय व्याकरण के अत्यंत महत्वपूर्ण अंग की रचना की | यद्यपि स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में यह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है फिर भी पतंजलि के महाभाष्य में वार्तिक उल्लिखित हैं परंतु संख्या की जानकारी तो वहां से भी नहीं हो सकती | किन्हीं विद्वानों के मत में कात्यायन ने करीब 1500 सूत्र के ऊपर वार्तिक  लिखा है |

उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते |

तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुः वार्तिकज्ञाः विचक्षणाः ||

    सूत्रों में उक्त, अनुक्त, दुरुक्त के कारण जहां पर विषय का पूर्ण स्पष्टीकरण नहीं होता या अन्यार्थ होता है, ऐसी स्थित के समाधान के लिए जो पूरक वाक्य बनाए गए उन्हें विचक्षणगण वार्तिक कहते हैं | जैसे कि ऋलृवर्णयोर्मिथः सावर्ण्यं वाच्यम् आदि |


पतंजलि एवं महाभाष्य


    कात्यायन के अनंतर पाणिनीय व्याकरण में यथार्थता को सरलतम भाषा में स्फोरण एवं स्पष्ट करके उन्नत तथा सार्थक बनाने वालों में अत्यंत महत्वपूर्ण नाम जुड़ जाता है पतंजलि का | पाणिनीय व्याकरण के संदर्भ में उनकी महत्वपूर्ण रचना है व्याकरण-महाभाष्य | भाष्य नाम उन्हें दिया जाता है जो सूत्रों के अर्थों का वर्णन करें और अपने द्वारा उनकी व्याख्या करें जैसे-

सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र पदं सूत्रानुसारिभिः |

स्वपदानि च वर्ण्यन्ते भाष्यं भाष्यविदो विदुः ||

    परंतु अपने भिन्न वैशिष्ट्य को वहन करने के कारण से इसे महाभाष्य कहा जाता है | यह पाणनीय अष्टक का सूत्रानुसारी व्याख्यात्मक एवं अत्यंत उन्नत ग्रंथ है।

    महाभाष्य में ही स्थित अरुणद्, यवनः, साकेतम्, अरुणे, यवने, माध्यमिकाम् (3-2-111) इह पुष्यमित्रं याजयामः (3-2-123) इन कथनों को देखकर कुछ विद्वानों ने उनका काल 200 ईसवी पूर्व को निश्चित किया परंतु युधिष्ठिर मीमांसक के मत में विक्रमी पूर्व 1200 मानना ही उचित प्रतीत होता है | पतंजलि के जन्म स्थान के संबंध कमें भी एकमत नहीं है विद्वानगण | महाभाष्य में प्राप्त अभिजानासि देवदत्त कशमीरान् गमिष्यामः, त्र सूक्तन् पास्यामः (3-2-114) को प्रमाण मानते हुए कश्मीर ही उनकी जन्मभूमि है ,ऐसा बताते हैं विद्वज्जन, परंतु अन्यो के मत में गोनर्द के थे पतंजलि, किंतु महाभाष्य से पाटलिपुत्र के होने की बात प्रतीत होती है।

    पतंजलि न केवल शब्दशास्त्र के विद्वान थे अपितु योगदर्शन एवं चिकित्साशास्त्र के भी रचयिता थे | यह प्रसिद्ध है कि महाभाष्यकार पतंजलि ही योगदर्शनसूत्र एवं चरकसंहिता के रचयिता है | कहा भी गया है-

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य वैद्यकेन |

योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि ||

    अर्थात् योगसूत्रों से चित्त के मल का, व्याकरण के सूत्रों से वाणी की अशुद्धि का और चरकसंहिता से शरीर के रोगों का निराकरण पतंजलि ने किया है।

    पतंजलि के महाभाष्य के अनेक व्याख्याता हुए जिनमें भर्तृहरि, कैयट आदि प्रमुख हैं।

जयादित्य - वामन और काशिकावृत्ति

    पाणिनीय व्याकरण के राजपथ में अगला अविस्मरणीय नाम आता है जयादित्य एवं वामन का | इन्होंने पाणिनीय व्याकरण के ऊपर सूत्रक्रमानुसारी अत्यंत प्रथनीय काशिका नामक ग्रंथ की रचना की | आज प्राचीन व्याकरण धारा में इसे मूल ग्रंथ के रूप में ग्रहण किया जाता है | श्री अनंत शास्त्री फड़के के अनुसार जयादित्य का समय 361 ई० है तो वामन 670 ईसवी है | इन दोनों के प्रयास से ही काशिका ने पूर्णता पाई | कहा जाता है कि काशिका के पूर्व के 5 अध्याय जयादित्य द्वारा एवं अंतिम 3 अध्याय वामन द्वारा लिखे गए हैं | उदाहरण एवं प्रत्युदाहरण को दिखाने में इस ग्रंथ के लेखकों नें प्रायः प्राचीन वृत्तियों की शैली अपनायी है | इसी कारण से ये लेखक काशिकावृत्तिकार के नाम से भी जाने जाते हैं |

भट्टोजिदीक्षित एवं वैयाकरणसिद्धांतकौमुदी

    व्याकरण गंगा की एक ओर काशिका आदि की धारा बहती रही तो दूसरे पक्ष में प्रचलित धारा में कुछ कठिनता की अनुभूति होने के कारण रामचंद्राचार्यादि आचार्यों ने प्रक्रिया शैली का प्रारंभ किया प्रक्रिया कौमुदी आदि की रचना करके | इस धारा को वैज्ञानिक एवं सुस्पष्ट बनाने का महत्तम् कार्य किया भट्टोजिदीक्षित ने | इन्होंने पाणिनि जी के सभी सूत्रों एवं कात्यायन जी के वार्तिकों को लेकर वैयाकरण सिद्धांत कौमुदी की रचना की | ये 16वीं शताब्दी उत्तरार्ध एवं 17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के माने जाते हैं | महाराष्ट्रीय ब्राम्हण दीक्षित के पिताजी का नाम लक्ष्मीधर एवं गुरु जी का नाम शेषकृष्ण होने की बात विभिन्न ग्रंथों में विद्वज्जनों के कथनों से सिद्ध होती है | इन्होंने शब्दकौस्तुभ नामक वृहत्तम ग्रंथ एवं वैयाकरण सिद्धांत कौमुदी के टीकात्मक ग्रंथ प्रौढ़मनोरमा आदि की भी रचना की है।

    कौमुदी के संबंध में कहा गया है कि यदि कौमुदी ठीक से आती है तो भी भाष्य में परिश्रम नहीं करना पड़ेगा और कौमुदी यदि नहीं आती है तो भी भाष्य में परिश्रम करना नहीं पड़ेगा अर्थात् परिश्रम करना व्यर्थ होगा | तात्पर्य यह है कि कौमुदी की पूर्ण तैयारी से महाभाष्य आसान हो जाता है और कौमुदी की तैयारी नहीं है तो महाभाष्य बिल्कुल ही समझ में नहीं आता।

कौमुदी यदि आयाति वृथा भाष्ये परिश्रमः |

कोमुदी यदि नायाति वृथा भाष्ये परिश्रमः ||

नागेश भट्ट एवं व्याख्या ग्रंथ

    पाणिनीय व्याकरण की प्रक्रिया धारा में प्रौढता लाने का अत्यंत सुपरिचित नाम है नागेश भट्ट का | इनका समय 1673 से 1753 ई० के मध्य में माना जाता है | महाराष्ट्रीय ब्राम्हण नागेश जी शिवभट्ट एवं सती देवी के पुत्र थे | व्याकरण शास्त्र पर इन्होंने लगभग एक दर्जन ग्रंथों का लेखन किया है, उनमें से लघुशब्देन्दुशेखर, वैयाकरणसिद्धांतमंजूषा, वैयाकरणसिद्धांतलघुमंजूषा, वैयाकरणसिद्धांतपरमलघुमंजूषा, परिभाषेन्दुशेखर आदि प्रसिद्ध है | अभी भी काशी में इन ग्रंथों का पठन-पाठन सुचारू रूप से होता आ रहा है।

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