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अप्रैल, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गीताध्याय -2, श्लोक -12

@geeta जीव की नित्यता न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। (12) जातु - किसी काल में अहम् - मैं न - नहीं आसम् - था ( और ) त्वम् - तू न - नहीं ( था ) इमे - ( तथा ) ये जनाधिपाः - राजा लोग न - नहीं ( थे ) न, तु, एव - यह बात भी नहीं है; च - और अतः - इसके परम् - बाद ( भविष्य में ) वयम् - ( मैं, तू और राजा लोग ) हम सर्वे - सभी न - नहीं भविष्यामः - रहेंगे, एव - ( यह बात ) भी न - नहीं है। "मैं किसी काल में नहीं था ऐसा नहीं, तू कभी नहीं था ऐसा भी नहीं, ये राजा लोग कभी नहीं थे ऐसा भी नहीं, और इसके बाद भी हम सब न होंगे ऐसा भी नहीं है ( अर्थात हम पहले भी थे, इस समय हैं और आगे भी होंगे )"

गीताध्याय -2, श्लोक -11

#geeta देही का स्वरूप श्रीभगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। (11) त्वम् - तुमने अशोच्यान् - शोक न करने योग्य का अन्वशोचः - शोक किया है च - और प्रज्ञावादान् - विद्वता ( पण्डिताई ) की बातें भाषसे - कह रहे हो; ( परन्तु ) गतासून् - जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये च - और अगतासून् - जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डिताः - पण्डित लोग न, अनुशोचन्ति - शोक नहीं करते। "श्रीभगवान बोले- जिनके लिए शोक करना उचित नहीं, उनके लिए तो शोक कर रहा है और साथ ही ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें भी बघारे जा रहा है; परंतु जो यथार्थ में ज्ञानीजन होते हैं, वे न तो उनके लिए शोक करते हैं जिनके प्राण चले गए हैं और न उनके लिए ही जिनके प्राण नहीं गए हैं।"

गीताध्याय -2, श्लोक -7,8,9,10

#geeta अर्जुन का श्रीकृष्ण की शरण में जाना     भगवान् के इस तरह कहने पर अर्जुन अपने को टटोलता है। आत्म निरीक्षण करता है। बलपूर्वक मोह के परदे को उठाने की चेष्टा करता है। देखता है कि भगवान् जो कह रहे हैं, वही ठीक है। जिसे वह करुणा और दया समझ रहा था, वह वस्तुतः कायरता ही है। कहता है- कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। (7) कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः - कायरता रूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला ( और ) धर्मसम्मूढचेताः - धर्म के विषय में मोहित अन्तः करण वाला ( मैं ) त्वाम् - आप से पृच्छामि - पूछता हूं ( कि ) यत् - जो निश्चितम् - निश्चित श्रेयः - कल्याण करने वाली स्यात् - हो, तत् - वह ( बात ) मे - मेरे लिये ब्रूहि - कहिये। अहम् - मैं ते - आपका शिष्यः - शिष्य हूं। त्वाम् - आपके प्रपन्नम् - शरण हुए माम् - मुझे शाधि - शिक्षा दीजिये। "मेरा स्वभाव कायरता रूप दोष से सन गया है और ध...

गीताध्याय -2, श्लोक -6

#गीता अर्जुन के मन में हार का भय न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। (6) एतद् - ( हम ) यह च - भी न - नहीं विद्मः - जानते ( किं ) नः - हम लोगों के लिये ( युद्ध करना और न करना-इन ) कतरत् - दोनों में से कौन सा गरीयः - अत्यन्त श्रेष्ठ है यत्, वा - अथवा ( हम उन्हें ) जयेम - जीतेंगे यदि, वा - या ( वे ) नः - हमें जयेयुः - जीतेंगे। यान् - जिनको हत्वा - मारकर ( हम ) न, जिजीविषामः - जीना भी नहीं चाहते, ते - वे एव - ही धार्तराष्ट्राः - धृतराष्ट्र के सम्बन्धी प्रमुखे - ( हमारे ) सामने अवस्थिताः - खडे हैं। "फिर हम यह भी तो नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना श्रेयस्कर होगा। ( पता नहीं इस युद्ध में ) हम जीतेंगे या हमें वे जीत लेंगे। अहो! जिन्हें मार कर हम जीना नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।"

गीताध्याय -2, श्लोक -4,5

#गीता अर्जुन के मन में पाप का भय अर्जुन उवाच कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।। (4) मधुसूदन - हे मधुसूदन! अहम् - मैं सङ्ख्ये - रणभूमि में भीष्मम् - भीष्म च - और द्रोणम् - द्रोण के प्रति - साथ इषुभिः - बाणों से कथम् - कैसे योत्स्यामि - युद्ध करुं? ( क्यों कि ) अरिसूदन - हे अरिसूदन! ( ये ) पूजार्हौ - दोनों ही पूजा के योग्य हैं। "अर्जुन बोला- हे मधुसूदन! रणभूमि में पितामह भीष्म और गुरु द्रोण के साथ में किस प्रकार बाणों से युद्ध कर सकूंगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही तो पूजा के पात्र हैं।"

गीताध्याय -2, श्लोक -2,3

#geeta अर्जुन की कायरता : श्रीकृष्ण की फटकार      अर्जुन करुणा से आविष्ट हो गया है, घिर गया है। करुणा के प्रवाह में उसने अपने आपको डाल दिया है, इसलिए करुणा अपनी इच्छा अनुसार अर्जुन में प्रतिक्रियाएं उठा रही है। एक स्थिति वह है, जब मनुष्य अपने में करुणा को उठने देता है। ऐसी दशा में करुणा का वेग उसके वश में होता है। वह करुणा की प्रतिक्रिया को सीमा से बाहर नहीं जाने देता। ऐसी करुणा मनुष्य की हानि नहीं करती, बल्कि इस करुणा के द्वारा वह दूसरों का कल्याण करने में समर्थ होता है। पर अर्जुन की स्थिति भिन्न है। उसने मानो अपने को करुणा के सुपुर्द कर दिया है। अतः उसकी आंखें कातर है और आंसुओं से भरी हुई है, वह शोकाकुल है। यह मानो एक प्रकार की मूर्छा है, हिस्टीरिया के 'फिट' के समान है। जब किसी व्यक्ति को हिस्टीरिया का दौरा पड़ता है, तो वह ऐसा ही हो जाता है और उल्टी सुल्टी बातें करने लगता है। बड़े बूढ़े लोग इसका एक अचूक निदान बतलाते हैं -वह यह कि ऐसे समय रोगी को जोरों से डाटा जाय। इससे हिस्टीरिया का दौरा अगर न रुके तो उसकी तीव्रता अवश्य कम हो जाती है। भगवान् कृष्ण ...

गीताध्याय -2, भूमिका, श्लोक -1

#geeta आत्मसमर्पण : भगवत् कृपा का द्वार गीताध्यायों के नाम की सार्थकता      पिछले भाग में गीता के प्रथम अध्याय पर कुछ विचार किया, जिसे 'अर्जुन विषादयोग' के नाम से पुकारा गया है। गीता के अध्यायों के नाम भी अपना विशेष महत्व रखते हैं। प्रत्येक नाम में 'योग' शब्द जुड़ा हुआ है।

गीताध्याय -1, श्लोक -31,32,33,34,35,36,37,38,39

#गीता मोह की प्रतिक्रिया अर्जुन के वैराग्य का स्वरूप न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।। (31) न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च। किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।। (32) आहवे - युद्ध में स्वजनम् - स्वजनों को हत्वा - मारकर श्रेयः - श्रेय ( लाभ ) च - भी न - नहीं अनुपश्यामि - देख रहा हूँ। कृष्ण - हे कृष्ण! ( मैं ) न - न ( तो ) विजयम् - विजय काङ्क्षे - चाहता हूँ, न - न राज्यम् - राज्य ( चाहता हूँ ) च ( न ) - और न सुखानि - सुखों को ( ही चाहता हूँ )। गोविन्द - हे गोविन्द! नः - हम लोगों को राज्येन - राज्य से किम् - क्या लाभ? भोगैः - भोगों से ( क्या लाभ?) वा - अथवा जीवितेन - जीने से ( भी ) किम् - क्या लाभ?     पिछले भाग में हमने अर्जुन की मनः स्थिति के संबंध में आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार किया था। यहां हम उसे यह कहते सुनते हैं कि वह विजय और राज्य के सुख का उपभोग नहीं करना चाहता। 28वें श्लोक पर विचार करते हुए हमने कहा था...

गीताध्याय -1, उपसंहार

#गीता      ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोध्यायः।।1।।        इस प्रकार ऊँ, तत्, सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारण पूर्वक ब्रह्म विद्या और योगशास्त्र मय श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद रूपी श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद नेह 'अर्जुनविषादयोग' नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ।।1।।       प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर महर्षि वेदव्यास जी ने जो उपर्युक्त पुष्पिका लिखी है, इसमें श्रीमद्भगवद्गीता का विशेष माहात्म्य और प्रभाव ही प्रकट किया गया है।      'ऊँ, तत्, सत्, -ये तीनों सच्चिदानंदघन परमात्मा के पवित्र नाम हैं। यह मात्र जीवों का कल्याण करने वाले हैं। इनका उच्चारण परमात्मा के सम्मुख करता है और शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों के अंग वैगुण्य को मिटाता है। अतः गीता के अध्याय का पाठ करने में श्लोक, पद और अक्षरों के उच्चारण में जो जो भूलें हुई है, उनका परिमार्जन करने के लिए और संसार से संबंध विच्छेद पूर्वक भगवत् संबंध की याद आने के लिए प्रत्येक अध...

गीताध्याय -1, श्लोक -45,46,47

#geeta अर्जुन का शोक      मन ही मन इन घोर परिणामों की कल्पना से अर्जुन का हृदय कांप उठता है। वह खेद प्रकट करते हुए कहता है- अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।। (45) अहो - यह बड़े आश्चर्य ( और ) बत - खेद की बात है कि वयम् - हम लोग महत्पापम् - बड़ा भारी पाप कर्तुम् - करने का व्यवसिताः - निश्चय कर बैठे हैं, यत् - जो कि राज्यसुखलोभेन - राज्य और सुख के लोभ से स्वजनम् - अपने स्वजनों को हन्तुम् - मारने के लिये उद्यताः - तैयार हो गये हैं।      और अंत में अर्जुन अपना निश्चय व्यक्त करते हुए कहता है- यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः। धृतराष्ट्रा रणे हन्यस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।। (46) यदि - अगर ( ये ) शस्त्रपाणयः - हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये हुए धार्तराष्ट्राः - धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग रणे - युद्ध भूमि में अप्रतीकारम् - सामना न करने वाले अशस्त्रम् - ( तथा ) शस्त्र रहित माम् - मुझे हन्युः - मार भी दें ( तो ) तत् - व...

गीताध्याय -1, श्लोक -42,43,44

#geeta वर्णसंकरता से पितरों का पतन संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।। (42) संकरः - वर्णसंकर कुलघ्नानां - कुलघातियों को च - और कुलस्य - कुल को नरकाय - नरक में ले जाने वाला एव - ही ( होता है ) लुप्तपिण्डोदकक्रियाः - श्राद्ध और तर्पण न मिलने से एषाम् - इन ( कुलघातियों ) के पितरः - पितर हि - भी ( अपने स्थान से ) पतन्ति - गिर जाते हैं।    अर्जुन के अनुसार कुलक्षय का पांचवा दोष यह है कि वर्णसंकर संतानों के कारण पिंड तर्पण आदि क्रियाएं लुप्त हो जाती हैं, जिससे पितर पतित हो जाते हैं, अर्थात पितृलोक से च्युत हो जाते हैं। और कुलक्षय का छठा दोष यह है कि कुल के सारे लोग इन उपर्युक्त कारणों से नरकगामी बन जाते हैं। तात्पर्य यह कि पिण्डोदक न मिलने से पितरगण स्वर्ग से गिरकर नरक में चले जाते हैं और जो लोग कुलनाश के कारण हैं, वे भी पिण्डोदक से वंचित हो जाने के कारण नरकगामी ही हो जाते हैं।      प्रश्न उठता है कि पिंड तर्पण आदि क्रियाओं के अभाव में मनुष्य को...