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आत्मसमर्पण : भगवत् कृपा का द्वार
गीताध्यायों के नाम की सार्थकता
पिछले भाग में गीता के प्रथम अध्याय पर कुछ विचार किया, जिसे 'अर्जुन विषादयोग' के नाम से पुकारा गया है। गीता के अध्यायों के नाम भी अपना विशेष महत्व रखते हैं। प्रत्येक नाम में 'योग' शब्द जुड़ा हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि हर अध्याय हमें उस परमात्मा से युक्त कर देने का अनूठा उपाय बतलाता है। प्रथम अध्याय सूचित करता है कि विषाद से भी योग सिद्ध होता है। पर विषाद अर्जुन के जैसा होना चाहिए। 'अर्जुन' शब्द ऋजुता का, सरलता का बोधक है। जब हम सरल अंतः करण से ईश्वर को अपने मन रूपी रथ की बागडोर दे देते हैं, तो मन में उठने वाले द्वंद भी योग की स्थिति को प्राप्त करने के सोपान बन जाते हैं। अर्जुन शोक से ग्रस्त हो गया था, हृदय मंथन से पीड़ित था, पर उसने अपना सारथ्य श्रीभगवान् को सौंप दिया था। वह ईश्वर को चलाना नहीं चाहता था, बल्कि वह चाहता था कि ईश्वर उसे चलाएं। युद्ध के प्रारंभ में जब वह श्रीकृष्ण से सहायता लेने जाता है, तो देखता है कि वह सोए हुए हैं और यह भी देखता है कि दुर्योधन पहले से वहां उपस्थित हैं। अर्जुन नम्रतापूर्वक श्रीकृष्ण के पैरों की ओर हाथ जोड़कर खड़ा रहता है। जब श्रीकृष्ण की निद्रा टूटती है, तो उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ती है और वह अर्जुन से कुशल प्रश्न करते हुए उसके आने का प्रयोजन पूछते हैं। अर्जुन उन्हें प्रणाम कर युद्ध में उनकी सहायता की याचना करता है। इतने में श्रीकृष्ण को दुर्योधन की आवाज सुनाई पड़ती है। वे मुड़कर देखते हैं। दुर्योधन सिरहने की ओर एक सिंहासन पर बैठा हुआ है और कह रहा है -"कृष्ण! मैं अर्जुन से पहले यहां पहुंचा हूं। मैं भी युद्ध में आपसे सहायता पाने की आशा लेकर आया हूं। अतः मांगने का पहला अधिकार मेरा है।" श्री कृष्ण कहते हैं-
भवानभिगतः पूर्वमत्र मे नास्ति संशयः।
दृष्टस्तु प्रथमं राजन् मया पार्थो धनंजयः।।
तव पूर्वाभिगमनात् पूर्वं चाप्यस्य दर्शनात्।
साहाय्यमुभयोरेव करिष्यामि सुयोधन।।
प्रवारणं तु बालानां पूर्वं कार्यमिति श्रुतिः।
तस्मात् प्रवारणं पूर्वमर्हः पार्थो धनंजयः।।
मत्संहननतुल्यानां गोपानामर्बुदं महत्।
नारायणा इति ख्याताः सर्वे संग्रामयोधिनः।।
ते वा युधि दुराधर्षा भवन्त्वेकस्य सैनिकाः।
अयुध्यमानः संग्रामे न्यस्तशस्त्रोऽहमेकतः।।
आभ्यामन्यतरं पार्थ यत् ते हृद्यतरं मतम्।
तद्वृणीतां भवानग्रे प्रवार्यस्त्वं हि धर्मतः।।
-"राजन! इसमें संदेह नहीं कि आप ही मेरे यहां पहले आए हैं, परंतु मैंने पहले कुंतीनंदन अर्जुन को ही देखा है। सुयोधन! आप पहले आए हैं और अर्जुन को पहले मैंने देखा है; इसलिए मैं दोनों की ही सहायता करूंगा। शास्त्र की आज्ञा है कि पहले बालकों को ही उनकी अभीष्ट वस्तु देनी चाहिए; अतः अवस्था में छोटे होने के कारण पहले कुंती पुत्र अर्जुन ही अपनी अभीष्ट वस्तु पाने के अधिकारी हैं। मेरे पास एक अर्बुद गोपों की विशाल सेना है, जो सब के सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सब की 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर लोहा लेने वाले हैं। एक ओर तो वे दुर्धर्ष सैनिक युद्ध के लिए उद्धत रहेंगे और दूसरी ओर से अकेला मैं रहूंगा; परंतु मैं ना तो युद्ध करूंगा न कोई शस्त्र ही धारण करुंगा। अर्जुन! इन दोनों में से कोई एक वस्तु, जो तुम्हारे मन को अधिक प्रिय जान पड़े, तुम पहले चुन लो; क्योंकि धर्म के अनुसार पहले तुम्हे ही अपनी मनचाही वस्तु चुनने का अधिकार है।"
और अर्जुन ने भगवान् श्रीकृष्ण का चुनाव किया। दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता होती है। उसने श्रीकृष्ण की वह विशाल नारायणी सेना मांग ली। वह सोचता है कि श्री कृष्ण ठग लिए गए हैं -'कृष्णं चापहृतं ज्ञात्वा सम्प्राप परमां मुदम्'। यह सोचकर उसका ह्रदय बल्लियों उछलता है। पर परिणाम अंततोगत्वा क्या हुआ, यह तो सभी जानते हैं।
तो, अर्जुन ने श्रीकृष्ण का चुनाव इसलिए नहीं किया कि वह मन चाहे कृष्ण को चलाएगा, बल्कि इसलिए कि कृष्ण ही उसे मनचाहे चलायेंगे। दुर्योधन ने ईश्वर के पास जाकर भी अपनी स्वार्थपूर्ति की कामना की। वह ईश्वर को चलाने के लिए गया और जो कुछ ईश्वर से उसे मिला, उसे अपने स्वार्थ में लगाकर उसने सोचा कि मैंने ईश्वर को ठग लिया है। जब तक जीव अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए ही ईश्वर की ओर जोहता है, तब तक वह साधक नहीं बन पाता है। हम भी यदि अर्जुन के समान ईश्वर को अपना चालक मान ले, संसार की वस्तुओं में उन्हीं को सहायक के रूप में चुनें और उनके मंगलमय हाथों में अपने जीवन की बागडोर सौंप दें, तो हृदय में उठने वाला मंथन और उससे उत्पन्न विषाद भी उनसे युक्त होने का साधन बन जाता है।
सांख्ययोग का अर्थ
ऐसी भूमिका प्रस्तुत करने के बाद अब गीता हमें अपने दूसरे अध्याय पर ले आती है, जिसे 'सांख्ययोग' के नाम से पुकारा गया है। सांख्य का तात्पर्य संख्या अर्थात गणना से होता है और इसी अर्थ की बुनियाद पर एक दर्शन का नाम 'सांख्य' रखा गया, जो षड्दर्शनों में से एक है। पर गीता में 'सांख्य' शब्द से 'सांख्य दर्शन' का तात्पर्य नहीं है। गीता की यह विशेषता है कि वह पुराने शब्दों का व्यवहार तो करती है, पर उन शब्दों को नया अर्थ प्रदान कर देती है। 'सांख्य' का एक दूसरा अर्थ होता है विवेक, विचार। और गीता इसी अर्थ में 'सांख्य' शब्द का उपयोग करती है। अतएव 'सांख्य योग' का अर्थ वह योग हुआ, जो विवेक और विचार से सधता है।
अब प्रश्न उठता है कि विवेक और विचार से योग किस प्रकार सध सकता है? दूसरा अध्याय इसी प्रश्न का उत्तर है। इसमें बताया गया है कि मनुष्य शरीर मात्र नहीं है, न वह शरीर और मन की युति है, प्रत्युत वह आत्मा है, जो सब प्रकार के परिवर्तनों से रहित है। पर अज्ञान के कारण वह अपने आप को देह मान बैठा है, इसलिए देह के संबंधों को सत्य मानकर जीवन के वास्तविक सत्य को गंवा बैठता है। विवेक और विचार उसके इस अज्ञान को दूर करते हैं और उसे सिखाते हैं कि देह तो कपड़े की तरह है। पुराने कपड़े फटे कि हम नए पहन लेते हैं। इसी प्रकार आत्मा एक के बाद दूसरी देह धारण करती है। जिसमें विवेक विचार की सहायता से यह ज्ञान दृढमूल हो गया, वह अपनी देह और मन के परिवर्तनों का साक्षी हो जाता है और आत्म स्वरूप हो जाता है। यही सांख्य योग की चरम स्थिति है, जिसे इस अध्याय में स्थितप्रज्ञता के नाम से पुकारा गया है।
अर्जुन को श्रीभगवान् सबसे पहले इसी आत्म ज्ञान का उपदेश देते हैं। अर्जुन अपनी देह और देह के संबंधों को इतना सत्य मान बैठा है कि युद्ध नहीं करने की बात करता है। एक ओर वह वर्णसंकरता और उससे उत्पन्न होने वाले दोषों की चर्चा कर अपने ज्ञान को प्रदर्शित करता है, तो दूसरी ओर शोक से पीड़ित हो, आंसू बहाता हुआ, भिक्षा द्वारा जीवन यापन की बात कहता हुआ अपने अज्ञान को ही प्रकट करता है। श्रीभगवान् उसके इसी अज्ञान पर नश्तर चलाना चाहते हैं। वे अज्ञान के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं करते।
अर्जुन की विषण्ण स्थिति का राजा धृतराष्ट्र के समक्ष चित्रण करते हुए संजय कह रहे हैं-
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।। (1)
तथा - वैसी
कृपया - कायरता से
आविष्टम् - व्याप्त हुए
तम् - उन अर्जुन के प्रति,
विषीदन्तम् - जो कि विषाद कर रहे हैं ( और )
अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् - आंसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है,
मधुसूदनः - भगवान् मधुसूदन
इदम् - यह ( आगे कहे जाने वाले )
वाक्यम् - वचन
उवाच - बोले।
"संजय बोला- इस तरह आंसू भरे कातर नेत्रों से युक्त करुणा से घिरे हुए उस शोकातुर अर्जुन से भगवान मधुसूदन यह वचन कहने लगे।"
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