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वर्णसंकरता- कारण और परिणाम
कुलक्षय के दोष
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।। (40)
कुलक्षये - कुल का क्षय होने पर
सनातनः - सदा से चलते आये
कुलधर्माः - कुलधर्म
प्रणश्यन्ति - नष्ट हो जाते हैं
उत - और
धर्मे - धर्म का
नष्टे - नाश होने पर ( बचे हुए )
कृत्स्नम् - सम्पूर्ण
कुलम् - कुल को
अधर्मः - अधर्म
अभिभवति - दबा लेता है।
अर्जुन कुलक्षय का पहला दोष यह बतलाता है कि उससे सनातन धर्म नष्ट हो जाते हैं। यह स्वाभाविक भी है। यदि कुल के धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति ही नष्ट हो गए, तो धर्म भी कैसे बचा रहेगा? धर्म तो आचरणनिष्ठ होता है -'आचारप्रभवो धर्मः'। आचरण में उतारने से ही धर्म पुष्ट होता है। आज धर्म की गिरी दशा का कारण यही है कि लोग मुंह से तो धर्म की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पर जब व्यवहार में धर्म को उतारने का समय आता है, तो तोते के समान टें-टें कर जाते हैं।
श्रीरामकृष्णदेव एक सुंदर उदाहरण दिया करते थे। तोते को आप राम-राम रटा दें तो वह राम-राम टेरता रहेगा, पर यदि बिल्ली उस पर झपटे, तब राम-राम भूल जाएगा, और टें-टें करेगा। हमारे जीवन में भी जब धर्म के आचरण का समय आता है, तो हम तोते की तरह टें-टें करने लगते हैं। यही धर्म की गिरावट का कारण रहा है। इसीलिए हमने ऊपर कहा कि जोर शोर से प्रवचन देने से धर्म बली नहीं बनता, न दिखावे के लिए कोई बड़ा अनुष्ठान कर देने से ही धर्म पुष्ट होता है। धर्म को जीवंत बनाने के लिए उसमें आचरण के प्राण फूंकने पडते हैं। अतः आचरण करने वाले ऐसे लोग यदि नष्ट हो गए, तो प्राचीन काल से चले आए धर्म नष्ट हो जाएंगे, यही अर्जुन का तात्पर्य है।
कुलक्षय का दूसरा दोष धर्म नाश से उत्पन्न होता है। अर्जुन कहता है कि धर्म के नष्ट होने पर समूचे कुल को अधर्म दबा लेता है। धर्म और अधर्म का संग्राम तो सतत छिड़ा हुआ है। इसी को पुराणों में देवासुर संग्राम के नाम से पुकारा गया है। जब धर्म का वजन कम पड़ने लगता है, तो समाज पर अधर्म हावी हो जाता है। अधर्म की प्रवृत्ति मनुष्यों में स्वाभाविक हुआ करती है। हमें बलपूर्वक अपने ऊपर धर्म के संस्कार डालने पड़ते हैं। अधर्म तो सदैव दबाने के लिए तैयार बैठा ही है, पर धर्म की सजगता के कारण ऐसा नहीं कर पाता। जैसे सर्कस में हम बाघ का खेल देखते हैं। रिंग मास्टर बिजली का चाबुक हाथ में ले बाघ से करतब कराता है। बाघ चाबुक के डर के मारे वह सब करता तो है, पर वह हरदम इसी ताक में रहता है कि कब रिंग मास्टर को चट कर जाऊं। ठीक उसी प्रकार अधर्म मानो ताक में बैठा रहता है और मौका पाते ही हावी हो जाता है।
अतएव शास्त्रों ने हमें सतत धर्म के आचरण की शिक्षा दी है। इससे अधर्म की प्रवृत्ति पर रोक लगती है। अधर्म की यह प्रवृत्ति तीन रूप तीन रूप लेकर सामने आती है -'कामाचार' यानी यथेच्छ आचरण करना, 'कामभक्ष' यानी जो इच्छा हो सो खा लेना और 'कामवाद' यानी वाणी पर बिना लगाम लगाए जो मुंह में आए सो कह देना। इन प्रवृत्तियों को सिखाना नहीं पड़ता, बल्कि यह तो मनुष्य में नैसर्गिक होती हैं और उसके पतन का कारण बनती है। स्मृतिकार कहते हैं-
विहितस्याननुष्ठानान् निन्दितस्य च सेवनात्।
अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति।।
-'विहित विषयों का अनुष्ठान न करना, निन्दित विषयों का सेवन करना और इंद्रियों को वश में न रखना, ये मनुष्य के पतन के कारण होते हैं।' ये अधर्म की श्रेणी में आते हैं। जब धर्म शिथिल हो जाता है, तो अधर्म के रूप समाज को दबोच लेते हैं। धर्म की शिक्षा हमें अपने पूर्वजों और गुरुजनों के आचरण को देखकर मिलती है। कुलक्षय हो जाने पर धर्म का आचरण करने वाले गुरुजनों का अभाव हो जाएगा। इससे अधर्म बढ़ेगा और धीरे-धीरे समूचे कुल को दबा लेगा।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः।। (41)
कृष्ण - हे कृष्ण!
अधर्माभिभवात् - अधर्म के अधिक बढ़ जाने से
कुलस्त्रियः - कुल की स्त्रियां
प्रदुष्यन्ति - दूषित हो जाती हैं ( और )
वार्ष्णेय - हे वार्ष्णेय!
स्त्रीषु - स्त्रियों के
दुष्टासु - दूषित होने पर
वर्णसंकरः - वर्णसंकर
जायते - पैदा हो जाते हैं।
कुलक्षय का तीसरा दोष अधर्म के इस प्रकार बढ़ जाने से पैदा होता है। अर्जुन कहता है की अधर्म की एवंविध वृद्धि से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और स्त्रियों के इस प्रकार दूषित हो जाने पर उनमें वर्णसंकरता उत्पन्न होती है। यह कुलक्षय का चौथा दोष है।
अशुभ प्रवृत्तियों को रोकने के सामान्यतः दो उपाय होते हैं -एक तो दंड का भय और दूसरे, पाप का भय। हममें से अधिकांश या तो नर्क के डर से पाप से दूर रहते हैं, या फिर पुलिस के डर से। यदि पुलिस का डर न होता, तो आज समाज में और भी अधिक अव्यवस्था फैल गई होती। जब तक मनुष्य में पाप का डर बना रहता है, उसे नैतिक बनाए रखने के लिए पुलिस की आवश्यकता नहीं होती। पर जब उसमें से पाप का डर निकल जाता है, तो उसकी नैतिकता केवल दिखाओ होती है, तब उसकी नैतिकता का आधार केवल पुलिस का डंडा होता है। जब समाज को अधर्म घेर लेता है, तो सबसे पहले पाप का भय खत्म हो जाता है। तब स्त्री और पुरुष स्वैर आचरण करने लगते हैं। इससे नैतिकता की मर्यादा समाप्त हो जाती है और समाज में व्यभिचार फैल जाता है। स्त्रियों के इस प्रकार दूषित हो जाने से जो संताने उत्पन्न होती हैं, वे वर्णसंकर होती हैं। यह वर्णसंकरता समाज के लिए घातक सिद्ध होती है। मनुस्मृति में कहा है-
यस्मिन्नेते हरिध्वंसा जायन्ते वर्णदूषकाः।
राष्ट्रिकैः सह तद्राष्ट्रं क्षिप्रमेव विनश्यति।।
-'जिस देश में वर्णों को दूषित करने वाले ये वर्णसंकर अधिक बढ़ जाते हैं, वह सारा देश, देशवासियों सहित, शीघ्र नष्ट हो जाता है।'
यही कारण है कि हमने भारत में रक्त शुद्धि पर बड़ा जोर दिया है। संसार के कुछ दूसरे देशों में भी कुछ समय पूर्व तक रक्त शुद्धि पर बड़ा बल दिया जाता था। अमेरिका में काले और गोरे की लड़ाई प्रमुखता इसी का परिणाम है। भारत में जब अंग्रेजों का शासन था, तो यहां वे भारतीयों से अपने को पृथक ही रखते थे। इसके मूल में अपनी नस्ल को सुरक्षित रखने की भावना थी। वर्णसंकरता का दोष नस्ल को खत्म कर देता है।
मनुष्यों की तीन श्रेणियां
यहां पर पूछा जा सकता है कि क्या नर्क और पाप का डर दिखाकर मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना उचित है? उत्तर में वक्तव्य यह है कि विचारों की भिन्नता के कारण मनुष्यों की अलग-अलग श्रेणियां होती हैं। कुछ लोग मानसिक विकास की दृष्टि से बालक के समान होते हैं, तो कुछ लोग प्रौढ़। प्रत्येक श्रेणी के व्यक्ति के लिए उसके अनुरूप व्यवस्था करनी होती है। मोटे तौर पर हम मनुष्यों को तीन श्रेणियों में बांट सकते हैं। एक तो वे हैं, जो इस संसार को छोड़कर और कुछ नहीं जानते। यह दृश्य मान जगत ही उनके लिए सब कुछ है। ये लोग भौतिकवादी और इंद्रिय परायण होते हैं। खाना, पीना और मौज उड़ाना ही उनका लक्ष्य होता है। भोग ( enjoyment ), उत्तेजना ( excitement ) और अवसाद ( exhaustion ) के चक्कर में पड़कर ये लोग उचित और अनुचित का विवेक खो बैठते हैं तथा उच्छृंखल और पशुपत हो जाते हैं। ऐसे लोगों में पाप पुण्य का कोई बोध नहीं होता। अपनी इंद्रियों की तुष्टि के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे विवेकहीन मानव पशुओं से समाज की रक्षा के लिए डंडे का उपयोग लाभप्रद सिद्ध होता है।
इससे कुछ ऊपर की श्रेणी वह है, जहां मनुष्य केवल देह के स्तर पर नहीं जीता, बल्कि एक वैचारिक आदर्श में आस्था रखता है। उसे यह विश्व आकस्मिकता या दुर्घटना से उत्पन्न एक लक्ष्य हीन भटकाव नहीं मालूम पड़ता, बल्कि वह इस संसार में एक अदृश्य नियामक शक्ति को अनुस्यूत देखता है, जिसे वह ईश्वर के नाम से पुकारता है। यह व्यक्ति विश्वास करता है कि अशुभ क्रियाओं का फल अशुभ होता है और शुभ क्रियाओं का फल शुभ। इसलिए वह स्वर्ग और नरक पर विश्वास करता है और मानता है कि पुण्य के फल से स्वर्ग की प्राप्ति होती है तथा पाप के फल से नरक की। स्वर्ग वह है, जहां सुख की सूक्ष्म से सूक्ष्म कल्पना साकार होती हो और नरक वह है, जहां दुख की बीभत्स से बीभत्स कल्पना मूर्त रूप धारण करती हो। मनुष्यों की यह दूसरी श्रेणी पाप और नरक के डर से कुमार्ग पर कदम डालने में हिचकती है। इन लोगों के लिए ईश्वर एक न्यायी राजा के समान है, जो सत्कर्मों के लिए पुरस्कार और दुष्कर्मों के लिए दंड प्रदान करता है। मानव समाज के बृहत्तर अंश के लिए पाप पुण्य की यह कल्पना लाभदायक सिद्ध होती है।
इससे भी ऊपर की श्रेणी में वह है, जहां मनुष्य पाप पुण्य की भावना से प्रेरित होकर क्रियाएं नहीं करता, जो ईश्वर को एक न्यायी राजा के समान नहीं देखता, बल्कि उसे सर्वांतर्यामी सत्य के रूप में स्वीकार करता है और ऐसा मानता है कि यह सारा विश्व ब्रह्मांड अटल और अपरिवर्तनशील नियमों द्वारा धारित है। ये नियम ही 'ऋत' और 'सत्य' के नाम से पुकारे गए हैं। इस तीसरी श्रेणी में अत्यंत बिरले लोग होते हैं। इनके जीवन का लक्ष्य सुख की प्राप्ति न होकर सत्य का शोधन होता है। ऐसे ही व्यक्ति सत्य दृष्टा बनकर 'ऋषि' के नाम से पूजित होते हैं। सारी मानव जाति को 'ऋषि' की उच्चतम स्थिति तक पहुंचा देना ही विकास की प्रक्रिया का लक्ष्य है। पर इस गंतव्य पर पहुंचने के लिए हमें प्रथम दो श्रेणियों में से गुजरना होता है। एक छोटा सा बच्चा जब चलना शुरू करता है, तो तीन पैर की गाड़ी का सहारा लेता है। जब वह चलना सीख जाता है, तो उसे फिर किसी सहारे की जरूरत नहीं होती, पर इसका मतलब यह नहीं कि तीन पैर की गाड़ी निरर्थक हो गई। उसकी भी उपयोगिता है। इसी प्रकार लोगों को मर्यादा में बांधकर रखने के लिए जैसे पुलिस के डंडे की जरूरत है, वैसे ही पाप या नरक के डर की भी उपयोगिता है। यह पाप का डर पुलिस के भय की अपेक्षा अधिक कारगर सिद्ध होता है। पर जब समाज में अनीति और अधर्म का बोलबाला होने लगता है, तो यह नरक का भय समाप्त हो जाता है।
यहां पर अर्जुन श्रीभगवान् को 'कृष्ण' और 'वार्ष्णेय' ये दो नाम लेकर पुकारता है। इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि वह अपने कथन की और भगवान की दृष्टि विशेष रूप से आकर्षित करना चाहता है। वृष्णि वंश में जन्म लेने के कारण श्रीकृष्ण को 'वार्ष्णेय' कहते हैं। तो अर्जुन समाज में पाप का डर समाप्त हो जाने से जिस वर्णसंकरता को उत्पन्न देखता है, उसके दोष बतलाते हुए आगे कहता है।
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