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गीताध्याय -1, श्लोक -14-15-16

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पाण्डवों के शंखनाद की प्रतिक्रिया

श्रीकृष्ण तथा पांचों पाण्डवों द्वारा शंखनाद


ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यो शङ्खौ प्रदध्मतुः।।

ततः - उसके बाद
श्वेतैः - सफेद
हयैः - घोडों से
युक्ते - युक्त
महति - महान्
स्यन्दने - रथपर
स्थितौ - बैठे हुए
माधवः - लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण
च - और
पाण्डवः - पाण्डुपुत्र अर्जुन ने
एव - भी
दिव्यौ - दिव्य
शंङ्खौ - शंखो को
प्रदध्मतुः - बडे जोर से बजाया।

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः।।

हृषीकेशः - अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने
पाञ्चजन्यम् - पाञ्चजन्य नामक ( तथा )
धनञ्जयः - धनंजय अर्जुन ने
देवदत्तम् - देवदत्त नामक ( शंख बजाया और )
भीमकर्मा - भयानक कर्म करने वाले
वृकोदरः - वृकोदर भीम ने
पौण्ड्रम् - पौण्ड्र नामक
महाशङ्खम् - महाशंख
दध्मौ - बजाया।

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।।

कुन्तीपुत्रः - कुन्ती पुत्र
राजा - राजा
युधिष्ठिरः - युधिष्ठिर ने
अनन्तविजयम् - अनन्तविजय नामक ( शंख बजाया तथा )
नकुलः - नकुल
च - और
सहदेवः - सहदेव ने
सुघोषमणिपुष्पकौ - सुघोष और मणिपुष्पक नामक ( शंख बजाये )।

     पिछले भाग में हमने देखा कि कौरवों ने प्रथम शंखनाद कर अपनी आक्रामकता सिद्ध कर दी। पांडवों पर युद्ध थोप दिया गया। अतएव यह उचित था कि पांडवगण युद्ध को स्वीकार करते। उपर्युक्त तीन श्लोकों में पांचो पांडव तथा श्री कृष्ण के द्वारा शंख फूंकते हुए कौरवों की युद्ध की चुनौती को स्वीकार किया गया है।
    यहां एक बात दर्शनीय है कि पांडवों की ओर से सर्वप्रथम युद्ध का बिगुल भगवान कृष्ण ने बजाया। इससे मानो यह सूचित किया गया कि भले ही मैंने युद्ध भूमि में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा की हो, तथापि पांडवों की ओर से युद्ध का संचालक तो मैं ही हूं। यहां श्री कृष्ण के लिए 'माधव' और 'हृषिकेश' ये दो नाम आए हैं। इन नामों की व्याख्या करते हुए संजय राजा धृतराष्ट्र से ( उद्योगपर्व, 70/4,9 ) कहते हैं-
'मौनाद् ध्यानाच्च योगाच्च विद्धि भारत माधवम्।'
'हर्षात् सुखात् सुखैश्वर्याद्धृषीकेशत्वमश्नुते।'
      -'भारत! मौन, ध्यान और योग से उनका बोध अथवा साक्षात्कार होता है, इसलिए आप उन्हें "माधव" समझें।' तथा, 'वे हर्ष अर्थात सुख से युक्त होने के कारण "हृषीक" हैं और सुख ऐश्वर्य से संपन्न होने के कारण "ईश" कहे गए हैं। इस प्रकार वे भगवान 'हृषीकेश' नाम धारण करते हैं।'
     'माधव' शब्द की व्युत्पत्ति यों भी करते हैं -'माः ( लक्ष्म्याः ) धवः ( पतिः )' -यानी लक्ष्मी का पति। तात्पर्य यह कि जहां लक्ष्मीपति युद्ध के नेता हैं, वहां उनको छोड़कर विजयलक्ष्मी कहां जा सकती हैं! उसी प्रकार 'हृषीकेश' शब्द की भी एक दूसरे प्रकार से व्युत्पत्ति की गई है। 'हृष्' धातु का अर्थ होता है आनंद देना। इंद्रियां मनुष्य को आनंद देती हैं, इसलिए उन्हें 'हृषीक' कहते हैं। अतः 'हृषीकेश' का अर्थ हुआ हृषीक का ईश यानी इंद्रियों का राजा। जो इंद्रियों का स्वामी हो, वह हुआ हृषीकेश।
अर्जुन को दिव्य रथ तथा अस्त्र कृपा प्राप्ति
     इस श्लोक में अर्जुन के रथ का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है, साथ ही रथ में जुते हुए घोड़ों का भी। गीता में अन्य किसी के रथ और घोड़ों का उल्लेख नहीं। यह विशेष उल्लेख संभवतः इसलिए हुआ है कि अर्जुन के रथ की विलक्षणता है।
 युद्ध में अन्य सभी के रथ टूटे और घोड़े मरे, पर अर्जुन का ना तो रथ टूटा और ना कोई घोड़ा मरा। इस रथ और इन घोड़ों का अपना एक विशेष इतिहास है।
     प्राचीन काल में स्वेतकि नाम का एक बड़ा ही बलशाली और पराक्रमी राजा था। कहते हैं कि उसके यज्ञ में घी की आहूतियां पी पीकर अग्नि देवता ऐसे छके कि उनकी पाचन शक्ति क्षीण हो गई, रंग फीका पड़ गया और प्रकाश बंद हो गया। अजीर्ण से उनका अंग अंग ढीला पड़ गया। वे ब्रह्मा के पास गए और उनसे रोग मुक्ति का उपाय पूछा। ब्रह्मा जी ने कहा, "अग्निदेव! अगर तुम खांडव वन को जला दो, तो तुम्हारी अरुचि और अजीर्ण दूर हो जाए और तुम्हारी ग्लानि भी मिट जाएगी।" तब अग्निदेव ने 7 बार खांडव वन को जलाने की चेष्टा की, पर इंद्र के संरक्षण के कारण वे सातों बार असफल रहे। जब अग्निदेव निराश हो दुबारा ब्रह्मा जी के पास पहुंचे, तो उन्होंने अग्नि को भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के माध्यम से खांडव वन जलाने का उपाय बतलाया।
     एक दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ यमुना पुलिन पर जल विहार के लिए गए हुए थे। वहां उनके सामने एक ब्राह्मण आया और भिक्षा की मांग की। जब अर्जुन ने दीक्षा देनी चाही, तो ब्राम्हण ने अपना असली परिचय दिया और कहा कि "मैं साधारण अन्न नहीं चाहता। मैं अग्नि हूं, मैं खांडव वन को जला डालना चाहता हूं। आपकी इसमें सहायता चाहिए।" यह सुन अर्जुन बोले "अग्निदेव! मेरे पास दिव्यास्त्रों की कमी नहीं है। उनके द्वारा मैं इंद्र को भी युद्ध ने छका सकता हूं। परंतु मेरे बाहुबल को संभाल सकने वाला धनुष मेरे पास नहीं है और न उन अस्त्रों के उपयुक्त बाण ही हैं। रथ भी तो ऐसा नहीं है, जो यथेष्ट बोझ ढो सके। श्रीकृष्ण के पास भी ऐसा कोई शस्त्र इस समय नहीं है, जिससे ये युद्ध में नागों और पिशाचों को मार सके। खांडव वन को जलाते समय इंद्र को रोकने के लिए युद्ध सामग्री की आवश्यकता है। बल और कौशल हमारे पास है, सामग्री आप दीजिए।
     अर्जुन की समयोचित वाणी सुन अग्नि ने जलाधिपति लोकपाल वरुण का स्मरण किया और उनकी सहायता से अर्जुन को अक्षय तरकस, गांडीव धनुष तथा वानर चिह्न युक्त ध्वजा से मंडित दिव्य रथ दिला दिया। गांडीव धनुष के संबंध में तो कहा जाता है कि वह किसी भी शस्त्र से नहीं कटता और सभी शस्त्रों को काट सकता है। उससे योद्धा का बल, कांति और यश बढ़ता है। वह अकेले ही लाखों धनुषों के समान है और क्षतरहित तथा पूज्य है। उसी प्रकार वह रथ सबके लिए अजय था, सूर्य के समान देदीप्यमान और रत्नजटित था। उसमें मन और पवन के समान तेज चलने वाले सफेद, चमकीले, हार पहने हुए गंधर्व देश के घोड़े जुते हुए थे। रथ पर सुवर्ण के डंडे में भयंकर वानर के चिन्ह से चिन्हित ध्वजा फहरा रही थी।
    दुर्योधन ने एक बार संजय से अर्जुन के रथ आदि के संबंध में पूछते हुए ( उद्योगपर्व, 56/6 ) कहा था-
प्रशंसस्यभिनन्दंस्तान् पार्थानक्षपराजितान्।
अर्जुनस्य रथे ब्रू हि कथमश्वाः कथं ध्वजाः।।
    -'संजय! तुम तो जुए में हारे हुए कुंती पुत्रों का अभिनंदन करते हुए उनकी बड़ी प्रशंसा करने लगे। बताओ तो सही, अर्जुन के रथ में कैसे घोड़े और कैसे ध्वज हैं?'
      तब संजय ने उत्तर देते हुए दुर्योधन से कहा था "राजन्! दशरथ की ध्वजा में देवताओं ने माया से अनेक प्रकार की छोटी बड़ी दिव्य और बहुमूल्य मूर्तियां बनाई है। पवन नंदन हनुमान जी ने उसपर अपनी मूर्ति स्थापित की है और वह ध्वजा सब और एक योजन तक फैली हुई है। विधाता की ऐसी माया है कि वृक्ष आदि के कारण भी उसकी गति में कोई बाधा नहीं आती। अर्जुन के रथ में चित्ररथ गन्धर्व के दिए हुए वायु के समान वेग वाले सफेद रंग के उत्तम जाति के घोड़े जुते हुए हैं। उनकी गति पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग आदि किसी भी स्थान में नहीं रुकती तथा उनमें से यदि कोई मर जाता है, तो वर के प्रभाव से उसकी जगह नया घोड़ा उत्पन्न होकर उसकी सौ की संख्या में कभी कमी नहीं आती।"
     ऐसे दिव्य रथ में बैठ श्रीकृष्ण और अर्जुन ने दिव्य शंख फूंके। भगवान कृष्ण ने 'पाञ्चजन्य' नामक शंख बजाया। इस शंख के संबंध में कहा गया है कि वह श्वेत वर्ण का है, वह शत्रुओं के रोंगटे खड़े कर देता है। इस शंख की ध्वनि ने समुद्र को विच्छेद कर दिया था -'तस्य शंखस्य शब्देन सागरश्चुक्षुभे भृशम्'। वैसे 'पाञ्चजन्य' शब्द का अर्थ होता है 'पांच का हित करने वाला'। या तो कहें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और वर्णसंकरों का प्रतिनिधि निषाद -इन पांचों प्रकार के मनुष्यों का हित करने वाला, या कहें कि देवता, पितर, ऋषि, गंधर्व और असुर इन पांचों प्रकार की देवयोनियों का हित करने वाला, या फिर कह लें कि पांचों पांडवों का हित करने वाला।
देवदत्त नामक संघ की प्राप्ति की कथा
      धनंजय ने देवदत्त फूंका। यहां अर्जुन के लिए धनंजय शब्द का उपयोग हुआ है। स्वयं अर्जुन अपने इस नाम की व्याख्या राजकुमार उत्तर के समक्ष करते हुए कहते हैं ( विराटपर्व, 44/13 )-
सर्वांजनपदान् जित्वा वित्तमादाय केवलम्।
मध्ये धनस्य तिष्ठामि तेनाहुर्मां धनंजयम्।।
     -'मैं संपूर्ण देशों को जीतकर और उनसे (कर-रूप में) केवल धन लेकर धन के ही बीच में स्थित था, इसलिए लोग मुझे "धनंजय" कहते हैं।'
     अर्जुन को यह देवदत्त नामक शंख मय दानव से प्राप्त हुआ था। जब श्री कृष्ण और अर्जुन की सहायता से अग्नि देवता ने खांडव वन का दाह किया, तब मय दानव अपने प्राण बचाकर भागा। श्रीकृष्ण ने उस पर अपना चक्र छोड़ा। तब मय अर्जुन की शरण में आ गया और इस प्रकार उसके प्राणों की रक्षा हुई। उसने कृतज्ञता पूर्वक बाद में अर्जुन को यह 'देवदत्त' नामक शंख भेंट में दिया था। इस शंख की गंभीर ध्वनि से तीनों लोग कांप उठते थे। मयासुर इस शंख के संबंध में अर्जुन से कहता है ( सभापर्व, 3/8 )-
'वारुणश्च महाशंखो देवदत्तः सुघोषवान।'
      -'वहां वरुण देव का देवदत्त नामक महान शंख भी है, जो बड़ी भारी आवाज करना वाला है।'
      फिर महाभारत में ही वनपर्व में (174/5) यह भी मिलता है कि अर्जुन युधिष्ठिर को देवदत्त शंख की प्राप्त की बात बतते हुए कहते हैं-
'देवदत्तं च मे शंखं पुनः प्रादान् महाव्रतम्।'
     -'फिर देवेश्वर इंद्र ने बड़े जोर की आवाज करने वाला यह देवदत्त नामक शंख मुझे प्रदान किया।' अब यह निश्चय करना कठिन है कि अर्जुन ने यह देवदत्त इंद्र से प्राप्त किया या मय दानव से। देवदत्त शंख के संबंध में हमें महाभारत में ही कुछ और विवरण प्राप्त होते हैं। विराटपर्व में यह प्रसंग आता है, जब अर्जुन बृहन्नला के रूप में राजकुमार उत्तर को साथ लेकर कौरवों द्वारा हरे गए पशुओं को छुड़ाने के लिए जाते हैं। वहां अर्जुन उत्तर को अपना असली परिचय देते हैं और बाद में अपने देवदत्त शंख को फूंकते हैं ( विराटपर्व, 46/8-9 )-
स्वनवन्तं महाशंखं बलवानरिमर्दनः।
प्राधमद् बलमास्थाय द्विषतां लोमहर्षणम्।।
ततस्ते जवना धुर्या जानुभ्यामगमन्महीम्।
उत्तरश्चापि संत्रस्तो रथोपस्थ उपाविशत्।।
     -'उस समय शत्रुमर्दन महाबली अर्जुन ने घोर शब्द करने वाले अपने महान शंख को खूब जोर लगाकर बजाया, जिसकी आवाज सुनकर शत्रुओं के रोंगटे खड़े हो गए। उस शंख ध्वनि से घबराकर रथ के वेग साली घोड़ों ने भी धरती पर घुटने टेक दिए और उत्तर भी अत्यंत भयभीत हो रथ के ऊपरी भाग में जहां रथी का स्थान है, आ बैठा।'
      उत्तर को घबराया देख अर्जुन उससे पूछते हैं, "तुमने तो बहुत बार शंख ध्वनि सुनी होगी। रणभेरियों के भयंकर शब्द भी बहुत बार तुम्हारे कानों में पड़े होंगे और व्यूहबद्ध सेनाओं में खड़े हुए चिग्घाडने वाले गजराजों के शब्द भी तुमने सुने ही होंगे। फिर यहां इस शंखनाद से तुम भयभीत कैसे हो गए? साधारण मनुष्यों के समान अधिक डर जाने के कारण तुम्हारे शरीर का रंग फीका कैसे पड़ गया?" इस पर उत्तर ने कहा "वीरवर! इसमें संदेह नहीं है कि मैंने बहुत बार शंख ध्वनि सुनी है, रणभेरियों के भयंकर शब्द भी बहुत बार मेरे कानों में पड़े हैं और व्यूहबद्ध सेनाओं में खड़े हुए चिग्घाडने वाले गजराजों के शब्द भी मैंने सुने हैं। परंतु आज के पहले कभी ऐसा भयंकर शंखनाद मेरे सुनने में नहीं आया था!"
     स्वयं अर्जुन संजय को दुर्योधन के लिए संदेशा देते हुए कहते हैं ( उद्योगपर्व, 48/64 )-
यदा रथे गाण्डीवं वासुदेवं
दिव्यं शंखं पाञ्चजन्यं हयांश्च।
तूणावक्षय्यौ देवदत्तं च मां च
द्रष्टा युद्धे धार्तराष्ट्रोऽन्वतप्स्यत्।।
      -'जब धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन रथ पर मेरे गांडीव धनुष को, सारथी भगवान श्रीकृष्ण को, उनके दिव्य पाञ्चजन्य शंख को, रथ में जुते हुए दिव्य घोड़ों को, बाणों से भरे हुए दो अक्षय तूणीरों को, मेरे देवदत्त नामक शंख को और मुझको भी देखेगा, उस समय युद्ध का परिणाम सोच कर उसे बड़ा संताप होगा।'
     'अनंतविजय' वरुण देवता का कलशोदधि शंख था, जिसे ब्रह्मा ने इंद्र को दिया था, वरुण से वह कृष्ण के पास आया और कृष्ण ने उसे युधिष्ठिर को राज्याभिषेक के समय भेंट में दिया। यह वर्णन हमें सभापर्व में प्राप्त होता है, जहां दुर्योधन धृतराष्ट्र के को राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर को मिली नाना प्रकार के बहुमूल्य भेटों की जानकारी देता है।
      यहां शंख बजाने का क्रम भी दर्शनीय है। भगवान श्रीकृष्ण सर्वप्रथम शंखनाद करते हैं और इससे मानो यह सूचित करते हैं कि वे ही पांडवों के सेनानायक हैं। भीम युद्ध के लिए अत्यंत उत्सुक हैं और पांडवों में से उन्हीं को प्रथम शंखनाद करना था। वैसे भी, महाभारत में कौरव और पांडव पक्ष की सेनाएं क्रमशः 'भीष्मनेत्र' और 'भीमनेत्र' के नाम से पुकारी भी गई है। कौरवों की ओर से जब प्रथम शंख भीष्म ने फूंका, तो इधर पांडवों की ओर से भीम को फूंकना था। पर भीम के पहले अर्जुन शंख फूंक देते हैं और भीम यही चाहते भी हैं। भीम जानते हैं कि अर्जुन इस युद्ध को उतना नहीं चाहते। अतएव कहीं अर्जुन अपने पैर पीछे न कर दें, इस डर से उनके द्वारा ही युद्ध का बिगुल बजवाना उन्होंने पसंद किया। युधिष्ठिर सब भाइयों में बड़े थे, अतः उन्हीं को सर्वप्रथम शंख फूंकना था। पर वे शांतिप्रिय हैं और उनमें संग्राम की इच्छा नहीं के बराबर है। पर जब दो भाइयों ने बिगुल बजा दिया, तो वे भी मानो लाचार होकर बजाते हैं।
    यहां पांडवों के शंखों के नाम देकर विशेषता स्थापित कर दी। कौरव पक्ष के किसी भी शंख का नामोल्लेख नहीं है। फिर पांडवों की ओर के शंखों के नाम पांडवों की विजय ही सूचित करते हैं।

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