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#गीता |
अर्जुन के मन में हार का भय
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।। (6)
नः - हम लोगों के लिये ( युद्ध करना और न करना-इन )
कतरत् - दोनों में से कौन सा
गरीयः - अत्यन्त श्रेष्ठ है
यत्, वा - अथवा ( हम उन्हें )
न, जिजीविषामः - जीना भी नहीं चाहते,
धार्तराष्ट्राः - धृतराष्ट्र के सम्बन्धी
प्रमुखे - ( हमारे ) सामने
"फिर हम यह भी तो नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना श्रेयस्कर होगा। ( पता नहीं इस युद्ध में ) हम जीतेंगे या हमें वे जीत लेंगे। अहो! जिन्हें मार कर हम जीना नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।"
यहां पर अर्जुन अपने मन की डांवाडोल स्थिति को कुछ-कुछ स्वीकार करता है। वह कहता है कि मेरी बुद्धि निश्चय नहीं कर पा रही है कि क्या करना मेरे लिए उचित होगा। अभी उसने पूरीतरह आत्मसमर्पण नहीं किया है। उसे अभी भी अपनी बुद्धि का भरोसा है। पर यहां पर उससे अनजाने उसके अंतर में छिपा हार का भय प्रकट हो जाता है। ऊपर हमने कहा था कि अर्जुन के मन में दो प्रकार का भय है एक तो गुरुजनों को मारने से उत्पन्न होने वाले पाप का भय, जिस पर चर्चा कर चुके हैं, और दूसरा, हार का भय। वह कहता है कि पता नहीं, हम जीतेंगे या वे जीतेंगेे। यहीं पर हार का भय झलकता है। अब तक तो रोग के यह कारण दिखाई ही नहीं पड रहे थे। पर जब भगवान कृष्ण ने कड़े शब्दों में अर्जुन का तिरस्कार किया, उसे धिक्कारा, तो उसके रोग को जन्म देने वाले यह छिपे हुए कारण धीरे से प्रकट होते हैं। उत्तम वैद्य वह है, जो रोग को जड़ से खत्म कर देता है। पर जब तक जड़ ही पकड़ में न आए, उसे नष्ट कैसे किया जा सकता है? भगवान कृष्ण रोग की जड़ को पकड़ना जानते हैं। वह अर्जुन को अपने रोग का भान करा देते हैं। मानो अर्जुन से कहते हैं "अर्जुन! देख, तेरी करुणा और दया की आड़ में कायरता छिपी है, पाप और हार का भय छिपा है। अपने इस रोग को पकड़। अपने दोस्त पर गुण का मुलम्मा मत चढ़ा। दोष को दोष के ही रूप में देख। तूने धृतराष्ट्र के पुत्रों को कब इतना प्यार किया था कि उनके बिना जीना तू दूभर मान रहा है? जब से जानने समझने लायक हुए हो तभी से तो धृतराष्ट्र के पुत्रों से तुम्हारी बनी नहीं। अभी 13 वर्ष तो उनसे लुक छुप कर अपने प्राणों की रक्षा करते हुए वन वन भटकते ही फिरे; उसके पहले भी लाक्षागृह में तुम लोगों को जीवित जला देने की योजना बनाई गई थी। और यह सब समझते हुए भी आज जाने कैसे तुम्हारे हृदय में उनके लिए प्यार का ऐसा दरिया उमड़ रहा है कि कहते हो उनके बिना हम जीवित नहीं रहना चाहते! अर्जुन! टटोलो, अपने मन को अच्छी तरह टटोलो। तुम क्यों अपने को ऐसा छल रहे हो?"
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