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गीताध्याय -1, उपसंहार

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#गीता


     ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोध्यायः।।1।।

       इस प्रकार ऊँ, तत्, सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारण पूर्वक ब्रह्म विद्या और योगशास्त्र मय श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद रूपी श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद नेह 'अर्जुनविषादयोग' नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ।।1।।

      प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर महर्षि वेदव्यास जी ने जो उपर्युक्त पुष्पिका लिखी है, इसमें श्रीमद्भगवद्गीता का विशेष माहात्म्य और प्रभाव ही प्रकट किया गया है।
     'ऊँ, तत्, सत्, -ये तीनों सच्चिदानंदघन परमात्मा के पवित्र नाम हैं। यह मात्र जीवों का कल्याण करने वाले हैं। इनका उच्चारण परमात्मा के सम्मुख करता है और शास्त्र विहित कर्तव्य कर्मों के अंग वैगुण्य को मिटाता है। अतः गीता के अध्याय का पाठ करने में श्लोक, पद और अक्षरों के उच्चारण में जो जो भूलें हुई है, उनका परिमार्जन करने के लिए और संसार से संबंध विच्छेद पूर्वक भगवत् संबंध की याद आने के लिए प्रत्येक अध्याय के अंत में 'ऊँ तत्सत्' का उच्चारण किया गया है।
     महर्षि वेदव्यास जी के द्वारा अध्याय के अंत में 'ऊँ' के उच्चारण का तात्पर्य है कि मेरी रचना का अंग वैगुण्य मिट जाय, 'तत्' के उच्चारण का तात्पर्य है कि मेरी रचना भगवत्पीत्यर्थ हो जाए और 'सत्' के उच्चारण का तात्पर्य है कि मेरी रचना सत् अर्थात अविनाशी फल देने वाली हो जाए। 'इति' - बस, मेरा यही प्रयोजन है। इसके सिवाय मेरा व्यक्तिगत और कोई प्रयोजन नहीं है।
     जो 'श्रीमत्' अर्थात सर्वशोभासम्पन्न है और जिनमें संपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य -ये छः 'भग' नित्य विद्यमान रहते हैं, उन भगवान् के मुख से निकली हुई होने के कारण इसको 'श्रीमत् भगवत्' कहा गया है।
    जब मनुष्य मस्ती में, आनंद में होता है, तब उसके मुख से स्वतः गीत निकलता है। भगवान् ने इसको मस्ती में आकर गया है, इसलिए इसका नाम 'गीता' है। यद्यपि संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार इसका नाम 'गीतम्' होना चाहिए था, तथापि उपनिषद स्वरूप होने से स्त्रीलिंग शब्द 'गीता' का प्रयोग किया गया है।
    इसमें संपूर्ण उपनिषदों का सारतत्व संग्रहित है और यह स्वयं भी भगवद्वाणी होने से उपनिषद स्वरूप है, इसलिए इसे 'उपनिषद्' कहा गया है।
      वर्ण, आश्रम, संप्रदाय आदि का आग्रह न रखकर प्राणी मात्र का कल्याण करने वाली सर्वश्रेष्ठ विद्या होने के कारण इसका नाम 'ब्रह्मविद्या' है। इस ब्रह्मविद्या स्वरूप गीता में कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि योग साधनों की शिक्षा दी गई है, जिससे साधकों को परमात्मा के साथ अपने नित्य संबंध का अनुभव हो जाए। इसलिए इसे 'योगशास्त्र' कहा गया है।
     यहां साक्षात पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और भक्तप्रवर अर्जुन का संवाद है। अर्जुन ने निःसंकोच भाव से बातें पूछी है और भगवान् ने उदारता पूर्वक उनका उत्तर दिया है। इन दोनों के ही भाव इसमें हैं। अतः इन दोनों के नाम से इस गीता शास्त्र की विशेष महिमा होने के कारण इसे 'श्रीकृष्णार्जुनसंवाद' नाम से कहा गया है।
    इस पहले अध्याय में अर्जुन के विषाद का वर्णन है। यह विषाद भी भगवान् अथवा संतों का संग मिल जाने पर संसार से वैराग्य उत्पन्न करके कल्याण करने वाला हो जाता है। यद्यपि दुर्योधन आदि को भी विषाद हुआ है, तथापि उनमें भगवान, से विमुखता होने के कारण उनका विषाद 'योग' नहीं हुआ। केवल अर्जुन का विषाद ही भगवान् की सम्मुखता होने के कारण 'योग' अर्थात् भगवान् के नित्य संबंध का अनुभव कराने वाला हो गया। इसलिए इस अध्याय का नाम 'अर्जुनविषादयोग' रखा गया है।
     प्रत्येक अध्याय के अंत में पुष्टिका देने का तात्पर्य है कि अगर साधक 1 अध्याय का भी ठीक तरह से मनन विचार करे, तो उस एक ही अध्याय से उसका कल्याण हो जाएगा।
परिशिष्ट भाव 
     गीता की पुष्पिका में 'ब्रह्मविद्यायाम्', 'योगशास्त्रे' और 'श्रीकृष्णार्जुनसंवादे' -ये 3 पद तो एकवचन में आए हैं, पर 'श्रीमद्भगवद्गीतासु' और 'उपनिषत्सु' -ये दो पद बहुवचन में आए हैं। इनका तात्पर्य है की भगवद्वाणी संपूर्ण उपनिषदों में श्रीमद्भगवद्गीता भी एक उपनिषद है, जिसमें 'ब्रह्मविद्या' (ज्ञानयोग), 'योगशास्त्र' (कर्मयोग) और 'श्रीकृष्णार्जुनसंवाद' (भक्तियोग) तीनों आए हैं।
     गीता में 'श्रीकृष्णार्जुनसंवाद' का आरंभ और अंत भक्ति में ही हुआ है। आरंभ में अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ होकर भगवान् के शरण होते हैं। 'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्' और अंत में भगवान के द्वारा 'मामेकं शरणं व्रज' पदों से पूर्ण शरणागति की प्रेरणा करने पर अर्जुन पूर्णतया शरणागत हो जाते हैं। -'करिष्ये वचनं तव'। अर्जुन ने अपने श्रेय (कल्याण) का उपाय पूछा था, इसलिए भगवान् ने गीता में 'ज्ञानयोग' और 'कर्मयोग' का भी वर्णन किया है।
पहले अध्याय के पद, अक्षर और वाक्य
    1- इस अध्याय में 'अथ प्रथमोऽध्यायः' के 3, 'धृतराष्ट्र उवाच' 'संजय उवाच' आदि पदों के 12, श्लोकों के 558 और पुष्पिका के 13 पद हैं। इस प्रकार संपूर्ण पदों का योग 586 है।
     2- इस अध्याय में 'अथ प्रथमोऽध्यायः' के सात, 'धृतराष्ट्र उवाच' 'संजय उवाच' आदि पदों के 37, श्लोकों के 1504 और पुष्पिका के 48 अक्षर हैं। इस प्रकार संपूर्ण अक्षरों का योग 1596 है। इस अध्याय के सभी श्लोक 32 अक्षरों के हैं।
    3- इस अध्याय में छः 'उवाच' हैं -एक 'धृतराष्ट्र उवाच', 3 'संजय उवाच' और दो 'अर्जुन उवाच'।
पहले अध्याय में प्रयुक्त छंद
     इस अध्याय के 47 श्लोकों में से -5 वें और 33 वें श्लोक के प्रथम चरणों में तथा 43 वें श्लोक के तृतीय चरण में 'रगण' प्रयुक्त होने से 'र-विपुला'; और 25 वें श्लोक के प्रथम चरण में तथा नवें श्लोक के तृतीय चरण में 'नगण' प्रयुक्त होने से 'न-विपुला' संज्ञा वाले छंद हैं। शेष 42 श्लोक ठीक 'पथ्यावक्त्र' वक्त अनुष्टुप छंद के लक्षणों से युक्त हैं।

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