सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गीताध्याय -1, श्लोक -42,43,44

geeta ke 1, aur 2 ke shloko ki vyakhya evam arth ki jankari B.A. 1, 2, 3, year pro. rajendra singh (rajju bhaiya)university, prayagraj (allahabad)uttar pradesh ke vishay ke anusar ...... geeta,shrikrishn,गीता,भीष्म पितामह,श्रीकृष्ण,युधिष्ठिर,arjun गीता भीष्म पितामह श्रीकृष्ण shrikrishn युधिष्ठिर अर्जुन अभिमन्यु को किसने मारा था वैदिक धर्म महाभारत महाभारत युद्ध धर्म महाभारत का युद्ध geeta gyan ज्ञान की बातें gita darshan rajalakshmee sanjay govinda namalu अर्जुन भीष्म युद्ध mahabharat yuddh कृष्ण bhisham pitamah marg mahabharat गोवर्धन पूजन 2020  पुत्र प्राप्ति के लिए हमें क्या करना चाहिए mahabharat arjun ka yudh
#geeta

वर्णसंकरता से पितरों का पतन


संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।। (42)

संकरः - वर्णसंकर
कुलघ्नानां - कुलघातियों को
च - और
कुलस्य - कुल को
नरकाय - नरक में ले जाने वाला
एव - ही ( होता है )
लुप्तपिण्डोदकक्रियाः - श्राद्ध और तर्पण न मिलने से
एषाम् - इन ( कुलघातियों ) के
पितरः - पितर
हि - भी ( अपने स्थान से )
पतन्ति - गिर जाते हैं।

   अर्जुन के अनुसार कुलक्षय का पांचवा दोष यह है कि वर्णसंकर संतानों के कारण पिंड तर्पण आदि क्रियाएं लुप्त हो जाती हैं, जिससे पितर पतित हो जाते हैं, अर्थात पितृलोक से च्युत हो जाते हैं। और कुलक्षय का छठा दोष यह है कि कुल के सारे लोग इन उपर्युक्त कारणों से नरकगामी बन जाते हैं। तात्पर्य यह कि पिण्डोदक न मिलने से पितरगण स्वर्ग से गिरकर नरक में चले जाते हैं और जो लोग कुलनाश के कारण हैं, वे भी पिण्डोदक से वंचित हो जाने के कारण नरकगामी ही हो जाते हैं।
     प्रश्न उठता है कि पिंड तर्पण आदि क्रियाओं के अभाव में मनुष्य को नरक जाना पड़े यह कैसे संभव है? क्या इसकी कोई वैज्ञानिक व्याख्या है? इसका उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें श्राद्ध विज्ञान की मीमांसा करनी पड़ेगी। किंतु इस पर विशेष चर्चा तो आगे के अध्यायों में होगी। जहां पर मृत्यु के उपरांत जीव की गति पर विचार किया गया है। यहां केवल मोटे तौर पर यह देख लें कि पितर पूजा का रहस्य क्या है।
     बहुत से विद्वान पितर पूजा से ही धर्म का आविर्भाव मानते हैं। मनुष्य अपने दिवंगत संबंधियों की स्मृति सजीव रखना चाहता है। और सोचता है कि यद्यपि उसके शरीर नष्ट हो चुके हैं, फिर भी वह जीवित हैं। इसी विश्वास पर वह उनके लिए खाद्यान्न पदार्थ रखना चाहता है और इस प्रकार एक अर्थ में उनकी पूजा करना चाहता है। मनुष्य की इसी भावना से धर्म का विकास हुआ। स्वामी विवेकानंद लंदन में दिए गए 'धर्म की आवश्यकता' नामक अपने व्याख्यान में कहते हैं-
      "मिस्र, बेबीलोन, चीन तथा अमेरिका आदि के प्राचीन धर्मों के अध्ययन से ऐसे स्पष्ट चिन्हों का पता चलता है, जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि पितर पूजा से ही धर्म का आविर्भाव हुआ है। प्राचीन मिस्र वासियों की आत्मा संबंधी धारणा द्वित्वमूलक थी। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव शरीर के भीतर एक और जीव रहता है, जो शरीर के ही समरूप होता है और मनुष्य के मर जाने पर भी उसका यह प्रतिरूप शरीर जीवित रहता है। किंतु यह प्रतिरूप शरीर तभी तक जीवित रहता है, जब तक मृत शरीर सुरक्षित रहता है। इसी कारण से हम मिश्र वासियों में मृत शरीर को सुरक्षित रखने की प्रथा पाते हैं और इसी के लिए उन्होंने विशाल पिरामिडों का निर्माण किया, जिसमें मृत शरीर को सुरक्षित रखा जा सके। उनकी धारणा थी कि अगर इस शरीर को किसी तरह से क्षति पहुंचाने पहुंची, तो उस प्रतिरूप शरीर को ठीक वैसी ही क्षति पहुंचेगी। यह स्पष्टतः पितर पूजा है। बेबीलोन के प्राचीन निवासियों में भी प्रतिरूप शरीर की ऐसी ही धारणा देखने को मिलती है, यद्यपि वे कुछ अंश में इससे भिन्न है। वे मानते हैं कि प्रतिरूप शरीर में स्नेह का भाव नहीं रह जाता। उसकी प्रेतात्मा भोजन और पेय तथा अन्य सहायताओं के लिए जीवित लोगों को आतंकित करती है। अपने बच्चों तथा पत्नी तक के लिए उसने कोई प्रेम नहीं रहता। प्राचीन हिंदुओं में भी इस पितर पूजा के उदाहरण देखने को मिलते हैं। चीन वालों के संबंध में भी ऐसा ही कहा जा सकता है कि उनके धर्म का आधार पितर पूजा ही है और यह अब भी समस्त देश के कोने कोने में परिव्याप्त है। वस्तुतः चीन में यदि कोई धर्म प्रचलित माना जा सकता है, तो केवल यही है। इस तरह ऐसा प्रतीत होता है कि धर्मों को पितर पूजा से विकसित मानने वालों का आधार काफी सुदृढ़ है।"

पिंड तर्पण का मनोविज्ञान

     तात्पर्य यह हुआ कि संसार में प्रायः सभी प्राचीन धर्म पितर पूजा को किसी ना किसी रूप में मान्यता प्रदान करते रहे हैं। हिंदू धर्म तो विशेष रूप से इसमें आस्था रखता है और वर्षों में एक पखवाड़ा उसने 'पितृपक्ष' के रूप में नियत कर रखा है। पिंड तर्पण आदि के पक्ष में इतना ही कह सकते हैं कि मनुष्य की भावना संक्रमणशील होती है, इसलिए यदि मैं किसी के कल्याण हेतु शुभ विचार प्रेरित करूं तो उन विचारों का प्रभाव उस व्यक्ति पर पड़ता है। जब मनुष्य मर जाता है, तो सूक्ष्म शरीर में विद्यमान रहता है। ऐसे सूक्ष्म शरीर पर हमारे विचारों का प्रभाव और भी अधिक पड़ता है। पिंड तर्पण आदि का तात्पर्य है कि हम दिवंगत आत्मा की तुष्टि के लिए मानो तीव्र कामना करते हैं। पिंड और जल प्रतीक है। मृतात्मा इस पिण्ड और जल का ग्रहण नहीं करता। यह प्रतीक तो हमारी भावना को तीव्र बनाने के लिए हैं। मंत्रोचार भावना को तीव्र बनाने में सहायक होता है। पिण्डोदक दान में एक प्रथा और है -सच्चरित्र ब्राह्मणों को भोजन से तृप्त करना। इसका आशय यह था कि शुद्ध हृदय, निष्पाप ब्राह्मण, जब भोजन में आते हैं, तो वे अपने भीतर उन पितरो का आवेश मानकर आते हैं, जिनका श्राद्ध किया जा रहा है। वे भोजन पानादि के समय यह कल्पना करते हैं कि उनमें आविष्ट यजमान के पितृगण उनके माध्यम से तृप्त हो रहे हैं। मृतात्मा सूक्ष्म शरीर में रहने के कारण स्थूल भोजन पानादि का ग्रहण नहीं कर सकता, वह किसी स्थूल शरीर के माध्यम से वह सब ग्रहण कर परितुष्ट होना चाहता है, यह सिद्धांत तो हम सब जानते ही हैं। इसीलिए कभी-कभी हमें सुनाई पड़ता है कि अमुक अमुक पर भूत चढ़ा है। ऐसी घटना उपर्युक्त सिद्धांत की ही द्योतक है। स्मृति ग्रंथों में एक श्लोक प्राप्त होता है-

निमंत्रितान् हि पितर उपतिष्ठन्ति तान् द्विजान्।
वायुवच्चानुगच्छन्ति तथासीनानुपासते।।

     -'जिन ब्राह्मणों को श्राद्ध के पूर्व दिन निमंत्रित किया जाता है, उन ब्राह्मणों के शरीर में वे पितर लोग आकर निवास कर लेते हैं और वायु के समान उनके साथ विचरते रहते हैं, वे जहां बैठे, पितर गण भी वहीं बैठ जाते हैं।' यही कारण है कि निमंत्रण प्राप्त होते ही ब्राह्मणों को विशेष नियम से रहने का विधान शास्त्रों में किया गया है और उनसे यह अपेक्षा की गई है कि वे ऐसा मानकर व्यवहार करें कि उनमें पितरों का आवेश है।
     इस संदर्भ में बाल्मीकि रामायण का एक प्रसंग उल्लेखनीय है। श्रीरामचंद्र जी को चित्रकूट में भरत जी से अपने पिता के देहावसान का समाचार मिलता है। जब वह मरण तिथि उपस्थित हुई, तो श्रीरामचंद्र जी बन में ही श्राद्ध का आयोजन करते हैं। जो कुछ बन में उपलब्ध है, उसी से सीता जी भोजन तैयार करती हैं। जब समय पर वनवासी ब्राह्मण भोजन के लिए आते हैं, तो सीता जी दौड़कर कहीं छुप जाती हैं। श्राद्ध का समय निकलता देख श्रीराम जी लक्ष्मण जी के साथ मिलकर आगंतुक मुनियों को भोजन कराते हैं और पिंडदान आदि संपन्न करते हैं। ब्राह्मणों के चले जाने पर सीता जी वन कुंज से निकलकर आती हैं। श्रीराम उनसे पूछते हैं-

किमर्थं सुभ्रु नष्टासि मुनीन् दृष्ट्वा समागतान्।

     -'हे सुंदर भ्रू वाली जानकी! मुनियों को आते देख तुम छुप क्यों गयीं?' बन में तो मुनियों से पर्दा करने का कोई प्रयोजन नहीं। इस पर सीता जी उत्तर देती है-

पिता तव मया दृष्टो ब्राह्मणांगेषु राघव।

     -'हे राघव! मैंने ब्राह्मणों के शरीर में आपके पिताश्री को देखा।' सीता जी आगे कहती हैं कि जिन महाराज दशरथ ने मुझे सदैव वस्त्र आभूषणों से सजी देखा है, यदि वह मेरा यह वन्य वेशभूषा वाला रूप देखते, तो उन्हें कितना दुःख न होता! फिर, जो भोजन राजाओं के दासों के दास भी नहीं खाते, उसे मैं उनके सामने कैसे परोसती? यही विचार कर मैं छुप गई थी।
      तात्पर्य यह की पिण्डोदक आदि कर्म प्राचीन काल से भारत में प्रचलित है। इसमें भावना की ही महत्ता है। किसी किसी स्थान विशेष को श्राद्ध कर्म आदि के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। इसका मतलब यही है कि उन स्थानों में जाने से श्राद्ध कर्ता की भावना अधिक तीव्र हो जाती है। जैसे मंदिर में जाने से हमारी धर्म भावना तीव्र होती है वैसे ही स्थान विशेष अपने से संबंधित भावना को तीव्र करने में सहायक होते हैं। पितृपक्ष के रूप में पिण्डोदक आदि क्रियाओं के लिए जो एक विशेष अवधि निर्धारित की गई है, उसका भी तात्पर्य इस भावना को तीव्र करने में ही है। जैसे, पूजा का यदि एक नियत समय है, तो उसमें मन पूजा की और अपने आप उन्मुख होने लगता है। पर आजकल अन्य क्षेत्रों के समान इस क्षेत्र में भी गिरावट हो गई है। भावना को तीव्र करने के साधन आज वस्तुतः शोषण के साधन बन गए हैं। न तो वैसे शुद्ध आचरण संपन्न ब्राह्मण मिलते हैं, न ही श्राद्ध कर्ताओं में वैसी तीव्र भावना होती है।
     एक भाई ने एक प्रसिद्ध संत से पूछा, "क्या हम बिना किसी पुरोहित की सहायता लिए घर में श्राद्ध कर्म संपन्न कर सकते हैं? ऐसा करें तो क्या पितर लोग तृप्त होंगे?" उन्होंने कहा, "क्यों नहीं, अवश्य कर सकते हो। प्रश्न तो भावना का है। एकाग्रचित्त से पितरों की तुष्टि की कामना करो, उसी से उनकी तृप्ति होगी। कहीं जाने की या किसी पंडित रोहित को बुलाने की जरूरत नहीं।"
    यहां एक प्रश्न और उठ सकता है। यदि किसी के प्रति शुभ की भावना तीव्र करने से उसे उसका लाभ मिल सकता है, तो यदि अशुभ की भावना तीव्र की गई तब तो उसकी हानि होनी चाहिए? इसके उत्तर में वक्तव्य यह है कि तर्क की दृष्टि से यह बात ठीक तो मालूम पड़ती है, पर व्यवहार में कुछ भिन्न हुआ करता है। जब हम शुभ की भावना प्रेरित करते हैं, तो हमारा चित्त शांत हो जाता है। शांत चित्त से प्रेरित किए गए विचार अधिक तीव्र और गहराई तक भेदन करने वाले होते हैं। इससे विपरीत जब हम मन में किसी के प्रतिशोध की भावना उठाते हैं, तो मन चंचल हो जाता है, और क्षुब्ध एवं चंचल मन से प्रेरित किए गए विचारों में भोथरापन होता है। ऐसे विचारों का अधिक प्रभाव नहीं पड़ा करता है।
     उपर्युक्त मीमांसा का निष्कर्ष यह है कि पिंड तर्पण आदि क्रियाएं भावना प्रधान हैं। इन क्रियाओं से भावना तीव्र होती है और जिनके प्रति भावना की जाती है, उन्हें उसका लाभ मिलता है। पर ऐसा सोचना कि इन क्रियाओं के अभाव में मनुष्य नरक गामी होता है, कुछ अतिशयोक्ति पूर्ण मालूम पड़ता है। साथ ही, ऐसा भी विचार रखना कि दुष्कर्म के फल से मृत्यु के उपरांत नरक को प्राप्त होने वाला व्यक्ति पिंड तर्पण आदि के द्वारा नरक से छुटकारा पा जाएगा, अत्यंत भ्रांति पूर्ण है। अर्जुन को परंपरा से जो ज्ञात हुआ था, उसे वहां भगवान् श्रीकृष्ण के समक्ष कह देता है। अगले 2 श्लोकों में वह अपनी इसी बात को दुहराता है। जिस बात पर हम जोर देना चाहते हैं, उसे दोहरा दिया करते हैं। अर्जुन भी जोर देता हुआ कहता है-

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।। (43)

एतैः - इन
वर्णसङ्करकारकैः - वर्णसंकर पैदा करने वाले
दोषैः - दोषों से
कुलघ्नानाम् - कुलघातियों के
शाश्वताः - सदा से चलते आये
कुलधर्माः - कुलधर्म
च - और
जातिधर्माः - जाति धर्म
उत्साद्यन्ते - नष्ट हो जाते हैं।

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।। (44)

जनार्दन - हे जनार्दन!
उत्सन्नकुलधर्माणाम् - जिनके कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं,
मनुष्याणाम् - ( उन ) मनुष्यों का
अनियतम् - बहुत काल तक
नरके - नरकों में
वासः - वास
भवति - होता है,
इति - ऐसा ( हम )
अनुशुश्रुम - सुनते आये हैं।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

लघुसिद्धान्तकौमुदी संज्ञा प्रकरण

लघुसिद्धान्तकौमुदी || श्रीगणेशाय नमः || लघुसिद्धान्तकौमुदी नत्त्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् | पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् |      लघुसिद्धांतकौमुदी के प्रारंभ में कौमुदी कर्ता वरदराजाचार्य ने नत्वा सरस्वतीं देवीम् इस श्लोक से मंगलाचरण किया है | मंगलाचरण के तीन प्रयोजन है - 1- प्रारंभ किए जाने वाले कार्य में विघ्न ना आए अर्थात् विघ्नों का नाश हो , 2- ग्रंथ पूर्ण हो जाए अौर , 3- रचित ग्रंथ का प्रचार - प्रसार हो।

लघुसिद्धान्तकौमुदी पदसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

14-  सुप्तिङन्तं पदम्  1|4|14|| पदसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 14- सुप्तिङन्तं पदम् 1|4|14|| सुबन्तं तिङन्तं च पदसंज्ञं स्यात् | इति संञ्ज्ञाप्रकरणम् ||1||      सुबन्त और तिङन्त पद संज्ञक होते हैं।

लघुसिद्धान्तकौमुदी उदात्त, अनुदात्त, स्वरितसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी उदात्तसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 6- उच्चैरुदात्तः 1|2|29|| अनुदात्तसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 7- नीचैरनुदात्तः 1|2|30|| स्वरितसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 8- समाहारः स्वरितः 1|2|31|| स नवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकत्वाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा |