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भीष्म की रक्षा की चिंता क्यों
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्वे एव हि।।
च - दुर्योधन बाह्य दृष्टि से अपनी सेना के महारथियों से बोला-
भवन्तः - आप
सर्वे, एव - सब-के-सब लोग
सर्वेषु - सभी
अयनेषु - मोर्चों पर
यथाभागम् - अपनी-अपनी जगह
अवस्थिताः - दृढता से स्थित रहते हुए
हि - निश्चित रूप से
भीष्मम् - पितामह भीष्म की
एव - ही
अभिरक्षन्तु - चारों ओर से रक्षा करें।
यहां पर यह प्रश्न उठता है कि अभी ही तो दुर्योधन ने अपनी सेना को अपराजेय कहा, फिर वह ऐसा क्यों कहता है कि आप सब लोग मिलकर भीष्म की रक्षा करें? क्या वह नहीं जानता था कि भीष्म अति पराक्रमी और युद्ध में अजय हैं? जब धृतराष्ट्र जब धृतराष्ट्र पांडवों के बल पराक्रम की बात सोचकर विकल होने लगे, तो दुर्योधन ने भीष्म के बल का वर्णन करते हुए उन्हें समझाते हुए कहा था ( उद्योगपर्व, 55/20-22 )-
पुरैकेन हि भीष्मेण विजिताः सर्वपार्थिवाः।
मृते पितर्यतिक्रुध्दो रथेनैकेन भारत।।
जघान सुबहूंस्तेषां संरब्धः कुरुसत्तमः।
ततस्ते शरणं जग्मुर्देवव्रतमिमं भयात्।।
स भीष्मः सुसमर्थोऽयमस्माभिः सहितो रणे।
परान् विजेतुं तस्मात् ते व्येत भीर्भरतर्षभ।।
-'भारत! पहले की बात है, अपने पिता शांतनु की मृत्यु के पश्चात भीष्म जी ने किसी समय अत्यंत क्रोध में भरकर एकमात्र रथ की सहायता से अकेले ही सब राजाओं को जीत लिया था। रोष में भरे हुए कुलश्रेष्ठ भीष्म ने जब उनमें से बहुत से राजाओं को मार डाला, तब वह डर के मारे पुनः इन्हीं देवव्रत (भीष्म) की शरण में आए। भरत श्रेष्ठ! वे ही पूर्ण सामर्थ्यशाली भीष्म युद्ध में शत्रुओं को जीतने के लिए हमारे साथ हैं, अतः आप का भय दूर हो जाना चाहिए।'
तब दुर्योधन भीष्म की रक्षा के लिए इतना चिंतित क्यों होता है? क्यों वह अपने पक्ष के समस्त शूरवीरों से भीष्म की रक्षा करने की बात कहता है? इसका एक विशेष कारण है। दुर्योधन मानता था कि अकेले भीष्म ही पांडवों के बल को निःशेष कर देने में सक्षम है, पर भीष्म का निश्चित था कि वे शिखंडी पर अस्त्र न चलाएंगे। दुर्योधन इस रहस्य को दुःशासन से प्रकट करता हुआ कहता है ( भीष्मपर्व, 15/14-18 )-
नातः कार्यतमं मन्ये रणे भीष्मस्य रक्षणात्।
हन्याद् गुप्तो ह्यसौ पार्थान् सोमकांश्च ससृंजयान्।।
अब्रवीच्च विशुद्धात्मा नाहं हन्यां शिखण्डिनम्।
श्रूयते स्त्री ह्यसौ पूर्वं तस्माद् वर्ज्यो रणे मम।।
तस्माद् भीष्मो रक्षितव्यो विशेषेणेति मे मतिः।
शिखण्डिनो वधे यत्ताः सर्वे तिष्ठन्तु मामकाः।।
तथा प्राच्याः प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्योत्तरापथाः।
सर्वथास्त्रेषु कुशलास्ते रक्षन्तु पितामहम्।।
अरक्ष्यमाणं हि वृको हन्यात् सिंहं महाबलम्।
मा सिंहं जम्बुकेनेव घातयामः शिखण्डिना।।
-'इस समय युद्ध में भीष्म जी की रक्षा से बढ़कर दूसरा कोई कार्य मैं आवश्यक नहीं समझता हूं, क्योंकि वे सुरक्षित रहें तो कुंती के पुत्रों, सोमकवंशियों तथा सृंजयों को भी मार सकते हैं। विशुद्ध हृदय वाले पितामह भीष्म मुझसे कह चुके हैं कि "मैं शिखंडी को युद्ध में नहीं मारूंगा; क्योंकि सुनने में आया है कि वह पहले स्त्री था, अतः रणभूमि मेरे लिए वह सर्वथा त्याज्य है"। इसलिए मेरा विचार है कि इस समय हमें विशेष रूप से भीष्म जी की रक्षा में तत्पर रहना चाहिए। मेरे सारे सैनिक शिखंडी को मार डालने का प्रयत्न करें। पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण दिशा के जो जो वीर अस्त्र विद्या में सर्वथा कुशल हों, वे पितामह की रक्षा करें। यदि महाबली सिंह भी अरक्षित दशा में हो, तो उसे एक भेड़िया भी मार सकता है। हमें चाहिए कि सियार के समान शिखंडी के द्वारा सिंहसदृश भीष्म को न मारने दें।'
यहां श्लोक के अंत में 'हि' शब्द अपनी बात पर जोर देने के लिए प्रयुक्त हुआ है। जैसे बोलचाल की भाषा में हम किसी बात पर बल देने के लिए कहते हैं -'आप समझे?' इससे यही ध्वनित किया गया कि आप सब मिलकर भीष्म की ही रक्षा करें।
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