सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गीताध्याय -1, श्लोक -27-28-29-30

geeta,shrikrishn,गीता,भीष्म पितामह,श्रीकृष्ण,युधिष्ठिर,arjun गीता भीष्म पितामह श्रीकृष्ण shrikrishn युधिष्ठिर अर्जुन अभिमन्यु को किसने मारा था वैदिक धर्म महाभारत महाभारत युद्ध धर्म महाभारत का युद्ध geeta gyan ज्ञान की बातें gita darshan rajalakshmee sanjay govinda namalu अर्जुन भीष्म युद्ध mahabharat yuddh कृष्ण bhisham pitamah marg mahabharat गोवर्धन पूजन 2020  पुत्र प्राप्ति के लिए हमें क्या करना चाहिए mahabharat arjun ka yudh prd nishchay shishupal mahabharata महाभारत गीता महाभारत anubandh chatushtaya adhyatm prerna geeta gyan ki baatein mahabharat mein kitne shlok hai महाभारत कथा mahabhart srmps ki baten mahabharat bhagwan mahabharatham krishna krishna shanti doot mahabharat guru gyan ki baatein almaany geeta darshan jay shri krishna mahabharat ujala shanker roop ka naya swaroop ek aur mahabharat miruthula niskaram poorna roopam harikrishnans parmatma shri krishna krishnar vesham mahabharat ka yuhi nahi tujhpe bhishma yudh duryodhan vadh akramam draupadi amman dronacharya ka putra ecorv gyan arjan gyk ईश्वर क्या है porma ishwar satya karlo karlo krishna bhagwan ji shishupal karan vadh mahabharat logo sri krishna paramatma चित्त का अर्थ  askvg gintama memes githa अंग्रेजी व्याकरण गीता पाठ भागवत का अर्थ gyan darshan vaisyas arjun vadh karmacrm mahabharat arjun karan ka yudh arjun yuddh priyathama priyathama bhag bheem bhishma pitamah ka janm mahabharat krishna updesh nanna prakara sri krishnarjuna yuddham badwaep rgit eeshwar gillitv pariyam sishupal kappa pazham pithamagan क्या ईश्वर सत्य है akash ganna in anubhuti yog bheeshma pitamaha brahmavidya garbh geeta kya hai mahabharat ki ladai यज्ञ karm ज्ञान क्या है emcrit komal vlogs rcgm rekha ki paribhasha श्मशान काली  gita vishwas karm karo fal ki chinta mat karo kghmoa mahabharat kaurav pandav mahabharat yodha poocha pazham यधपि का अर्थ mahabharat dronacharya parispron satyaki mahabharata जंगल लव angreji vyakran bharatam mahabharatam mahabharat mein karan aur arjun ka yudh caty eswar kallappadam krishna vichar samar shesh hai सत्य gayak shrikrishna ambrai gita viswas krishnaarjuna krishnarjuna krm varsha gopal veero ka veer ईश्वर
#गीता 

अर्जुन का विषाद


तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।। (27)
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।

अवस्थितान् - अपनी-अपनी जगह पर स्थित
तान् - उन
सर्वान् - सम्पूर्ण
बन्धून् - बान्धवों को
समीक्ष्य - देखकर
सः - वे
कौन्तेयः - कुन्तीनन्दन अर्जुन
परया - अत्यंत
कृपया - कायरता से
आविष्टः - युक्त होकर
विषीदन् - विषाद करते हुए
इदम् - ऐसा
अब्रवीत् - बोले।

    अभी कुछ क्षण पहले जो अर्जुन युद्ध की बातें कर रहा था, वहीं अब अत्यंत करुणा से अभीष्ट हो गया है। फलस्वरूप उसके चित्त में विषाद जन्म लेता है। मोह की शक्ति ही ऐसी भयंकर है! अर्जुन ने जिन लोगों को अपना स्वजन संबंधी बतलाया, वे लोग कृष्ण के भी तो आत्मीय स्वजन थे। पर कृष्णा ने उन्हें उस दृष्टि से नहीं देखा। उन्होंने मात्र 2 सेनाओं को आमने सामने खड़ा देखा। वास्तव में कृष्ण ही मध्य में खड़े थे और भले ही उनका रथ मध्य में खड़ा हो, पर अर्जुन इस समय मध्यस्थ नहीं था। वह मोहस्थ था। वह कृष्ण से रथ को मध्य में ले जाने को तो कहता है, पर बीच में रथ के आ जाने पर भी, अर्जुन बीच में नहीं आ पाया। कृष्ण का चरित्र दर्शनीय है। वे मामा, काका नहीं देखते। यदि खेल के मैदान में खिलाड़ी एक-दूसरे के दल में खिलाड़ी को न देखकर अपने स्वजनों को देखता है, तो वह कभी भी ठीक ढंग से खेल नहीं पाएगा। खेल के मैदान में खिलाड़ी को देखो, सगे संबंधियों को नहीं। अदालत में न्यायाधीश अपराधी को देखें अपने किसी संबंधी को नहीं। और यदि न्यायाधीश कटघरे में खड़े अपराधी को अपराधी के रूप में न देखकर अपने रिश्तेदार के रूप में देखता है, तो वह कभी अपना कर्तव्य ठीक ढंग से नहीं निभा पाएगा।
     अर्जुन की स्थिति ऐसी ही हो गई है। कुछ क्षण पहले ही वह अपराधियों को देखना चाहता था, जो दुर्योधन के अधर्म के साथी थे, पर अब उसकी आंखों पर मोह की पट्टी चढ़ गई है और वह अपराधियों में सगे संबंधी एवं मित्र सुहृद् देख रहा है। तभी तो करुणावश होकर विषाद करते हुए वह बोलता है-

अर्जुन उवाच


दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।। (28)
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।। (29)
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।। (30)
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

कृष्ण - हे कृष्ण!
युयुत्सुम् - युद्ध की इच्छा वाले
इमम् - इस
स्वजनम् - कुटुम्बसमुदाय को
समुपस्थितम् - अपने सामने उपस्थित
दृष्ट्वा - देखकर
मम - मेरे
गात्राणि - अंग
सीदन्ति - शिथिल हो रहे हैं
च - और
मुखम् - मुख
परिशुष्यति - सूख रहा है
च - तथा
मे - मेरे
शरीरे - शरीर में
वेपथुः - कपकपी ( आ रही है )
च - एवं
रोमहर्षः - रोंगटे खडे
जायते - हो रहे हैं।
हस्तात् - हाथ से
गाण्डीवम् - गाण्डीव धनुष
स्रंसते - गिर रहा है
च - और
त्वक् - त्वचा
एव - भी
परिदह्यते - जल रही है।
मे - मेरा
मनः - मन
भ्रमति, इव - भ्रमित-सा हो रहा है
च - और ( मैं )
अवस्थातुम् - खडे रहने में
च - भी
न, शक्नोमि - असमर्थ हो रहा हूँ।
केशव - हे केशव! ( मैं )
निमित्तानि - लक्षणों ( शकुनों ) को
च - भी
विपरीतानि - विपरीत
पश्यामि - देख रहा हूँ ( और )

    अर्जुन के मन में करुणा उपजी और उसका प्रतिफल शारीरिक विकारों के रूप में हुआ। भय और शोक की शरीर पर प्रतिक्रिया इसी प्रकार हुआ करती है। कोई मनुष्य यदि तीव्र रूप से शोकाकुल हो जाए, तो ये ही शारीरिक लक्षण उसमें प्रकट हुआ करते हैं। जैसे किसी का लाडला बेटा अकाल काल कवलित हो जाए या किसी की संपत्ति अचानक नष्ट हो जाए, तो यदि विवेक का अंकुश न हो, तो उससे उत्पन्न शोक का आवेग शरीर में इसी प्रकार प्रकट हुआ करता है। करुणा मनुष्य की सहानुभूति को जागृत करें यह तो ठीक है, पर यदि वह उसके पौरुष को क्षीण करें, उसकी विवेक शक्ति पर कुठाराघात करें और उसे कुंठाओं का शिकार बनाकर रख दें, तो वह करुणा गुण है या दुर्गुण? दो व्यक्ति हैं। किसी दुर्घटनाग्रस्त मित्र को देखने जाते हैं। एक में करुणा का इतना उद्रेक हुआ कि स्वयं मूर्छित होकर गिर पड़ा और थोड़ा होश में आने पर रोने चिल्लाने लगा। दूसरा अपनी करुणा का प्रदर्शन पहले व्यक्ति के समान नहीं करता, बल्कि वह दुर्घटनाग्रस्त मित्र को अस्पताल ले जाता है और उसके समुचित उपचार की व्यवस्था करने में जुट जाता है। दोनों ही मित्र करुणा से आविष्ट होते हैं, पर दोनों में करुणा की प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है।
     अर्जुन की दशा पहले मित्र के समान है। ऐसी स्थिति अनावश्यक ही नहीं, अवांछनीय है। इस प्रकार की करुणा विवेक की उपज न होकर अविवेक से उपजी होती है। और जहां मनुष्य का विवेक ढक जाता है, वहां मोह और भ्रम अपना मायाजाल फैला लेते हैं। तब मनुष्य सब कुछ उल्टा देखने लगता है। जैसे पीलिया का रोगी सब कुछ पीला ही देखता है, उसी प्रकार भ्रम में घिरा पुरुष सारी बातें उल्टी देखता है। उसे धर्म अधर्म मालूम पड़ता है, और अधर्म ही धर्म। अर्जुन तो शत्रुओं को देखने सेनाओं के बीच में गया था और उसने देखा 'स्वजनों' को। कहता है -'दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण'। उससे पूछा जाता है -क्यों भाई, तुम तो गए थे दुर्बुद्धि दुर्योधन हितैषीयों को देखने के लिए, वह यह 'स्वजन' कहां से पकड़ लाए? तो उसने प्रश्न कर्ता को अवश्य 'हृदयहीन' की संज्ञा दे दी होती।
      मोह की भयंकरता ही ऐसी है। 'स्व' और 'पर' के भेद को लेकर यह मोह की धारा बहती है। मानो मोह नदी के यह दो कूल हैं। मुझे एक समाजसेवी महिला की बात मालूम है, जो अपने सार्वजनिक भाषणों में, विशेषकर माताओं से अनुरोध किया करती कि वे देश की रक्षा के लिए अपने पुत्रों को फौज में भेेजें। वे अच्छे ढंग से अपनी बात को उन लोगों के सामने रखती और देश भक्ति पर प्रेरणा पूर्ण व्याख्यान देतींं। किंतु जब उनका स्वयं का पुत्र फौज में चला गया, तो वे बड़ी मायूस हो गई। इसे 'स्व' और 'पर' का भेद कहते हैं। मोह का आधार भी यही भेद है। अर्जुन में 'स्व' और 'पर' का भाव आ गया है। यह भेद ही संसार की रचना करता है। यह काल्पनिक है। पंचदशी में द्वैत विवेक प्रकरण में हम दो प्रकार के द्वैत की बात पढते हैं -दो प्रकार के भेदभाव की बात। एक तो ईश्वर का रचा हुआ और दूसरा जीव द्वारा बनाया हुआ। ईश्वर ने एक नारी की रचना की; किंतु उसमें माता, पत्नी, सखी, भगनी, पुत्री आदि के विभिन्न भाव जीव ने बना लिये। वस्तुतः जीव यह जो द्वैत बना लेता है, उसी को दूर करना है। पुष्टिमार्ग में इन्हीं दोनों को प्रपंच और संसार के नाम से पुकारा गया है। प्रपंच की रचना ईश्वर ने की है, जबकि संसार जीव का अपना बनाया हुआ है। अतएव यही सिद्ध हुआ कि 'स्व' और 'पर' का भेद कल्पित है तथा उसको दूर करना ही गीता उपदेश का प्रयोजन है।

अर्जुन 'न्यूरोसिस' का शिकार

     एक अन्य दृष्टि से देखें तो अर्जुन 'न्यूरोसिस' का शिकार हो जाता है। उपर्युक्त श्लोकों में अर्जुन ने अपने जो लक्षण बतलाए हैं, वे सभी न्यूरोसिस के रोगी पर घटते हैं। इस रोग का शिकार व्यक्ति परीक्षा की घड़ियों में अपना संतुलन खो बैठता है और उसमें यह सारे लक्षण उभर आते हैं। मैंने कई छात्रों और छात्राओं को देखा है, जो परीक्षा भवन में प्रश्न पत्र को देखते ही अचानक इस रोग से आक्रांत हो जाते हैं। उनमें थरथराहट छूटती है, रोएं खड़े हो जाते हैं, सिर चक्कर खाने लगता है, हथेली पसीने से भर जाती है और हाथ में पकड़ी कलम छूट जाती है। मुंह सूखने लगता है। यह सब मानसिक दुर्बलता के लक्षण है। पूछा जा सकता है कि अर्जुन तो इतना शूरवीर था, उसमें मानसिक दुर्बलता कहां से आयी? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास ने अर्जुन में ऐसी दुर्बलता ला दी। कहते हैं कि न्यूरोसिस का भावनाओं से बड़ा संबंध है। जब मनुष्य की भावनाओं को बलपूर्वक दबा दिया जाता है और उन्हें प्रकट होने की छूट नहीं दी जाती, तब बलात् दबाई गई ये भावनाएं मानसिक कुंठा का रूप धारण कर लेती है और ऐसी ही कुण्ठाओं से न्यूरोसिस का जन्म होता है।
     अर्जुन की भावनाएं तो हरदम ही दबायी गयीं। वैसे तो पांचो पांडव की भावनाओं को सदैव दबाया जाता रहा, पर सबसे अधिक प्रतिक्रिया अर्जुन पर हुई, क्योंकि पांचों भाइयों में वही सबसे प्रतिभाशाली था। प्रतिभाशाली व्यक्ति सूक्ष्म संवेदनाओं से युक्त होने के कारण अधिक संवेदनशील होता है। छोटी सी बात भी उस पर अपनी पर्याप्त प्रतिक्रिया छोड़ जाती है। फिर अर्जुन के संबंध में क्या कहना! ऐसा अर्जुन अपने भाइयों के साथ कौरवों के द्वारा पग पग पर अपमानित होता है, पर युधिष्ठिर के कारण वह प्रतिकार में अपना मुंह खोल नहीं पाता। आंखों के सामने उसने द्रोपदी को अपमानित होते हुए देखा, पर अधरों पर प्रतिवाद में 1 शब्द तक न फूटा। भीम ने अपने रोष को व्यक्त कर कुछ अंशों में कुंठा की मात्रा को कम कर लिया, उसने दुर्योधन की जांघ तोड़ने की प्रतिज्ञा कर ली, दु:शासन की छाती फाड़ उसका रक्त पीने की घोषणा कर दी; पर अर्जुन सिर झुकाए ही बैठा रहा। 12 वर्ष के वनवास में न जाने कितनी बार उसे मन मारकर चुप रह जाना पड़ा, और यह सब युधिष्ठिर की इच्छा की पूर्ति के लिए। द्रौपदी का हरण करने वाले जयद्रथ को उसने पकड़ा तो सही, पर युधिष्ठिर ने अपनी दयालुता प्रदर्शित करते हुए बिना कोई दंड दिए जयद्रथ को छुड़वा दिया। ये सब ऐसे कारण थे, जिनके फलस्वरूप अर्जुन की प्रतिभा दबने लगी और वह उत्तरोत्तर कुंठा का शिकार होने लगा। 12 वर्षों में उसकी भावनाएं इतनी दवाई गई कि अंत में 13 वर्ष उसके लिए पौरुष की दृष्टि से घातक बन गया -वह नपुंसक बन गया। आप भले ही यह कह कर इस संदर्भ को समझाने की कोशिश करें कि अर्जुन को उर्वशी के शाप से इस प्रकार नपुंसक बना था, पर यह कोई तर्कसंगत कारण नहीं प्रतीत होता। उचित तो यही लगता है कि गांडीवधारी महारथी अर्जुन 12 वर्ष की मानसिक खिन्नता के कारण वीर्यहीन हो नपुंसक बन जाता है। वैसे तो 1 वर्ष का अज्ञातवास सारे पांडवों के लिए ही भीषण दुर्दशा का कारण बनता है, पर अर्जुन के संदर्भ में वह दुर्दशा और भी भयावह होती है। जहां उसके अन्य भाई विराट राजा के यहां पुरुषोचित कार्यों में नियुक्त होते हैं, वहां अर्जुन बृहन्नाला बनकर नाचता है और अंतःपुर में महिलाओं के साथ रहता है। इससे बढ़कर उसके पौरुष की तौहीनी और क्या हो सकती है? उसकी यह सारी कुंठा भयानक आक्रामक रूप धारण कर कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि पर संक्रांति के क्षणों में प्रकट हो जाती है।
      प्रश्न उठता है कि विराटनगर में भी तो अर्जुन को कौरवों के साथ लड़ने का अवसर मिला था और उसने अकेले ही गायों को हर कर ले जाने वाली कौरव सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। तब तो उसमें किसी प्रकार की दुर्बलता प्रकट नहीं हुई। यह तर्क अवश्य विचारणीय है। पर इसके पीछे मनोवैज्ञानिक रहस्य छिपा पड़ा है। विराटनगर में युद्ध करते समय अर्जुन लोगों के लिए अपरिचित ही था। वह अज्ञातवास में था। कौरव पक्ष के लोग नहीं जानते थे कि राजकुमार उत्तर के सार्थित्व में भयंकर युद्ध करने वाला रथी महाबली अर्जुन ही है। अतएव अर्जुन के लिए तब हार या जीत की चिंता नहीं थी। फिर यहां भी संभव है कि विराटनगर में रहते समय अर्जुन अपनी नपुंसकता को दूर करने की दिशा में प्रयत्नशील रहा हो। एक लाभ उसे बृहन्नाला के रूप में हुआ यह हुआ कि वह युधिष्ठिर से दूर हट गया। युधिष्ठिर की उपस्थिति उसके मन के लिए दमन का कार्य करती थी। इसीलिए जब जब अर्जुन युधिष्ठिर से दूर रहा है, उसने अपने अतुलनीय शौर्य का प्रदर्शन किया है। इसके उदाहरण महाभारत में भरे पड़े हैं।
      तो, हम कह रहे थे कि अर्जुन ने अज्ञातवास का जो 1 वर्ष बिताया, उसमें या युधिष्ठिर से अलग रहा। साथ ही उसे नारियों की प्रशंसा और सहानुभूति मिली। उत्तरा का उद्दाम प्यार मिला; भले अर्जुन ने उसे उस प्रकार स्वीकार नहीं किया, जिस प्रकार पहले उलूपी और चित्रांगदा का प्यार स्वीकार किया था। इसके पीछे क्या कारण रहा होगा, यह सहज अनुमानगम्य है। यह सारी बातें ऐसी थी, जिनके फलस्वरूप अर्जुन का दबा पौरुष धीरे-धीरे जागने लगा और उत्तर की कायरता ने तो उसके पौरुष को पूरी तरह उभाड दिया। आजकल युद्ध बंदियों को वीर्यहीन करने के लिए इसी प्रकार के तरीके काम में लाए जाते हैं। उनका बाहरी संपर्क खत्म कर दिया जाता है, एक ही प्रकार की बातें कानों में हरदम सुनाई जाती हैं, शस्त्रों को छीन लिया जाता है और उनके उपयोग का अवसर नहीं दिया जाता। इसे 'ब्रेनवाश' के नाम से पुकारते हैं। पांडवों का 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास 'ब्रेनवाश' की ही प्रक्रिया थी, जिसकी चतुराई पूर्ण योजना कुटिल कौरवों ने बनाई थी। पर जैसा ऊपर कहा, अज्ञातवास की अवधि में अर्जुन को युधिष्ठिर से दूर रहने का अवसर प्राप्त होता है और वह अपने खोए पौरुष को प्राप्त करने में समर्थ होता है।
      प्रश्न उठता है कि जब विराटनगर के युद्ध में अर्जुन ने अपने खोये पौरुष को प्राप्त कर लिया, तो कुरुक्षेत्र के मैदान में वह क्यों पुनः न्यूरोसिस के 'फिट' का शिकार होता है? इसका सहज उत्तर यह है कि कुरुक्षेत्र का युद्ध योजनाबद्ध युद्ध था, पांडवों ने कौरवों के अन्याय को चुनौती दी थी। युद्ध की बृहत् तैयारियां की गई थीं। अर्जुन आज विराटनगर का एक अनजाना और अनचीन्हा व्यक्ति नहीं था, बल्कि वह महा पराक्रमी, गांडीवधारी, पृथापुत्र, गुडाकेश था। विराटनगर में उसे हार जीत का भय नहीं हुआ था, पर आज कौरवों की विशाल ग्यारह अक्षौहिणी सेना को देख उसके मन में आशंका पैदा होती है -यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः' -'हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे'। फिर यह भी एक अजनबी भाव अर्जुन को सताने लगता है कि इतने पूज्य जनों और संबंधियों को मारकर क्या हम पाप के भागी नहीं बनेंगे?
      हम पढ़ते हैं कि अर्जुन श्रीकृष्ण को रथ दोनों सेनाओं के मध्य ले चलने के लिए कहता है ताकि वह देख ले कि उसे किन-किन लोगों से लड़ना है। तो क्या अर्जुन यह नहीं जानता था कि उसकी ओर से तथा कौरवों की ओर से कौन-कौन समरांगण में खड़े हैं? वह सब जानता था, पर जिस समय अपनी आंखों से दोनों ओर की सेनाओं को देखता है, तो यह बोध कुछ भिन्न ही होता है। यदि कौरवों की सेना में केवल धृतराष्ट्रपुत्र, शकुनि और कर्ण आदि ही होते, तो संभवत अर्जुन इतना करुणाविष्ट न हुआ होता। किंतु जब आंखों के सामने, कौरवों की ओर से खड़े हुए, उन लोगों को देखता है, जिन्होंने उसको प्यार दिया और जिनको वह प्यार करता है, तो उसका मानसिक संतुलन एकबारगी खत्म हो जाता है और उसके भीतर का वर्षों का दवा सारा आक्रोश उपर्युक्त शारीरिक लक्षणों के रूप में प्रकट हो जाता है। मोह का मोटा आवरण उसके मनश्चक्षुओं पर पड़ जाता है और वह सब कुछ उल्टा देखने लगता है। अभी तक जो शकुन उसकी दृष्टि में शुभ और अच्छे थे, वे ही उसकी इस बदली मानसिकता में अपशकुन दीखने लगते हैं। जब मन का उत्साह चुक जाता है, तब मनुष्य चारों ओर अंधेरा और खाई ही देखता है।


      यहां पर एक प्रश्न खड़ा होता है। ऊपर की चर्चा से यह पता चला कि अर्जुन की भावनाएं दमित हो गई थी, उसे अपने विचारों को व्यक्त करने की छूट नहीं मिली थी, इसलिए वह कुंठा ग्रस्त हो न्यूरोसिस का शिकार हो गया था। इससे यह निष्पन्न हुआ कि अगर कुंठा से बचना है, तो अपनी भावनाओं को दबाओ मत, उनको खुली छूट दे दो। आज पश्चिमी मनोविज्ञान, विशेषकर वह जो सिग्मंड फ्रायड से प्रभावित हैं, इसी बात की शिक्षा देता है। वह भावनाओं के दमन को हानिकारक मानता है और कहता है कि आज के समय लगभग 80% मनुष्य इसलिए मानसिक रोगों के शिकार हैं कि वह अपनी भावनाओं को दबा देते हैं। ये ही मानसिक रोग शरीर के स्तर पर उतर आते हैं। चिकित्सक केवल शरीर में ही रोग की जड़ को खोजने के कारण रोग का पता नहीं पाता। इसलिए शरीर की चिकित्सा करने मात्र से वे रोग दूर नहीं होते। रोग तो तब दूर होते हैं, जब विश्लेषण के द्वारा यह पता लगा लिया जाए कि रोग का कारण शरीर में नहीं, मन में है और जब यह जानकर मन का इलाज किया जाता है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में psychosomatic ( मनो दैहिक ) चिकित्सा के नाम से पुकारते हैं। Psyche का तात्पर्य मन से है तथा soma का शरीर से। यह बात पश्चिमी देशों को अभी अभी मालूम हुई कि शरीर में प्रतीत होने वाला रोग मन में अपनी जड़ें रखता है। पर भारत में तो इसका पता अत्यंत प्राचीन काल से था। हमारे यहां अति पुरातन काल से 'आधि' और 'व्याधि' शब्द प्रचलित रहे हैं, जो क्रमशः मानसिक और शारीरिक रोगों के लिए प्रयुक्त होते हैं। भारत ने मन के रोगी होने को तथा उसके कारण शरीर के अस्वस्थ हो जाने को बहुत पहले से जाना है। हमारे यहां भी यह मान्यता रही हैं कि भावनाओं के दमन से कुण्ठाएं उत्पन्न होती हैं। पर इन कुण्ठाओं का निदान हमने भावनाओं को खुली छूट देने में नहीं देखा। बल्कि हमने तो यह देखा कि मन को खुली छूट देने से एक नए प्रकार की कुंठा उत्पन्न हो जाती है, जो दमन से पैदा होने वाली कुंठा की अपेक्षा कहीं अधिक खतरनाक है। और फिर प्रश्न यह भी है कि हम मन को कहां तक खुली छूट दें? किसी की संपत्ति का लालच एक व्यक्ति के मन में समाया। वह मन का दमन करते हुए उस लालच को रोके या उसे खुली छूट देते हुए धन को लूट ले? किसी की सुंदर पत्नी को देखकर एक व्यक्ति के मन में उसे पाने की वासना जगी। तो वह फ्रायड की दुहाई देता हुआ उस नारी को अपने अधिकार में लेने की कोशिश करें, या समाज के संतुलन को बनाए रखने की दृष्टि से अपनी उस पाशविक भावना का दमन करें? इस प्रश्न का पाश्चात्य मनोविज्ञान क्या उत्तर देगा? फ्रायड इसके उत्तर में क्या कहेंगे? निष्कर्ष यह हुआ कि सभी अवस्थाओं में मन को खुली छूट देना एक बहुत बड़ी कुंठा को जन्म देना है, जिसका निदान फ्रॉयड और उनके अनुयायियों के पास नहीं है। भारतीय मनोविज्ञान भी दमन को हानिकारक मानता है। इसलिए दमन का उपदेश वह भी नहीं देता, बल्कि वह नियमन की शिक्षा देता है। हम दमन के पक्षधर नहीं, बल्कि नियमन को जीवन में स्थान देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी नियमन की शिक्षा दी और मन के इस नियमन को ही हम 'योग' के नाम से पुकारते हैं। अगली चर्चाओं में हम 'दमन' और 'नियमन' के इस भेद पर और भी विस्तार से विचार करेंगे।
      यहां पर श्रीभगवान के लिए 'कृष्ण' और 'केशव' इन 2 नामों का प्रयोग हुआ है। 'कृष्ण' के कई अर्थ किए जाते हैं। एक तो श्यामल वर्ण। दूसरे, कृष् धातु का अर्थ है खींचना; तो, जो अपनी ओर खींचे वह कृष्ण। अथवा, जो भक्तों के दु:ख क्लेश दूर खींच दे, वह कृष्ण। इसी प्रकार, 'केशव' का एक अर्थ तो है 'केशी' नामक दैत्य का संहारक। दूसरा अर्थ है, जिसके केश घने और सुंदर हों।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

लघुसिद्धान्तकौमुदी संज्ञा प्रकरण

लघुसिद्धान्तकौमुदी || श्रीगणेशाय नमः || लघुसिद्धान्तकौमुदी नत्त्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् | पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् |      लघुसिद्धांतकौमुदी के प्रारंभ में कौमुदी कर्ता वरदराजाचार्य ने नत्वा सरस्वतीं देवीम् इस श्लोक से मंगलाचरण किया है | मंगलाचरण के तीन प्रयोजन है - 1- प्रारंभ किए जाने वाले कार्य में विघ्न ना आए अर्थात् विघ्नों का नाश हो , 2- ग्रंथ पूर्ण हो जाए अौर , 3- रचित ग्रंथ का प्रचार - प्रसार हो।

लघुसिद्धान्तकौमुदी पदसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

14-  सुप्तिङन्तं पदम्  1|4|14|| पदसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 14- सुप्तिङन्तं पदम् 1|4|14|| सुबन्तं तिङन्तं च पदसंज्ञं स्यात् | इति संञ्ज्ञाप्रकरणम् ||1||      सुबन्त और तिङन्त पद संज्ञक होते हैं।

लघुसिद्धान्तकौमुदी उदात्त, अनुदात्त, स्वरितसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी उदात्तसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 6- उच्चैरुदात्तः 1|2|29|| अनुदात्तसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 7- नीचैरनुदात्तः 1|2|30|| स्वरितसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 8- समाहारः स्वरितः 1|2|31|| स नवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकत्वाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा |