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अर्जुन का श्रीकृष्ण की शरण में जाना
भगवान् के इस तरह कहने पर अर्जुन अपने को टटोलता है। आत्म निरीक्षण करता है। बलपूर्वक मोह के परदे को उठाने की चेष्टा करता है। देखता है कि भगवान् जो कह रहे हैं, वही ठीक है। जिसे वह करुणा और दया समझ रहा था, वह वस्तुतः कायरता ही है। कहता है-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। (7)
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः - कायरता रूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला ( और )
धर्मसम्मूढचेताः - धर्म के विषय में मोहित अन्तः करण वाला ( मैं )
त्वाम् - आप से
पृच्छामि - पूछता हूं ( कि )
यत् - जो
निश्चितम् - निश्चित
श्रेयः - कल्याण करने वाली
स्यात् - हो,
तत् - वह ( बात )
मे - मेरे लिये
ब्रूहि - कहिये।
अहम् - मैं
ते - आपका
शिष्यः - शिष्य हूं।
त्वाम् - आपके
प्रपन्नम् - शरण हुए
माम् - मुझे
शाधि - शिक्षा दीजिये।
"मेरा स्वभाव कायरता रूप दोष से सन गया है और धर्म का निर्णय करने में मैं मोहितचित्त हो गया हूं। अतः आपसे पूछता हूं, जो मेरे लिए हितकर बात हो वह निश्चित रूप से मुझे बतलाइए। मैं आपका शिष्य हूं, आपकी शरण में आए हुए मुझे दास को उपदेश दीजिए।"
अर्जुन अपनी भूल स्वीकार कर लेता है। कहता है कि मेरा स्वभाव कायरता के दोष से ढक जाने के कारण मैं कर्तव्य अकर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ हूं। मेरी बुद्धि काम नहीं दे रही है। वह विनय पूर्वक मार्गदर्शन की याचना करता है। उसने अपने आपको अब भगवान् कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। पर अब भी पूरी तरह नहीं। वह शरणागत होकर, भगवान् का शिष्यत्व स्वीकार कर उपदेश की प्रार्थना तो करता है, जिससे उसका कल्याण हो, पर उसका अहम् बोध अभी पूरी तरह से उनमें मिला नहीं है।
श्रेष्ठ जनों में ऐसा विश्वास प्रचलित है कि जो मनुष्य कर्तव्य अकर्तव्य की उलझन में पड़ जाए, वह यदि इस श्लोक का जप करता हुआ सो जाए, तो स्वप्न में भगवान उसे एक रास्ता दिखा देते हैं। अस्तु अर्जुन आगे कहता है-
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्
यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।। (8)
हि - कारण कि
भूमौ - पृथवी पर
ऋद्धम् - धन-धान्य-समृद्ध ( और )
असपत्नम् - शत्रु रहित
राज्यम् - राज्य
च - तथा
सुराणाम् - ( स्वर्ग में ) देवताओं का
अधिपत्यम् - अधिपत्य
अवाप्य - मिल जाय
अपि - तो भी
इन्द्रियाणाम् - इन्द्रियों को
उच्छोषणम् - सुखाने वाला
मम - मेरा
यत् - जो
शोकम् - शोक है, ( वह )
अपनुद्यात् - दूर हो जाय (-ऐसा मैं )
न - नहीं
प्रपश्यामि - देखता हूं।
"क्योंकि इस पृथ्वी में निस कंटक धन-धान्य संपन्न राज्य को या देवताओं के स्वामित्व को पाकर भी मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देख रहा हूं, जो मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सके।"
अर्जुन अब हृदय की बात खोल कर रख देता है। भगवान् से अब कोई लुकाछिपी नहीं रह गई। और यही तो भगवान् चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जीव उनको बिल्कुल अपना माने। गोपियों के चीर हरण के पीछे यही रहस्य है। दुराव एक पर्दे की तरह है। अपनत्व में दुराव नहीं रह जाता। चीरहरण के द्वारा भगवान् गोपियों का अंतिम दुराव भी दूर कर देते हैं। यहां भी अर्जुन के दुराव को वे दूर करते हैं। अर्जुन और कृष्ण का संबंध अनुपम है। अर्जुन के प्रति कृष्ण के हृदय में माता का लालन है, तो पिता का पालन भी, गुरु का अनुशासन है, तो राजा का रक्षण भी, और सर्वोपरि है ईश्वर का कृपाकण। यदि हम भी भगवान् के पास अर्जुन के समान अपने हृदय को खोल कर रख दें, तो यह सब हमें भी मिल जा सकता है। अर्जुन का शोक अत्यंत तीव्र है, वह उसकी इंद्रियों को सुखा दे रहा है। इस शोक से अर्जुन अपनी रक्षा चाहता है। वह भगवान् से प्रार्थना करता है। पर साथ ही यह भी कह देता है कि मैं नहीं लडूंगा।
संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।। (9)
परन्तप - हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र!
एवम् - ऐसा
उक्त्वा - कहकर
गुडाकेशः - निद्रा को जीतने वाले अर्जुन
हृषीकेशम् - अन्तर्यामी
गोविन्दम् - भगवान् गोविन्द से
न, योत्स्ये - 'मैं युद्ध नहीं करूंगा'
इति - ऐसा
ह - साफ-साफ
उक्त्वा - कहकर
तूष्णीम् - चुप
बभूव - हो गये।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। (10)
भारत - हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र!
उभयोः - दोनों
सेनयोः - सेनाओं के
मध्ये - मध्य भाग में
विषीदन्तम् - विषाद करते हुए
तम् - उस अर्जुन के प्रति
प्रहसन्निव - हंसते हुए से
हृषीकेशः - भगवान् हृषीकेश
इदम् - यह ( आगे कहे जाने वाले )
वचः - वचन
उवाच - बोले।
"संजय बोला- हे शत्रुतापन धृतराष्ट्र! निद्रा विजयी अर्जुन अंतर्यामी भगवान् कृष्ण के इस प्रकार कह चुकने के बाद साफ साफ यह बात कह कर कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, चुप हो गया।"
"हे भारत! इस तरह दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए अर्जुन से भगवान् श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए से यह वचन कहने लगे।"
एक ओर अर्जुन भगवान् से उपदेश की याचना करता है और दूसरी ओर स्पष्ट रूप से कहा भी देता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा। इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि अर्जुन ने भगवान् की शिष्यता स्वीकार तो कर ली, पर अब भी उसका अहम् पूर्ण समर्पण में बाधा डाल रहा है। वह अपने युद्ध न करने के निश्चय को कायम रखता है। पर साथ ही अभिप्राय यह भी है कि यदि भगवान उसे युद्ध की सार्थकता समझा दें, तो वह युद्ध से मुंह नहीं मोड़ेगा। अंतर्यामी श्री कृष्ण अर्जुन के मनोभाव को समझ लेते हैं और वह मुस्कुराते हुए से अर्जुन को समझाने के लिए प्रवृत्त होते हैं।
ऐसी विषम परिस्थिति में भगवान् का मुस्कुराना उनकी निर्लेपता को सिद्ध करता है। जिस अर्जुन को केंद्र बनाकर उन्होंने इस महाभारत युद्ध की योजना बनाई, अधर्म और अन्याय के नाश का उपाय रचा, उसी अर्जुन के स्पष्ट रूप से युद्ध न करने की बात कह देने पर भी उनके माथे पर एक शिकन नहीं है। न उनमें क्रोध है, न क्षोभं, न विषाद। अधरों पर है मंद मुस्कान, जिसकी छटा अज्ञान तिमिर का नाश कर देती है। भगवान् कृष्ण अपने उपदेशों के जाज्वल्य विग्रह है। स्थितप्रज्ञता का इससे बढ़कर मूर्त रूप और क्या हो सकता है? भगवान् कृष्ण का जीवन गीता की सर्वोत्तम टिका है।
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