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देही का स्वरूप
श्रीभगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। (11)
त्वम् - तुमने
अशोच्यान् - शोक न करने योग्य का
अन्वशोचः - शोक किया है
च - और
प्रज्ञावादान् - विद्वता ( पण्डिताई ) की बातें
भाषसे - कह रहे हो; ( परन्तु )
गतासून् - जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये
च - और
अगतासून् - जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये
पण्डिताः - पण्डित लोग
न, अनुशोचन्ति - शोक नहीं करते।
"श्रीभगवान बोले- जिनके लिए शोक करना उचित नहीं, उनके लिए तो शोक कर रहा है और साथ ही ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें भी बघारे जा रहा है; परंतु जो यथार्थ में ज्ञानीजन होते हैं, वे न तो उनके लिए शोक करते हैं जिनके प्राण चले गए हैं और न उनके लिए ही जिनके प्राण नहीं गए हैं।"
गीता का वास्तविक उपदेश यहीं से प्रारंभ होता है। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसके पूर्व पहले अध्याय के रूप में जो भूमिका प्रस्तुत की गई वह अर्थहीन हो। उसका भी विशेष महत्व है। किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिए मनुष्य में पहले विषाद होना जरूरी है। बिना विषाद के अनुकूलता नहीं उपजती, और बिना अनुकूलता के न धन मिलता है, न मोक्ष। अर्जुन का एक अर्थ यह भी हो सकता है 'जो अर्जन करे'। और अर्जन करने वाले को विषाद आवश्यक ही है। अर्जुन ज्ञान का, समस्त बंधनों से मुक्ति का अर्जन करना चाहता है, अतएव इस अर्जन से पूर्व उसके हृदय में आकुलता का उपजना आवश्यक है। यह आकुलता ही प्रथम अध्याय में 'विषादयोग' के रूप में वर्णित है।
ज्ञान का पहला पाठ
अर्जुन ने अपने को व्याकुलता के द्वारा ज्ञान प्राप्ति के लिए तैयार किया, और भगवान उसे ज्ञान का पहला पाठ सिखाते हैं। जब हममें ज्ञान को पाने की उमंग होती है, तो उस उमंग में हम यह निश्चय नहीं कर पाते कि वस्तुतः ज्ञान क्या है और अज्ञान क्या है। हम कहीं पर पढी, किसी से सुनी या परंपरा से चली आई बातों को ज्ञान का सार मान लेते हैं। और हम अपने इस प्रकार प्राप्त ज्ञान के प्रति इतने आग्रहवान हो जाते हैं कि उसे अज्ञान समझना तो दूर, हमें अपने गुरुजनों के विवेक पर ही शंका होने लगती है, जो हमें यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि वह वास्तव में ज्ञान न होकर हमारे पतन का कारण अज्ञान है। ऐसे समय ज्ञानदाता के प्रति हमारी अटूट श्रद्धा ही मोह भ्रम जनित इस दुराग्रह से हमारी रक्षा कर सकती है। अर्जुन का मोह भ्रम विकट है। यथार्थ ज्ञान तो अनात्म संबंधों से उत्पन्न समस्त बंधनों को छिन्न कर देता है, और अर्जुन जिसे ज्ञान समझ रहा था, वह उसके पाशों को और भी दृढ़ बना देता है। तभी तो श्रीभगवान् उससे कहते हैं -'प्रज्ञावादांश्च भाषसे', तू प्रज्ञा वादों को बोल रहा है।
प्रज्ञावाद : कथनी और करनी में अंतर
प्रज्ञावाद का क्या मतलब? प्रज्ञा का अर्थ है बुद्धि। जब हम बुद्धि में उठने वाले विचारों को एक विशिष्ट सीमा में बांध देते हैं, यानी जब हम अपनी बुद्धि को किसी विशिष्ट विचारधारा के हाथ बेच देते हैं और उसका उपयोग पूर्वाग्रह या दुराग्रह से रहित चिंतन के लिए न कर, अपने मन में पोषित प्रिय लगने वाले विचारों के लिए करते हैं, तो यह प्रज्ञावाद कहलाता है। इस प्रज्ञावाद का लक्षण यह है कि हम मुंह से तो बड़ी-बड़ी बातें कहेंगे, पर हमारे कार्य उन बातों के अनुरूप नहीं होंगे। कथनी और करनी का अंतर प्रज्ञावाद का विशिष्ट लक्षण है। तभी तो श्रीभगवान् कहते हैं कि अर्जुन! तू प्रज्ञावादों को बोल रहा है, ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें तो कर रहा है, पर तेरा कार्य इन बातों के अनुरूप नहीं है। क्यों? इसलिए कि 'त्वम् अशोच्यान् अन्वशोचः' -तू उनके लिए शोक करता है जो शोक करने योग्य नहीं। तू पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के लिए शोक कर रहा है, पर जरा सोंच, क्या ये शोक करने योग्य हैं? भौतिक दृष्टि से देख तो ये शूर-वीर और पराक्रमी हैं, आध्यात्मिक दृष्टि से देख तो सदाचारी और पुण्यात्मा है। अतः उनके लिए शोक करने कि तूने कौन सी बात देखी? तू पंडितों की सी बातें तो कर रहा है, पर तू क्या जानता नहीं कि जो वास्तविक ही पंडित होते हैं, वे न तो 'गतासूनो' के लिए शोक करते हैं, न 'अगतासूनों' के लिए।
'गतासून्', 'अगतासून्' शब्दों की व्याख्या
यहां पर ये दो शब्द महत्वपूर्ण हैं। 'गतासून्' का अर्थ है जिनमें से असु यानी प्राण गत हो गए, अर्थात मृत व्यक्ति और 'अगतासून्' का अर्थ है जिनमें प्राण अगत रहें, यानी जीवित व्यक्ति। इस प्रकार भगवान् मानो यह कहते हैं कि पंडित जन मृत या जीवित व्यक्तियों के लिए शोक नहीं करते। मृत के लिए ज्ञानीजन इसलिए नहीं रोते की मृत्यु ही संसार की नियति है, जब सबको एक दिन मृत्यु के कराल गाल में समाना ही है, तो अपरिहार्य के लिए क्यों रोयें? और जीवित की वे अनुशोचना इसलिए नहीं करते कि वे जानते हैं सारे प्राणी अपने अपने स्वभाव से परिचालित हो रहे हैं, वे जानते हैं कि-
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।
-'सभी प्राणी अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं, ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा?' जब ऐसी बात है, तब विवेकी को मृत या जीवित किसी के लिए शोक नहीं करना चाहिए।
एक दूसरी दृष्टि से विचार करें, तो 'गतासून' को शरीर का तथा 'अगतासून' को आत्मा का बोधक शब्द माना जा सकता है। 'गतासून्' का एक अर्थ यह किया जा सकता है कि जिसमें वे प्राणों का आना-जाना बना हो। जिसमें से प्राण गत होते हैं, उसमें आगत भी होते हैं। शरीर में ही प्राणों की हलचल मालूम होती है, अतः 'गतासून्' का लक्षणार्थ 'शरीर' किया जा सकता है। इसी प्रकार, 'अगतासून्' वह है, जिसमें प्राणों की कभी कोई पहुंच नहीं, प्राणों की हलचल नहीं। आत्मा में प्राणों की कोई क्रिया नहीं। अतएव'अगतासून्' का अर्थ लक्षणा के द्वारा 'आत्मा' पकड़ा जा सकता है। और पंडित उसे कहते हैं, जिसकी बुद्धि आत्मविषयक हो।
पंडित कौन
श्रीशंकराचार्य इस 'पंडित' शब्द पर भाष्य करते हुए कहते हैं- 'पण्डा आत्मविषया बुद्धिः येषां ते हि पण्डिताः' -'आत्मविषयक बुद्धि का नाम पंडा है और वह बुद्धि जिनमें हो वह पंडित हैं।' इस तरह इस श्लोक के उत्तरार्द्ध का अर्थ यह हुआ कि जो आत्ममति रखने वाले ज्ञानीजन है। वे न तो शरीर के लिए शोक करते हैं और न आत्मा के लिए। शरीर के लिए शोक करना इसलिए अनुचित है कि वह एक न एक दिन तो नष्ट होगा ही, और आत्मा के लिए शोक इसलिए नहीं किया जा सकता कि वह कभी मरता ही नहीं। अर्जुन! तू बातें तो ज्ञानी की-सी कर रहा है, पर तेरे आचरण अज्ञानी के-से हैं।
अर्जुन ने भगवान् की बातों पर विचार किया। उसने सोचा कि भगवान् ने भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य को जो शोक नहीं करने योग्य बताया सो तो ठीक है, पर मैं मात्र इन्हीं दोनों के लिए तो शोक नहीं कर रहा हूं, मेरा हृदय तो उन सभी राजाओं के लिए भी रो रहा है। तो क्या यह राजा गण भी अशोच्य हैं? भगवान कहते हैं- "हां"।
"कैसे"?
इसका उत्तर आगे के श्लोक में भगवान देते हैं।
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