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#गीता |
दुर्योधन की मानसिकता
कूट श्लोक
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।
अस्माकम् - हमारी
तत् - वह
बलम् - सेना ( पाण्डवों पर विजय करने में )
अपर्याप्तम् - अपर्याप्त है, असमर्थ है, ( क्यों कि )
भीष्माभिरक्षितम् - उसके संरक्षक ( उभयपक्षपाती ) भीष्म हैं।
तु - परन्तु
एतेषाम् - इन पाण्डवों की
इदम् - यह
बलम् - सेना ( हमपर विजय करने में )
पर्याप्तम् - पर्याप्त है, समर्थ है, ( क्यों कि )
भीमाभिरक्षितम् - इसके संरक्षक ( निजसेनापक्षपाती ) भीमसेन हैं।
इस श्लोक के अर्थ में बहुत मतभेद है। दुर्योधन के कथन का आशय स्पष्ट नहीं है। इसलिए बात बहुत गोलमोल मालूम होती है। कुछ व्याख्याकारों का मत है कि यह श्लोक कूट श्लोकों के अंतर्गत आता है। हम पहले कह चुके हैं कि महाभारत के ही अनुसार उसके कूट श्लोकों की संख्या 8800 है। पर यह कहना कठिन है कि वे 8800 कूट श्लोक कौन से हैं। कूट श्लोक वे थे, जिन्हें समझने के लिए गणेश जी को भी लेखनी रख देनी पड़ी थी।
'अपर्याप्त' का जो अर्थ साहित्य में प्रचलित है, वह है -'जो पर्याप्त न हो'। 'पर्याप्त' का अर्थ 'बस' या 'काफी' माना जाता है। इससे 'अपर्याप्त' का सामान्य अर्थ हुआ 'जो काफी न हो' यानी जो पूरा न पड़ता हो। यदि 'पर्याप्त' और 'अपर्याप्त' का यही अर्थ लें, तब दुर्योधन के कथन का यह तात्पर्य होगा कि उसकी स्वयं की सेना का बल पांडवों को हराने के लिए पूरा न पड़ेगा, जबकि पांडवों का सैन्य बल उसकी अपनी सेना को हराने के लिए काफी है। पर प्रश्न उठता है कि क्या दुर्योधन इस आशय की बात अपने ही पक्ष के लोगों से कह सकता है? फिर ऐसा कहना तो भीष्म पितामह की प्रतिष्ठा पर आघात करना है। आगे के श्लोकों से पता चलता है कि दुर्योधन की बात भीष्म पितामह भी सुन रहे थे। तो क्या दुर्योधन पितामह के सुनते उन पर ऐसा आक्षेप कर सकता है? फिर, भीष्म कौरवों के सेनापति थे। सेनापति पर ऐसे विषम समय में, और वह भी उसके सुनते, कोई राजा ऐसा आक्षेप कर सकेगा इसकी तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। दुर्योधन इतना विचारहीन नहीं था कि भीष्म को नाहक रुष्ट कर ले। फिर, महाभारत के युद्ध प्रकरण में हमें ज्ञात होता है कि दुर्योधन मन ही मन भीष्म से बड़ा डरता था। वह उनके सामने किसी प्रकार का आक्षेप या कटाक्ष नहीं कर सकता था।
दूसरी बात यह कि इसके पहले दुर्योधन ने पांडवों से हार जाने की बात कभी नहीं कही। जब भी युद्ध की चर्चा हुई, तो दुर्योधन ने सदैव जोर देकर यही कहा कि जीत उसी की होगी। महाभारत के उद्योगपर्व(55/65-68) में धृतराष्ट्र से अपनी सेना का वर्णन करते हुए वह कहता है-
अक्षौहिण्यो हि मे राजन् दशैका च समाहृताः।
न्यूनाः परेषां सप्तैव कस्मान्मे स्यात् पराजयः।।
बलं त्रिगुणतो हीनं योध्यं प्राह बृहस्पतिः।
परेभ्यस्त्रिगुणा चेयं मम राजन्ननीकिनी।।
गुणहीनं परेषां च बहु पश्यामि भारत।
गुणादयं बहुगुणमात्मनश्च विशाम्पते।।
एतत् सर्वं समाज्ञाय बलाग्रद्यं मम भारत।
न्यूनतां पाण्डवानां च न मोहं गन्तुमर्हसि।।
-'महाराज! अपने यहां 11 अक्षौहिणी सेना संग्रहित हो गई है, परंतु शत्रुओं के पक्ष में हमसे बहुत कम, कुल 7 अक्षौहिणी सेनाएं हैं, फिर मेरी पराजय कैसे हो सकती है? राजन्! बृहस्पति का कथन है कि शत्रुओं की सेना अपने से एक तिहाई भी कम हो, तो उसके साथ अवश्य युद्ध करना चाहिए। परंतु मेरी यह सेना तो शत्रुओं की अपेक्षा 4 अक्षौहिणी अधिक है, इसलिए यह अंतर मेरी संपूर्ण सेना की एक तिहाई से भी अधिक है। भारत! प्रजानाथ! मैं देख रहा हूं कि शत्रुओं का बल हमारी अपेक्षा अनेक प्रकार से गुणहीन (न्यूनतम) है, परंतु मेरा अपना बल सब प्रकार से बहुत अधिक एवं गुणशाली है। भरतनंदन! इन सभी दृश्यों से मेरा बल अधिक है और पांडवों का बहुत कम है, यह जानकर आप व्याकुल एवं अधीर न हों।'
फिर, युद्ध के दूसरे दिन भी जब पांडवगण क्रौंच नामक व्यूह की रचना करते हैं, दुर्योधन अपने पक्ष के वीरों को संबोधित करके कहता है ( भीष्मपर्व, 51/5)-
एकैकशः समर्था हि यूयं सर्वे महारथाः।
पाण्डुपुत्रान् रणे हन्तुं ससैन्यान् किमु संहताः।।
-'आप सभी महारथी हैं। आप में से प्रत्येक योद्धा रणक्षेत्र में सेना सहित पांडवों का वध करने में समर्थ है। फिर सब लोग मिलकर उन्हें परास्त कर दें, इसके लिए तो कहना ही क्या है।'
इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि दुर्योधन युद्ध के समय अपने पक्ष के हार जाने की बात कैसे कहेगा? इससे क्या उसके पक्ष की सेना कुंठा ग्रस्त न हो जाएगी? वस्तुतः दुर्योधन को चाहिए कि अपनी सेना का 'मोरेल' ऊंचा रखें, उसके उत्साह को बढ़ाए। और यही वह करता भी है।
अतएव यही समीचीन मालूम पड़ता है कि 'अपर्याप्त' और 'पर्याप्त' शब्दों को प्रचलित अर्थ में नहीं लेना चाहिए, बल्कि इनका संदर्भ के अनुसार क्रमशः 'अपरिमित' और 'परिमित' अर्थ करना चाहिए। 'पर्याप्त' शब्द का धातु अर्थ होता है 'चारों ओर से सीमित'। 'अपर्याप्त' का अर्थ इसका उलटा हुआ। अतः दुर्योधन के कथन का तात्पर्य यह होता है कि हमारी सेना अपरिमित है और पांडवों की सेना सीमित है। फिर हमारी ओर से सेनानायक परम प्रतापी भीष्म है, वे ही हमारे अभिरक्षक हैं, जबकि पांडवों का अभिरक्षक वह चंचलमना, अविवेकी भीम है। अतएव हमारी जीत सुनिश्चित है।
कुछ टीकाकारों ने ऐसी भी व्याख्या की है कि पांडवों की व्यूहबद्ध सेना को देखकर दुर्योधन डर गया था, इसलिए वह अपने सैन्य बल को अपर्याप्त (कम) मानता है और पांडवों की सैन्य शक्ति को पर्याप्त (काफी)। यह दृष्टिकोण भी उचित मालूम पड़ता है, क्योंकि भीतर के भय के कारण ही दुर्योधन की बातें कुछ अटपटी सी निकल रही थी। वह भीतर से पांडवों से भयभीत तो था, पर अपने इस भय को बाहर प्रकट नहीं होने देना चाहता था। तथापि उसकी कुंठा भीष्म की अंतरभेदी दृष्टि से अछूती न रह सकी, जैसा कि हम आगे देखेंगे। उसके वचन की अस्पष्टता उसकी कुंठा का ही फल है।
इस श्लोक में और एक शंका यह आती है कि दुर्योधन अपनी सेना के लिए तो 'तत्' (वह) शब्द का प्रयोग करता है तथा पांडवों की सेना के लिए 'इदम्' (यह) का। वस्तुतः जो अपने से दूर हो उसके लिए 'तत्' का प्रयोग किया जाता है और जो अपने समीप हो उसके लिए 'इदम्' का। इसकी भी व्याख्या कई प्रकार से की गई है। यहां पर हम दो महत्वपूर्ण व्याख्याओं का ही उल्लेख करेंगे।
एक के अनुसार 'अस्माकम्' और 'एतेषाम्' इन दो शब्दों को षष्ठी में न लेकर चतुर्थी में लिया है तथा 'भीष्माभीरक्षितम्' एवं 'भीमाभिरक्षितम्' पदों में बहुव्रीहि समास माना गया है। इससे श्लोक का अर्थ यों होगा कि अस्माकं भीष्माभीरक्षितं बलम् (हमारे भीष्म द्वारा रक्षित सैन्य के लिए यानी उसे जीतने के लिए) तद् अपर्याप्तम् (वह यानी पांडवों की सेना अपर्याप्त है), तथा एतेषां भीमाभिरक्षितं बलम् (इनकी भीम द्वारा रक्षित सेना के लिए यानी उसे जीतने के लिए) इदं पर्याप्तम् (यह यानी हमारी सेना पर्याप्त है)। इस व्याख्या के अनुसार 'तत्' और 'इदम्' का अर्थ भी ठीक घट जाता है तथा 'पर्याप्त' और 'अपर्याप्त' के सामान्य प्रचलित अर्थ को बदलने की भी आवश्यकता नहीं होती। पर हां इसमें शब्दों की तोड-मोरोड कुछ अधिक करनी पड़ती है।
दूसरी व्याख्या के अनुसार 'तत्' को 'तस्मात्' (इसलिए) के अर्थ में लिया गया है, परंतु यहां 'पर्याप्त' और 'अपर्याप्त’ का अर्थ 'परिमित' और 'अपरिमित' लिया गया है। इसके अनुसार इस श्लोक का संबंध पिछले से विशेष रूप से जुड़ जाता है। इसके पहले दुर्योधन ने कहा था कि अन्य बहुत से शूरवीर मेरे लिए अपने प्राणों को त्याग कर खड़े हैं। अब इस श्लोक में इसी का निष्कर्ष निकालते हुए कहता है -'इसलिए भीष्म से अभिरक्षित हमारा सैन्यबल अपरिमित हैं, जबकि भीम से अभिरक्षित इन पांडवों का यह सैन्यबल परिमित है।' यहां पांडवों के लिए 'एतेषाम्' (इन) और उनके सैन्य बल के लिए 'इदम्' (यह) शब्दों का जो प्रयोग हुआ है, वह भी संदर्भ में घट जाता है। जहां दो पक्षों के संबंध में कहा जाता हो, वहां समीप के लिए 'यह' और दूरस्थ के लिए 'वह' का प्रयोग वांछनीय है, पर जहां एक ही पक्ष के संबंध में कहां जा रहा हो, वहां 'यह' कहना दोषपूर्ण नहीं है। फिर पांडव सेना तो सामने ही खड़ी थी। अतएव यदि दुर्योधन उसके लिए 'इदम्' और 'एतेषाम्' कहता हो, तो इसमें कोई अनुचित नहीं है। वह तो पहले भी ( तीसरे श्लोक में ) पांडव सेना के लिए 'एताम्' (इन) का प्रयोग कर चुका है।
इस श्लोक में अंतिम शंका यह खड़ी होती है कि दुर्योधन ने अपनी सेना को जो 'भीष्माभिरक्षित' कहा, वह तो ठीक कहा, क्योंकि भीष्म कौरवों के सेनापति थे; पर उसने पांडव सेना के लिए 'भीमाभिरक्षित' क्यों कहा, जबकि पांडवों की ओर का सेनापति धृष्टद्युम्न था? इसका समाधान यह है कि पहले दिन पांडवों ने वज्र नाम का जो व्यूह रचा था, उसकी रक्षा के लिए इस व्यूह के अग्रभाग में भीम को नियुक्त किया गया था। अतएव दुर्योधन की आंखों में उस समय भीम ही सेनारक्षक के रूप में दिखाई दे रहे थे। तभी तो महाभारत में, गीता के पूर्व के अध्यायों में, जहां पर दोनों सेनाओं का वर्णन हुआ है, वहां उन्हें 'भीमनेत्र' और 'भीष्मनेत्र' कहा गया है।
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