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गीताध्याय -1, श्लोक -31,32,33,34,35,36,37,38,39

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#गीता

मोह की प्रतिक्रिया

अर्जुन के वैराग्य का स्वरूप

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।। (31)
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।। (32)

आहवे - युद्ध में
स्वजनम् - स्वजनों को
हत्वा - मारकर
श्रेयः - श्रेय ( लाभ )
च - भी
न - नहीं
अनुपश्यामि - देख रहा हूँ।
कृष्ण - हे कृष्ण! ( मैं )
न - न ( तो )
विजयम् - विजय
काङ्क्षे - चाहता हूँ,
न - न
राज्यम् - राज्य ( चाहता हूँ )
च ( न ) - और न
सुखानि - सुखों को ( ही चाहता हूँ )।
गोविन्द - हे गोविन्द!
नः - हम लोगों को
राज्येन - राज्य से
किम् - क्या लाभ?
भोगैः - भोगों से ( क्या लाभ?)
वा - अथवा
जीवितेन - जीने से ( भी )
किम् - क्या लाभ?

    पिछले भाग में हमने अर्जुन की मनः स्थिति के संबंध में आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार किया था। यहां हम उसे यह कहते सुनते हैं कि वह विजय और राज्य के सुख का उपभोग नहीं करना चाहता। 28वें श्लोक पर विचार करते हुए हमने कहा था कि अर्जुन को कौरव पक्ष में अब शत्रु नहीं दिखाई पड़ते, बल्कि स्वजन देख पढ़ते हैं। इस'स्व' और 'पर' के भेद के कारण अर्जुन मोह के भंवर में फंस गया है। और मोह की तीव्रता ऐसी है कि वह अब युद्ध भी नहीं करना चाहता।
     ऐसा क्या कारण उपस्थित हो गया कि अर्जुन को विजय में कोई रुचि नहीं रही, राज्य और उससे प्राप्त होने वाले सुख उसके लिए अचानक अलोने हो गए? अर्जुन के मन में लोगों, यहां तक कि, जीवन के प्रति यह विरक्ति कहां से आ गई? अर्जुन अपने जीवन को भी असार समझने लगा। ऊपर से देखने में यह वैराग्य सा ही लगता है, क्योंकि जब किसी व्यक्ति के जीवन में वैराग्य का आगमन होता है, तो वह इसी प्रकार वर्तन करने लगता है। उसे इंद्रियों के सुख भोग नहीं सुहाते, उसमें अर्थ की लालसा नहीं दिखाई देती, यहां तक कि उसे अपने शरीर के प्रति भी छोह नहीं होता।
      यह वैराग्य मनुष्य के जीवन में दो रास्तों से आता है। एक तो है ज्ञान, चिंतन और विवेक का रास्ता। यह साधक का रास्ता है। साधना करते करते जब ज्ञान और चिंतन परिपक्व होता है तथा विवेक सुदृढ बनता है, तब वैराग्य का भाव जीवन में उपस्थित होता है। दूसरा रास्ता है हताशा, असफलता और अविवेक का। वैराग्य इस दूसरे रास्ते से भी मनुष्य के शरीर में घुसा करता है, और वास्तव में तो अधिकांश लोगों के जीवन में वैराग्य इसी दूसरे रास्ते से प्रविष्ट होता है। इस दशा में वह वैराग्य यथार्थ न होकर 'मर्कट' या 'श्मशान' की संज्ञा प्राप्त करता है, जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं, ऐसा बैराग्य अधिक टिकाऊ नहीं होता।
     अर्जुन का वैराग्य इसी दूसरी कोटि का था। उसका वैराग्य ज्ञान और विवेक पर आधारित न हो, मोह पर आधारित था। उसका कथन दर्शनीय है-

येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च।। (33)
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।। (34)

येषाम् - जिनके
अर्थे - लिए
नः - हमारे द्वारा
राज्यम् - राज्य
भोगाः - भोग
सुखानि च - और सुख
काङ्क्षितम् - इच्छा है
ते - वे
इमे - ये
आचार्याः - आचार्यजन
पितरः - ताऊ चाचे
पुत्राः - पुत्र
तथा एव च - और उसी प्रकार
पितामहाः - पितामह
मातुलाः - मामा
श्वशुराः - श्वशुर
पौत्राः - पोते
श्यालाः - साला
तथा - एवं
सम्बन्धिनः - [अन्य] सगे सम्बन्धी
प्राणान् - प्राणों
धनानि च - और धन को
त्यक्त्वा - छोडकर
युद्धे - रण में
अवस्थिताः - खडे हैं।

    यद्यपि अर्जुन के इस कथन से उसका आसक्तिजन्य मोह ही प्रकट होता है, तथापि इसमें एक तत्व निहित है और वह है दूसरों के लिए जीना। अर्जुन कहता है कि उसे अपने लिए राज्य लेकर क्या करना है? मानव के मन का जब विकास होता है, तो वह अपने शरीर की क्षुद्र सीमा में बंधा रहना नहीं चाहता। वह कुछ उदार होता है। जब वह बच्चा होता है तब केवल अपने लिए जीता है। जैसे-जैसे बड़ा होता है, वह अपने स्वार्थ को लांघकर परिवार के लिए जीने का प्रयास करता है। इससे भी उच्चतर अवस्था वह है, जब वह परिवार को लांघकर समाज के लिए जीने की चेष्टा करता है। इस स्तर पर समाज के वृहत्तर लाभ के समक्ष वह अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक लाभ को तिलांजलि दे देता है। ऐसे ही लोग नरपति होते हैं। अर्जुन एक नरपति था। नृपति होने के नाते उसे प्रजा के, समाज के स्वार्थ को बड़ा बनाना था। वह न्याय की रक्षा के लिए कौरवों से युद्ध करने को विवश होता है। यदि वह कौरवों के अन्याय का प्रतिकार न करें, तो अपने राज उचित कर्तव्य से च्युत होता है। पर युद्धभूमि में अपनी आंखों से अपने निकट संबंधियों को मृत्यु के लिए तैयार खड़े देख, उसके अवचेतन मन में दबे आसक्ति के संस्कार इस तीव्रता से उभर आते हैं कि वह का उठता है-

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं महीकृते।। (35)

मधुसूदन - हे मधुसूदन!
घ्नतः अपि - मारा जाकर भी
त्रैलोक्यराज्यस्य - त्रिलोकी के राज्य के
हेतोः - लिए
अपि - भी
एतान् - इन्हें
हन्तुम् - मारने की
न - नहीं
इच्छामि - इच्छा करता
महीकृते - पृथ्वी के लिए
किं नु - फिर क्या बात।

     अर्जुन अपने प्रतिपक्ष के स्वजनों से मारा जाना पसंद करता है, पर उन पर हथियार उठाना उचित नहीं समझता। जब त्रिलोकी के राज्य की उसके सामने कोई कीमत नहीं, तो धरती के राज्य की भला उसे क्या परवाह है? जो अर्जुन कौरवों को मजा चखाने के लिए उत्सुक था, उसके हृदय में उनके प्रति प्रेम का यह दरिया अचानक कहां से उमड़ने लगा? दो स्थितियां हो सकती हैं -या तो अर्जुन होश में है और सचमुच उसके मन में सांसारिक सुख भोगो के प्रति उदासीनता आ गई है, या फिर वह एक प्रकार की बेहोशी की अवस्था में है, जब उसे स्वयं ही मालूम नहीं कि वह क्या बोल रहा है। इन दोनों में से वह कौन सी स्थिति में है, इसका निर्णय अगला श्लोक देता है।
     यहां पर श्रीकृष्ण के लिए 'गोविंद' और 'मधुसूदन' इन दो नामों का प्रयोग हुआ है। पहले नाम के संदर्भ में महाभारत में निम्नलिखित श्लोक प्राप्त होता है-
देवदेवः क्षितिं गत्वा कृष्णं दृष्ट्वा मुदान्वितः।
गोविन्द इति तं ह्यु क्त्वा ह्यर्भ्याषचत् पुरन्दरः।।
     -'देवाधिदेव इंद्र ने भूतल पर जाकर जब श्रीकृष्ण को (गोवर्धन धारण किए) देखा, तब उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने श्रीकृष्ण को "गोविंद" नाम लेकर उनका ("गवेन्द्र" पद पर) अभिषेक किया।'
     इस प्रकार गोवर्धन धारण करके गौओं तथा व्रजवासियों की रक्षा करने के कारण उनका नाम 'गोविंद' हुआ तथा मधु नामक दैत्य का वध करने के कारण व 'मधुसूदन' नाम से परिचित हुए।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ।। (36)

जनार्दन - हे जनार्दन! ( इन )
धार्तराष्ट्रान् - धृतराष्ट्र सम्बन्धियों को
निहत्य - मारकर
नः - हम लोगों को
का - क्या
प्रीतिः - प्रसन्नता
स्यात् - होगी?
एतान् - इन
आततायिनः - आततायियों को
हत्वा - मारने से तो
अस्मान् - हमें
पापम् - पाप
एव - ही
आश्रयेत् - लगेगा।

     दस्युओं को त्रास या पीड़ा देने के कारण श्रीकृष्ण 'जनार्दन' कहलाते हैं। महाभारत में कहा है -'दस्युत्रासात् जनार्दनः'। अर्जुन का एक उलाहना भरा आशय यह भी हो सकता है कि आप जन (जनता) का अर्दन (विनाश) करने के आदी रहे हैं, अतएव आपको इस युद्ध में कोई खराबी नहीं दिखाई पड़ती। पर जब मैं इसमें सब प्रकार की हानि देख रहा हूं, तो फिर इस पाप से क्यों न बचें?

आततायी के लक्षण

      हमने ऊपर कहा था कि अर्जुन होश में है अथवा बेहोशी में इसका निर्णय यह श्लोक करता है। वह निर्णय क्या है? यही कि अर्जुन एक प्रकार की बेहोशी में है। बेहोशी में मनुष्य असम्बद्ध बातें करता है, उसकी बातें स्वयं एक दूसरे को काटती हैं। तो इस श्लोक में असंबद्धता कौन सी दिखाई पड़ती है? यही कि एक और अर्जुन कौरवों को 'आततायी' स्वीकार करता है और दूसरी और कहता है कि इस इन आततायियों को मारकर पाप ही हाथ लगेगा। हम अपनी एक पिछली चर्चा में कह चुके हैं कि धर्मशास्त्र के विधान के अनुसार आततायियों को मारना पाप नहीं, बल्कि पुण्य है, अधर्म नहीं, बल्कि धर्म है। मनुस्मृति राजा का कर्तव्य निर्धारित करते हुए कहती है-
गुरूं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुताः।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।
     -'भले वह गुरु हो, एक बालक हो या वृद्ध, ब्राह्मण हो अथवा बहुपाठी विद्वान, लेकिन यदि वह आततायी के रूप में आता है, तो बिना किसी हिचक के उसका वध कर देना चाहिए।'
   यदि कोई पूछे कि आतताई के लक्षण क्या है, तो वशिष्ठ स्मृति उत्तर देते हुए कहती है-
अग्निदो गरदश्चैव शपाणिर्धनापहः।
क्षेत्रदाराहरश्चैव षडेते आततायिनः।।
     -'आग लगाने वाला, जहर देने वाला, हाथ में शस्त्र लेकर मारने आने वाला, धन लूट लेने वाला, जमीन पर जबरदस्ती कब्जा कर लेने वाला तथा पत्नी का अपहरण करने वाला -ऐसे 6 प्रकार के आततायी होते हैं।'
     अर्जुन कौरवों को आततायी मानता है। वह यह भी जानता है कि कौरवों में आततायी के एक या दो लक्षण नहीं, पूरे 6 लक्षण विद्यमान हैं -वारणावत के लाक्षागृह में आग लगा ही दी, भीम को जहर दे मूर्छित अवस्था में नदी में फेंक ही दिया, पांडवों के वनवास के समय दुर्योधन ने अपने अनुचरों को आदेश दिया था कि पांडव जहां कहीं दिख जाएं, उनका वध कर दो, धन लूट ही लिया था, पांडवों के राज्य को भी हड़प लिया था और वन में जयद्रथ के द्वारा द्रोपदी का अपहरण भी करा ही दिया था। पर यह सब जानकर भी अर्जुन कहता है "इन आततायियों को मारकर हमें पाप ही हाथ लगेगा!"
    इसलिए कहा कि अर्जुन प्रलाप कर रहा है। वह सन्निपात के रोगी के समान हो गया है। वह बेहोशी में है। कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक भुला बैठा है।

अर्जुन और सम्राट अशोक के वैराग्य में भेद

      एक भाई ने मुझसे तर्क किया कि अर्जुन की इस वृत्ति को आप 'मोह' क्यों कहते हैं? जैसे सम्राट अशोक को कलिंग विजय में भारी जनहानि देखकर वैराग्य हो गया और उनमें अहिंसा वृत्ति जाग गई, उसी प्रकार आप अर्जुन की स्थिति को भी क्यों नहीं स्वीकार कर लेते? उनके मतानुसार अर्जुन को इतना दयनीय चित्रित करना उचित नहीं। इसका उत्तर मैंने यही दिया अर्जुन की स्थिति सम्राट अशोक की स्थिति से पूर्णतया भिन्न है। सम्राट अशोक के हृदय में विजयश्री प्राप्त करने के बाद अहिंसा वृत्ति जगी थी, जबकि अर्जुन युद्ध के पहले ही अपने वैराग्य की घोषणा करता है। दूसरे अशोक के हृदय परिवर्तन में 'स्व' और 'पर' का संबंध नहीं था, जबकि अर्जुन स्व और पर के भेद से परिचालित होकर ही युद्ध से विरत होना चाहता है। अर्जुन के दीखने वाले वैराग्य के पीछे केवल उसकी स्वजनों के प्रति आसक्ति है। मोह ग्रस्त मनुष्य कभी अपनी कमजोरी को स्वीकार नहीं करता, बल्कि वह कर्तव्य-च्युति को सद्विचार का जामा पहनाने लगता है, जैसा कि अर्जुन ने किया।
      एक किस्सा है। एक न्यायाधीश था। उसने जाने कितने अपराधियों को फांसी की सजा दी थी। किंतु एक दिन जब उसी का लड़का हत्या के अपराध में उसी की अदालत में पेश किया गया, तो न्यायाधीश का स्वर बदल गया। वह दलीलें देने लगा की 'फांसी की सजा अमानवीय है। मनुष्य को ऐसी कठोर सजा देना शोभा नहीं देता। इससे अपराधी की सुधरने की आशा नष्ट हो जाती है। खून करने वाले ने भावना और आवेश में, जोश और उत्तेजना में खून कर डाला। परंतु उसकी आंखों पर से खून का जुनून उतर जाने पर उस व्यक्ति को संजीदगी के साथ फांसी के तख्ते पर चढ़ा कर मार डालना मानवता के लिए बड़ी लज्जा की बात है, बड़ा कलंक है, आदि आदि।' यदि न्यायाधीश के सामने उसका अपना लड़का न होकर अन्य कोई होता, तो उसने बेहिचक उसे फांसी की सजा दे दी होती। पर लड़के के प्रति उसका ममत्व उसके कर्तव्य पालन में आड़े आ रहा था।
     ठीक यही दशा अर्जुन की है। उसका स्वजनों के प्रति ममत्व ही उसके इस आपात वैराग्य का कारण है। उसने अपनी आंखों पर अविवेक का चश्मा चढ़ा लिया है। तभी तो आततायियों के हनन में वह पाप देखता है। कहता है-

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।(37)

तस्मात् - इस लिए
स्वबान्धवान् - अपने बान्धव ( इन )
धार्तराष्ट्रान् - धृतराष्ट्र सम्बन्धियों को
हन्तुम् - मारने के लिए
वयम् - हम
न, अर्हाः - योग्य नहीं हैं,
हि - क्योंकि
माधव - हे माधव!
स्वजनम् - अपने कुटुम्बियों को
हत्वा - मारकर ( हम )
कथम् - कैसे
सुखिनः - सुखी
स्याम - होगें?

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।। (38)
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।। (39)

यद्यपि - यद्यपि
लोभोपहतचेतसः - लोभ के कारण जिनका विवेक विचार लुप्त हो गया है,ऐसे
एते - ये ( दुर्योधन आदि )
कुलक्षयकृतम् - कुल का नाश करने से होने वाले
दोषम् - दोष को
च - और
मित्रद्रोहे - मित्रों के साथ द्वेष करने से होने वाले
पातकम् - पाप को
न - नहीं
पश्यन्ति - देखते, ( तो भी )
जनार्दन - हे जनार्दन!
कुलक्षयकृतम् - कुल का नाश करने से होने वाले
दोषम् - दोष को
प्रपश्यद्भिः - ठीक-ठीक जानने वाले
अस्माभिः - हम लोग
अस्मात् - इस
पापात् - पाप से
निवर्तितुम् - निवृत्त होने का
ज्ञेयम् - विचार
कथम् - क्यों
न - न करें?

अर्जुन का यह तर्क उपर्युक्त न्यायाधीश के तर्क के समान है। यदि पारिपार्श्विक घटनाओं को विचार के दायरे में न लिया जाए, तो न्यायाधीश का तर्क सही जचता है। पर जब हम देखते हैं कि न्यायाधीश का सारा विचार अपने अपराधी लड़के को केंद्रित करके है और यह कि उसकी युक्ति अपने लड़के के प्रति आसक्ति से प्रभावित है, तो फिर उसके तर्क में हमारी आस्था नहीं रह जाती। अर्जुन ने कुलक्षय की जो बात कही और अब उससे उत्पन्न दोषों को वह जो गिनाने जा रहा है, वह सब के सब सिद्धांत की दृष्टि से तो सही है, पर जब इस सब के पीछे हम उसकी मानसिकता को देखते हैं, तो ये ही सारी बातें गलत हो जाती हैं।

संसार को देखने के 2 तरीके

    संसार को देखने के दो तरीके हैं -एक तो वह जिसे हम 'आत्मनिष्ठ' ( subjective ) दृष्टिकोण कहते हैं और दूसरा 'पदार्थनिष्ठ' ( objective ) दृष्टिकोण कहलाता है। पदार्थ के अपने कुछ विशिष्ट गुण होते हैं, जो उस पदार्थ के संदर्भ में तो अपरिवर्तनशील हैं, पर व्यक्ति भेद से उनके महत्व और उपादेयता में भिन्नता हुआ करती है। उदाहरणार्थ हम सोने की एक डली लें। सोने की दृष्टि से सोने के जो गुण हैं, वह परिवर्तित नहीं होते, पर विभिन्न व्यक्ति उस डली को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखेंगे -कोई उसमें हार देखेगा, तो कोई कंगन, कोई कर्ण फूल बनाने की इच्छा होगी, वह उस डली में कर्ण फूल दिखेगा। इस प्रकार सोने के साथ रागात्मक संबंध में व्यक्ति भेद से भिन्नता हो जाती है। यदि ये रागात्मक संबंध हटा दिए जाएं, तो व्यक्ति निरपेक्ष दृष्टि से सोने को देखने में समर्थ होगा। उसे सोना सोना ही दिखाई देगा। हम अपनी इस बात को थोड़ा और स्पष्ट करें।
      कल्पना करें कि एक व्यक्ति जरूरत में पढ़कर अपना सोने का गहना बेचने के लिए दुकान पर गया है। इस व्यक्ति के लिए भले ही गाने का रूप सत्य हो, पर दुकानदार के लिए तो सोना ही सत्य है। वह रूप की तनिक परवाह नहीं करता। अगर गहना हाथ से छूटकर नीचे गिर जाए, तो बेचने वाला लपक कर उसे उठा लेता है और देखता है कि कहीं वह क्षत तो नहीं हुआ। दुकानदार अविचलित रहता है। गहने के मुड़ने और टूटने से उसका कोई प्रयोजन नहीं। गहना साबूत हो तो भी उसकी दृष्टि में उसकी उतनी ही कीमत होगी, जितनी कि उसके मुड़ने या टूट जाने पर।
    एक और उदाहरण ले लें। हमारा कोई स्वजन काल कवलित हो गया और हम उसका दाह संस्कार करने श्मशान गए। वहां चिता सजाई और मृत देह को उस पर लिटा दिया। फिर आग लगा दी। बीच में हम देखते हैं कि मृत देह का एक अंग आग से बाहर आ गया है। कोई व्यक्ति लकड़ी लेकर उस अंग को आग में ठेलता है और हम कह उठते हैं -'अरे, जरा धीरे ठेलो!' अचानक यह उद्गार कैसे निकला? अंग तो मुर्दे का है, मुर्दा है। पदार्थनिष्ठ दृष्टि से देखें तो उसे जोर से ठेलें या धीरे से, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। किंतु जब हम आत्म निष्ठ दृष्टि से देखते हैं, तो मुर्दे से हमारा संबंध जुड़ जाता है और हम उसके अंग को जोर से ठेला जाते नहीं देख सकते।
     हमारा सारा मोह तब शुरू होता है, जब परिस्थितियों को उनके वास्तविक स्वरूप में न देखकर हम उनके साथ अपना रागात्मक संबंध जोड़ लेते हैं। इससे व्यक्ति निरपेक्ष नहीं रह पाता, और इसीलिए जीवन की सारी भूल हुआ करती है। तब हमारा संतुलन उपर्युक्त न्यायाधीश के समान, अर्जुन के समान बिगड़ जाता है और जांच के हमारे सारे मापदंड ही बदल जाते हैं। गीता इसी असंतुलन को ठीक करने की शिक्षा देती है।

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