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गीताध्याय -1, श्लोक -12-13

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भीष्म द्वारा शंखनाद


तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्।। (12)

तस्य - उस ( दुर्योधन ) के
हर्षम् - ( हृदय में ) हर्ष
सञ्जनयन् - उत्पन्न करते हुए
कुरुवृद्धः - कौरवों में वृद्ध
प्रतापवान् - प्रभावशाली
पितामहः - पितामह भीष्म ने
सिहनादम् - सिंह के समान
विनद्य - गरजकर
उच्चैः - जोर से
शंङ्खम् - शंख
दध्मौ - बजाया।

    दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से जो कहा, उसका वर्णन कर संजय अब धृतराष्ट्र को बतलाते हैं कि युद्ध कैसे प्रारंभ हुआ। भीष्म तो दुर्योधन की बात सुन ही रहे थे। वे उसकी कुंठा को पकड़ लेते हैं। वे जान जाते हैं कि वास्तव में दुर्योधन अंदर ही अंदर पांडवों से डर रहा है। भले वह शिखंडी का बहाना बताकर भीष्म की सब प्रकार से रक्षा करने की बात कह रहा है, पर असल में वह भयभीत हो गया है। फिर भीष्म यह भी देखते हैं कि दुर्योधन के इतना सब कहने पर भी द्रोणाचार्य ने प्रत्युत्तर में उसको बढ़ावा देते हुए कुछ न कहा, बल्कि वे एक प्रकार से उदासीन भाव धारण करते हैं। भीष्म ने सोचा कि इससे तो दुर्योधन का ह्रदय और भी बैठ जाएगा, इसलिए वह उसके हर्ष को उत्पन्न करते हुए जोरों से सिंह के समान दहाड मारकर अपना शंख फूंकते हैं। दुर्योधन के हर्ष को 'उत्पन्न करना पड़ रहा है', इसका तात्पर्य है कि उसका हर्ष गायब हो चुका है।
      भीष्म कौरवों के सेनापति हैं। उनका शंख फूंकना यह दर्शाता है कि कौरव ही युद्ध का प्रारंभ करते हैं। वैसे तो आक्रमणकारी पांडव थे और नियम के अनुसार उन्हें ही प्रथम शंख ध्वनि करनी थी। पर वे चुप है, शांतिप्रिय हैं और सोचते हैं कि अंत तक भी यदि किसी तरह समझौता हो जाए, तो उत्तम है। यह पांडवों की शांतिप्रिय नीति तथा कौरवों की आक्रामक नीति को प्रदर्शित करता है। फिर संभवतः भीष्म यह सोचते हैं कि यदि और कुछ विलंब हुआ तो संभव है, द्रोणाचार्य की उपेक्षा दुर्योधन के रहे सहे साहस को भी खत्म कर दें, इसलिए वे युद्ध में और अधिक देर नहीं करना चाहते। तभी तो वह सिंह गर्जन करते हुए शंख फूंक देते हैं। सिंहगर्जन पांडवों को एक ललकार हैं, चुनौती है।

ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।। (13)

ततः - उसके बाद
शंङ्खाः - शंख
च - और
भेर्यः - भेरी ( नगाडे )
च - तथा
पणवानकगोमुखाः - ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे
सहसा - एक साथ
एव - ही
अभ्यहन्यन्त - बज उठे। ( उनका )
सः - वह
शब्दः - शब्द
तुमुलः - बडा भयंकर
अभवत् - हुआ।

     बाजों का बजाया न जाकर अचानक बज उठना एक ओर हड़बड़ी सूचित करता है, तो दूसरी ओर अमंगल। यहां यह तो कहा कि आवाज बड़ी भयंकर हुई, पर यह न कहा कि पांडवों पर उसका कोई प्रभाव पड़ा।
      कौरव सदैव से आक्रामक रहे हैं। महाभारत के युद्ध में भी भला वे क्यों न वैसा होते? कौरवों की ओर से प्रथम शंखनाद उनके इसी स्वभाव की पुष्टि करता है।

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