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#गीता |
अर्जुन के मन में पाप का भय
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।। (4)
मधुसूदन - हे मधुसूदन!
अहम् - मैं
सङ्ख्ये - रणभूमि में
भीष्मम् - भीष्म
च - और
द्रोणम् - द्रोण के
प्रति - साथ
इषुभिः - बाणों से
कथम् - कैसे
योत्स्यामि - युद्ध करुं? ( क्यों कि )
अरिसूदन - हे अरिसूदन! ( ये )
पूजार्हौ - दोनों ही पूजा के योग्य हैं।
"अर्जुन बोला- हे मधुसूदन! रणभूमि में पितामह भीष्म और गुरु द्रोण के साथ में किस प्रकार बाणों से युद्ध कर सकूंगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही तो पूजा के पात्र हैं।"
लोग कहते हैं कि अर्जुन की रक्षा के लिए तो स्वयं भगवान ही गुरु बनकर आए थे, हमारी रक्षा के लिए ऐसा गुरु कहां से आएगा? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यदि हम ईश्वर पर पूरा भरोसा रखें और ऐसे विकट क्षणों में उनकी कृपा की याचना करें, तो अवश्य हमारे जीवन में भी ऐसे सतगुरु को भेज देंगे, जिनका मार्गदर्शन हमें पदच्युत होने से बचा लेगा। यह आध्यात्मिक राज्य का अटल सिद्धांत है कि जो भी ईश्वर को सच्चे हृदय से चाहता हुआ उनसे प्रकाश की कामना करता है, उनके जीवन में प्रकाश आता ही है।
यहां पर अर्जुन श्रीकृष्ण को 'मधुसूदन' और 'अरिसूदन' कहकर संबोधित करता है। यह दोनों संबोधन प्रायः एक सा ही अर्थ रखते हैं और ऊपर से देखने पर पुनरुक्ति दोष प्रतीत होता है। पर यदि हम यह ध्यान रखें कि अर्जुन विकल है, तो इस दोष का मार्जन हो जाता है; क्योंकि विकलता में इस प्रकार की पुनरुक्ति स्वाभाविक है। एक टीकाकार ने इन दो संबोधनो का अर्थ लगाया है कि अर्जुन भगवान कृष्ण को 'मधुसूदन' और 'अरिसूदन' के नाम से पुकार कर मानो यह कह रहा है कि आप भले ही दैत्य और शत्रु के संहारक हैं, पर पितामह भीष्म और गुरु दौर न तो दैत्य हैं, न मेरे शत्रु। अतः मैं इन्हें मारने की कामना कैसे कर सकता हूं?
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्श्रे
यो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।। (5)
महानुभावान् - महानुभाव
गुरून् - गुरुजनों को
अहत्वा - न मारकर
इह - इस
लोके - लोक में ( मैं )
भैक्ष्यम् - भिक्षा का अन्न
भोक्तुम् - खाना
अपि - भी
श्रेयः - श्रेष्ठ ( समझता हूं );
हि - क्यों कि
गुरून् - गुरुजनों को
हत्वा - मारकर
इह - यहां
रुधिरप्रदिग्धान् - रक्त से सने हुए ( तथा )
अर्थकामान् - धन की कामना की मुख्यता वाले
भोगान् - भोगों को
एव - ही
तु - तो
भुञ्जीय - भोगूंगा।
"ऐसे महात्मा और पूज्य गुरुजनों को मारने के बदले इस जगत् में भीख मांगकर खाना भी निःसंदेश श्रेयस्कर है, क्योंकि गुरुओं को मारकर इस संसार में आखिर उनके रक्त से सने हुए ही अर्थ और काम रूप भोगों को तो भोगूंगा।"
अर्जुन कहता है कि गुरुजनों को मारकर जो राज्य दुख सुख प्राप्त होगा, वह उनके रुधिर से सना होगा, इसलिए यह मेरे लिए सर्वथा त्याज्य है। अगर कहो कि तुम यदि युद्ध नहीं करोगे, तो राज्य सुख नहीं मिलेगा और यदि राज्य सुख नहीं मिलेगा, तो तुम्हारे भोजन की व्यवस्था कैसे होगी? पास में यदि भूमि रहे, तो अन्न की व्यवस्था संभव हो; पर यदि जमीन या संपत्ति ही न हो तो अपना पेट कैसे भरोगे? अर्जुन कहता है- भीख मांग कर। वह भिक्षा के द्वारा जीवन यापन कर लेगा, पर अपने हाथों को अपने गुरुजनों के रक्त से रंगना नहीं चाहेगा। यदि कोई अर्जुन से पूछें कि क्या तुम शास्त्र वचन नहीं जानते?
"कौन से शास्त्र वचन?"
"यही कि
पिताचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।
नादण्डय्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति।।
-पिता, आचार्य, मित्र, माता, पत्नी, पुत्र और पुरोहित इनमें जो स्वधर्म में न चले, वह राजा के द्वारा दंड दिए जाने योग्य है।"
"हां यह तो जानता हूं।"
"और क्या यह भी नहीं जानते हो कि
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।
उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।।
-यदि गुरु भी दोष में लिप्त हो और कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार न कर सके तथा अपने ही घमंड में रहकर टेढ़े रास्ते से चले, तो उनको दंड देना न्याययुक्त है?"
"हां यह भी जानता हूं।"
"अच्छा, तो क्या तुम्हें यह भी मालूम है कि
गुरुं वा बाल वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।
-चाहे गुरु हो, बालक हो या वृद्ध, चाहे ब्राह्मण हो या बहुत से शास्त्रों का ज्ञाता, पर यदि वह आततायी के रूप में सामने आता है, तो बिना किसी हिचक से उसका वध कर देना चाहिए।"
"हां, यह भी मुझे मालूम है।"
"यदि तुम्हें यह सब मालूम है, तो फिर गुरुजनों से युद्ध करने में हिचक क्यों रहे हो? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि जब युधिष्ठिर युद्ध के लिए आज्ञा और आशीर्वाद मांगने भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा शल्य के पास गए और उनकी पाद वंदना की, तो उन लोगों ने विवशता के स्वर में युधिष्ठिर से कहा-
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति सत्यं महाराज वृद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ।।
-'पुरुष पैसे का दास है, पैसा किसी का दास नहीं, यह सत्य है और इसी कारण से महाराज! हम कौरवों के धन से बँध गए हैं?' यदि तुम इस बात को जानते हो, तो यह भी समझते हो कि तुम जिन्हें गुरुजन कह रहे हो, वे लोभ वश स्वधर्म से च्युत हो गए हैं और कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक खो बैठे हैं। अतः वह दंडनीय है। फिर, आततायी कौरवों का पक्ष लेकर वे भी आततायी की श्रेणी में चले गए हैं, अतएव वध्य हैं। तब तुम क्यों इन पर बाण की वर्षा करने से जी चुरा रहे हो?"
"इसलिए कि मैं इन्हें स्वधर्मच्युत, अविवेकी और आततायी नहीं मानता। भले ही ये अर्थ की कामनावश कौरवों का साथ दे रहे हैं, तथापि इन्हें महानुभाव ही मानता हूं। सामान्य अर्थ एवं काम की वृत्तियों कि क्षुद्र संतुष्टि के लिए मैं अपने इन पूज्य महात्मा गुरुजनों से युद्ध नहीं कर सकता।"
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