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गीताध्याय -2, श्लोक -2,3

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अर्जुन की कायरता : श्रीकृष्ण की फटकार

     अर्जुन करुणा से आविष्ट हो गया है, घिर गया है। करुणा के प्रवाह में उसने अपने आपको डाल दिया है, इसलिए करुणा अपनी इच्छा अनुसार अर्जुन में प्रतिक्रियाएं उठा रही है। एक स्थिति वह है, जब मनुष्य अपने में करुणा को उठने देता है। ऐसी दशा में करुणा का वेग उसके वश में होता है। वह करुणा की प्रतिक्रिया को सीमा से बाहर नहीं जाने देता। ऐसी करुणा मनुष्य की हानि नहीं करती, बल्कि इस करुणा के द्वारा वह दूसरों का कल्याण करने में समर्थ होता है। पर अर्जुन की स्थिति भिन्न है। उसने मानो अपने को करुणा के सुपुर्द कर दिया है। अतः उसकी आंखें कातर है और आंसुओं से भरी हुई है, वह शोकाकुल है। यह मानो एक प्रकार की मूर्छा है, हिस्टीरिया के 'फिट' के समान है। जब किसी व्यक्ति को हिस्टीरिया का दौरा पड़ता है, तो वह ऐसा ही हो जाता है और उल्टी सुल्टी बातें करने लगता है। बड़े बूढ़े लोग इसका एक अचूक निदान बतलाते हैं -वह यह कि ऐसे समय रोगी को जोरों से डाटा जाय। इससे हिस्टीरिया का दौरा अगर न रुके तो उसकी तीव्रता अवश्य कम हो जाती है। भगवान् कृष्ण उत्तम वैद्य हैं। उन्होंने समझ लिया कि अर्जुन को क्या हो रहा है और वे उचित औषधि का निदान करते हैं।


श्रीभगवान् उवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।। (2)

अर्जुन - हे अर्जुन!
विषमे - इस विषम अवसर पर
त्वा - तुम्हें
इदम् - यह
कश्मलम् - कायरता
कुतः - कहां से
समुपस्थितम् - प्राप्त हुई, ( जिसका कि )
अनार्यजुष्टम् - श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते
अस्वर्ग्यम् - ( जो ) स्वर्ग को देने वाली नहीं है ( और )
अकीर्तिकरम् - कीर्ति करने वाली भी नहीं है।

"श्रीभगवान् बोले- हे अर्जुन! ऐसे विषम समय में यह आर्यों को शोभा न देने वाला, स्वर्ग का विरोधी और अपकीर्ति करने वाला मोह तुझ में कहां से आ गया?"

    भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को झटका देते हैं। अर्जुन व्यामोह के कारण दुर्बल चित्त हो गया है, इसलिए उसका उचित अनुचित ज्ञान नष्ट हो गया है। जिस बात को प्राथमिकता देनी चाहिए, उसे वह गौण बना देता है और जो बात गौण रहनी चाहिए, उसे प्राथमिकता प्रदान करता है। वर्णसंकरता से उत्पन्न जो दोष उसने गिनाये, उन्हें भगवान् ने काटा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि एक विशिष्ट संदर्भ में वह बातें सत्य हो सकती हैं, पर आज के इस युद्ध रूपी कर्तव्य के संदर्भ में नहीं। अर्जुन युद्ध करने के लिए आया था और अचानक वह उसे घोर कर्म, पाप कर्म मानने लगता है। पर उसे सोचना चाहिए कि यदि वह युद्ध को छोड़कर चला जाए, तो क्या वह भी एक पाप कर्म न होगा? यदि वह युद्ध न करे तो अपकीर्ति कमाने के अतिरिक्त वह कर्तव्य से च्युत होने के कारण पाप का भागी तो होगा ही, साथ ही अधर्म के उत्थान का कारण बनेगा। सत्ता अधर्मी दुर्योधन के हाथ में चली जाएगी और वह निरंकुश शासक हो जाएगा। फिर, जिस राज्य में अधर्म का बोलबाला हो, उसके पतन का क्या कहना! जब पांडवों के सामने, भरी सभा में पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य तथा पिता धृतराष्ट्र की उपस्थिति में दुर्योधन अपने ही घर की बहू द्रोपदी का कल्पनातीत अपमान करने पर उतारू होता है, फिर भी कोई प्रतिकार का एक शब्द तक नहीं कहता, तो इससे बढ़कर धर्म की और क्या कल्पना की जा सकती हैं? ऐसे अधर्मियों को बिना विरोध के शासन करने देना क्या बहुत बड़ा पाप न होगा? वर्णसंकरता का दोष केवल कुल की ही हानि कर सकता है, और वह भी एक सीमा के भीतर, पर अधर्म का यह विष सारे समाज को खत्म कर देगा, मानवता का ही मूलोच्छेद कर देगा।
     इसलिए भगवान् कड़े शब्दों में अर्जुन की भर्त्सना करते हैं। जिसे अर्जुन ने 'ज्ञान' समझा था, श्रीकृष्ण उसे 'कश्मल' की -मैल की संज्ञा देते हैं। ऐसा मैल अनार्यों द्वारा ही सेवित होता है।
     यहां पर 'अनार्य' शब्द किसी मानव वंश का द्योतक नहीं है। 'आर्य' का अर्थ होता है श्रेष्ठ। धार्मिक, विद्वान और श्रेष्ठ जनों का नाम 'आर्य' हैं तथा इनके विपरीत जनों का नाम 'दस्यु' है। मनुस्मृति भी बताती है कि संयमी और आचारवान् माता-पिता से उत्पन्न संतान 'आर्य' कहलाती है। इसके विपरीत, जो काम वासना के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं, जिनके माता-पिता संयम और आचार से रहित हैं, ऐसे लोग 'अनार्य' की कोटि में आते हैं। आर्यजन विवेक से युक्त होते हैं। अर्जुन अपने विवेक को छोड़कर बैठा है, इसलिए श्रीकृष्ण उसे धिक्कारते हैं। कहते हैं -अनार्यों के जीवन में दिखाई देने वाला ऐसा कश्मल ऐसे अनुपयुक्त समय में तेरे मन में कैसे उत्पन्न हुआ? यहां तो बल की, शौर्य की बात तेरे मन में उठने थी, कौरवों के अपमान का बदला चुकाने की ओर तेरा ध्यान होना था, उनके द्वारा किए गए अत्याचार के विरोध में तेरी आवाज बुलंद होनी थी; पर अर्जुन! तो इसके विपरीत कार्य कर रहा है।

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वा उत्तिष्ठ परन्तप।। (3)

पार्थ - हे पृथानन्दन अर्जुन!
क्लैब्यम् - इस नपुंसकता को
मा,स्म, गमः - मत प्राप्त हो; ( क्यों कि )
त्वयि - तुम्हारे में
एतत् - यह
न, उपपद्यते - उचित नहीं है।
परन्तप - हे परन्तप!
क्षुद्रम्, हृदयदौर्बल्यम् - हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता का
त्यक्त्वा - त्याग करके ( युद्ध के लिये )
उत्तिष्ठ - खडे हो जाओ।

"हे पार्थ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो; यह तुझ में शोभा नहीं देती। हे शत्रुतापन! हृदय की इस क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर उठ खड़ा हो।"

    अर्जुन का इससे अधिक तिरस्कार और क्या हो सकता है कि उस गांडीव धारी को श्रीकृष्ण ने नपुंसक कह दिया! अर्जुन जिसे दया और करुणा समझता है, उसे भगवान् ने हृदय की दुर्बलता ठहरा दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन के मन में दो प्रकार का भय काम कर रहा है। एक है पाप का भय। और दूसरा है हार का भय। अर्जुन सोच रहा है कि स्वजनों और पूज्य गुरु जनों की हत्या से मुझे भीषण पाप लगेगा। इसके साथ ही उसके मन के किसी अज्ञात कोने में कौरवों से हार जाने का डर भी अपनी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कर रहा है। भले ही प्रकट में अर्जुन हार जाने की बात नहीं कहता, पर जानता है कि उसके पास मात्र 7 अक्षौहिणी सेना है, जबकि शत्रुओं के पास 11 अक्षौहिणी। वह यह भी अच्छी तरह जानता है कि कौरवों की ओर से भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे दुर्धर्ष महारथी युद्ध करने के लिए खड़े हैं। भय का यह द्विविध प्रवाह उसके मन में कायरता को जन्म दे देता है, जिसे वह स्वीकार करना नहीं चाहता और इसलिए अपनी कायरता को वह धर्म की आड़ में ढकना चाहता है।
     हम भी तो ऐसा ही करते हैं। जहां हमारी आसक्ति होती है, वहां हम कमजोर हो जाते हैं। अपनी कमजोरी को हम स्वीकार करना नहीं चाहते। हम उस पर एक सुंदर सा आवरण डालने का प्रयास करते हैं। जो बली के रूप से प्रसिद्ध है, वह यदि किसी कारण से डर जाए, तो कभी भी अपने भय को वह प्रकट नहीं होने देगा। वह अपनी भय की वृत्ति पर मुलम्मा चढाएगा। अर्जुन ठीक ऐसा ही करता है। अपनी कायरता को दया और करुणा के मुलम्मे में ढक देना चाहता है। पर भगवान कृष्ण अंतर्यामी हैं। अर्जुन की मनः स्थिति को भांप लेते हैं और उसके यथोचित उपचार की व्यवस्था करते हैं। इस प्रकार का रोग जब तक दूर नहीं होता, जब तक रोगी अपने इस रोग को स्वीकार न कर वे। ऐसे रोग के निदान का पहला सोपान यह है कि रोगी जान ले कि वह इस रोग से ग्रस्त है। श्री भगवान की धिक्कार भरी वाणी अर्जुन को अपने मानसिक रोग के प्रति जागरूक बना देती है। श्री भगवान जब उसे कहते हैं कि तू हृदय की दुर्बलता को त्याग कर उठ खड़ा हो, ऐसी कायरता तुझे सोहती नहीं, तो अर्जुन का मोहावसन्न मन कुछ कसमसाता है। अर्जुन ने अपनी बातें सुनाकर श्रीकृष्ण की सहानुभूति पाने की आशा की थी। ऐसे रोग से ग्रस्त मनुष्य अपना दुखड़ा रोकर यही आशा करता है कि उसे सहानुभूति प्राप्त हो। पर सहानुभूति दिखाना रोगी का अहित करना है। भगवान कृष्ण यह जानते हैं। इसलिए अर्जुन को अपने तीखे बाग्बाण से तिल मिला देते हैं। अर्जुन आगे के श्लोकों में इसका प्रतिवाद करता है।

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