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गीताध्याय -1, श्लोक -7/8/9

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कौरव सेना के योद्धाओं के नाम तथा परिचय

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।(7)
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।।(8)

द्विजोत्तम - हे द्विजोत्तम!
अस्माकम् - हमारे पक्ष में
तु - भी
ये - जो
विशिष्टाः - मुख्य ( हैं )
तान् - उनपर ( भी आप )
निबोध - ध्यान दीजिए।
ते - आपको
सञ्ज्ञार्थं - याद दिलाने के लिये
मम - मेरी
सैन्यस्य - सेनाके ( जो )
नायकाः - नायक हैं,
तान् - उनको ( मैं )
ब्रवीमि - कहता हूं।

भवान् - आप ( द्रोणाचार्य )
च - और
भीष्मः - पितामह भीष्म
च - तथा
कर्णः - कर्ण
च - और
समितिञ्जयः - संग्राम विजयी
कृपः - कृपाचार्य
च - तथा
तथा - वैसे
एव - ही
अश्वत्थामा - अश्वत्थामा
विकर्णः - विकर्ण
च - और
सौमिदत्तिः - सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा

    दुर्योधन की चाटुकारिता दर्शनीय है।वह भीष्म के भी पहले द्रोणाचार्य का नाम लेता है। भीष्म कौरवों के सेनापति है, सभी प्रकार से श्रेष्ठ है, अतएव सर्वप्रथम उन्हीं का नाम लिया जाना उचित है, पर द्रोणाचार्य को सर्वाधिक सम्मान द्वारा प्रसन्न करने के लिए दुर्योधन उन्हीं को अपनी सूची में सर्वप्रथम रखता है।
     भीष्म के पश्चात एवं कृपाचार्य के पहले कर्ण का नाम गिनाकर दुर्योधन ने कर्ण की प्रसन्नता प्राप्त कर ली। किंतु कृपाचार्य का नाम कर्ण के बाद लेने से कहीं कृपाचार्य और आचार्य द्रोण असंतुष्ट ना हो जाए इसलिए वह कृपाचार्य नाम के साथ 'समितिञ्जयः' विशेषण लगा देता है। इससे सभी की संतुष्टि हो जाती है। स्मरणीय है कि द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था।
     द्रोणाचार्य को भीष्म पितामह रथयूथपतियों के समुदाय के भी यूथपति मानते हैं। बूढ़े होने पर भी उन्हें नवयुवकों से अच्छा समझते हैं और कहते हैं कि वे रणभूमि में एकत्र एवं एकीभूत हुए संपूर्ण देवताओं,  गंधर्वों और मनुष्यों को अपने दिव्यास्त्र द्वारा नष्ट कर सकते हैं। पर द्रोणाचार्य की एक बड़ी दुर्बलता है और वह है अपने पुत्र अश्वत्थामा के प्रति प्रबल आसक्ति। यह आसक्ति ही उनका काल बनती है।
     भीष्म पितामह का बल तो सर्वविदित है ही। उन्होंने अपने गुरु, महापराक्रमी परशुराम को युद्ध में पराजित किया था। काशिराज के यहां स्वयंवर से उनकी कन्याओं का जब उन्होंने अपहरण किया था, तो अकेले ही हजारों पराक्रमी नरेशों के उन्होंने छक्के छुड़ा दिए थे।
    कर्ण वैसे तो बड़े वीर हैं, पर कतिपय आनुषंगिक दोषों के कारण उन्हें कई लोग नहीं चाहते। भीष्म पितामह कर्ण से चिढे हुए हैं और उनके संबंध में मत प्रकट करते हुए दुर्योधन से कहते हैं -"राजन्! यह जो तुम्हारा प्रिय सखा कर्ण है, जो तुम्हें पांडवों के साथ युद्ध के लिए सदा उत्साहित करता रहता है और रणक्षेत्र में सदा अपनी क्रूरता का परिचय देता है, बड़ा ही कटुभाषी, आत्मप्रशंसी और नीच है। यह कर्ण तुम्हारा मंत्री, नेता और बन्धु बना हुआ है। यह अभिमानी तो है ही, तुम्हारा आश्रय पाकर बहुत ऊंचे चढ़ गया है। यह कर्ण युद्ध भूमि में न तो अतिरथी है और न रथी ही कहलाने योग्य है, क्योंकि यह मूर्ख अपने सहज कवच तथा दिव्य कुंडलों से हीन हो चुका है। यह दूसरों के प्रति सदा घृणा का भाव रखता है। मेरी दृष्टि में यह कर्ण तो अर्धरथी है।"
    यह सुनकर द्रोणाचार्य भी कह उठते हैं -"आप जैसा कहते हैं, बिल्कुल ठीक हैं। आपका यह मत कदापि मिथ्या नहीं है। यह प्रत्येक युद्ध में घमंड तो बहुत दिखाता है, पर वहां से भागता ही देखा जाता है। कर्ण दयालु और प्रमादी है, इसलिए मेरी राय में भी यह अर्धरथी ही है।"
      कृपाचार्य को भीष्म रथयूथपतियों के भी यूथपति मानते हैं तथा कार्तिकेय की भांति उन्हें अजेय समझते हैं।
      अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। दुर्योधन नवयुवकों में सर्वप्रथम स्थान उन्हीं को देता है और इस प्रकार द्रोण का स्नेह अपनी ओर खींचता है। पितामह भीष्म अश्वत्थामा की प्रशंसा तो करते हैं, पर उनका एक बड़ा दोष भी बताते हैं। वे कहते हैं -"महाधनुर्धर द्रोण पुत्र अश्वत्थामा तो सभी धनुर्धरों से बढ़कर है। वह युद्ध में विचित्र ढंग से शत्रुओं का सामना करने वाला, सुदृढ अस्त्रों से संपन्न तथा महारथी है....। वह चाहे तो तीनों लोकों को दग्ध कर सकता है.....। किंतु उसमें एक ही बहुत बड़ा दोष है, जिससे मैं इसे न तो अतिरथी मानता हूं और न रथी ही। इस ब्राह्मण को अपना जीवन बहुत प्रिय है, अतः यह सदा दीर्घायु बना रहना चाहता है ( यही इसका दोष है )।"
      विकर्ण धृतराष्ट्र के पुत्र हैं। देश राष्ट्र के 11 महारथी पुत्रों में इन्हें भी एक गिना जाता है। कुरुवंशीय सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा भीष्म की दृष्टि में महा धनुर्धर और अस्त्र विद्या के पंडित हैं तथा रथियों के यूथपतियों के भी यूथपति हैं। ये एक अक्षौहिणी सेना लेकर दुर्योधन की सहायता में आए थे।
     गीता की किसी किसी प्रति में 'तथैव च' के बदले 'जयद्रथः' पाठ आया है। जयद्रथ सिंधु देश का राजा है और दुर्योधन की बहन दुःशला का पति है। भीष्म पितामह इसे बड़ा पराक्रमी तथा रथी योद्धाओं में श्रेष्ठ कहते हैं। साथ ही इसे दो रथियों के बराबर भी मानते हैं।

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्व युद्धविशारदाः।।(9)

अन्ये - इनके अतिरिक्त
बहवः - बहुत-से
शूराः - शूरवीर हैं, ( जिन्होंने )
मदर्थे - मेरे लिये
त्यक्तजीविताः - अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है,
च - और
नानाशस्त्रप्रहरणाः - जो अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने वाले हैं ( तथा जो )
सर्वे - सब-के-सब
युद्धविशारदाः - युद्ध कला में अत्यन्त चतुर हैं।

     दुर्योधन का भाव यह है कि अब और कहां तक गिनाऊं, अन्य बहुत से शूरवीर योद्धा है, जो मेरे लिए प्राणों का मोह छोड़ें बैठे हैं। इससे ध्वनित होता है कि आचार्य द्रोण भी दुर्योधन के लिए उसी प्रकार अपने प्राणों की बाजी लगा दें। दुर्योधन अपनी तरफ के थोड़े से ही योद्धाओं के नाम गिनाता है, जिससे द्रोणाचार्य को उसके प्रति सहानुभूति हो। कहां पांडवों की ओर एक से एक बढ़कर योद्धा और कहां दुर्योधन की ओर इतने कम लोग! इस मनोवैज्ञानिक चित्रण द्वारा दुर्योधन अपनी ओर आचार्यद्रोण की सहानुभूति खींचना चाहता है। तात्पर्य यह है कि भले ही कौरवों की ओर ग्यारह अक्षौहिणी सेना हो, पर विशिष्ट वीर तो संख्या में पांडव सैन्य कि तुलना में कम है। फिर दुर्योधन के मन में तुरंत यह भी शंका होती है कि कहीं उपर्युक्त युक्ति को आचार्य द्रोण उसके मानसिक भय का वहिःप्रकाश न समझ लें। अतएव वह कहता है -"गुरुदेव! और भी बहुत से शूरवीर हैं, जो मेरे लिए प्राण त्याग कर बैठे हैं!"
     और विधि की विडंबना कैसी है! दुर्योधन की बात सत्य होती है। अपनी ओर के सेनानायकों के लिए 'त्यक्तजीविताः' कहकर उसने सबके नाश की ही मानो पूर्व सूचना दे दी!

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