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गीताध्याय -1, श्लोक -45,46,47

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अर्जुन का शोक


     मन ही मन इन घोर परिणामों की कल्पना से अर्जुन का हृदय कांप उठता है। वह खेद प्रकट करते हुए कहता है-

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।। (45)

अहो - यह बड़े आश्चर्य ( और )
बत - खेद की बात है कि
वयम् - हम लोग
महत्पापम् - बड़ा भारी पाप
कर्तुम् - करने का
व्यवसिताः - निश्चय कर बैठे हैं,
यत् - जो कि
राज्यसुखलोभेन - राज्य और सुख के लोभ से
स्वजनम् - अपने स्वजनों को
हन्तुम् - मारने के लिये
उद्यताः - तैयार हो गये हैं।

     और अंत में अर्जुन अपना निश्चय व्यक्त करते हुए कहता है-

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धृतराष्ट्रा रणे हन्यस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।। (46)

यदि - अगर ( ये )
शस्त्रपाणयः - हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिये हुए
धार्तराष्ट्राः - धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग
रणे - युद्ध भूमि में
अप्रतीकारम् - सामना न करने वाले
अशस्त्रम् - ( तथा ) शस्त्र रहित
माम् - मुझे
हन्युः - मार भी दें ( तो )
तत् - वह
मे - मेरे लिये
क्षेमतरम् - बडा ही हितकारक
भवेत् - होगा।

     यहां पर अर्जुन की मानसिक दशा दृष्टव्य है। वह निहत्था, बिना किसी प्रतिकार के मारा जाना पसंद करता है। मोह की तीव्रता कितनी है! धृतराष्ट्र के समक्ष अर्जुन की दशा चित्रित करते हुए संजय आगे के श्लोक में कहते हैं-

संजय उवाच


एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।। (47)

एवम् - ऐसा
उक्त्वा - कहकर
शोकसंविग्नमानसः - शोकाकुल मन वाले
अर्जुनः - अर्जुन
सशरम् - बाण सहित
चापम् - धनुष का
विसृज्य - त्याग करके
सङ्ख्ये - युद्ध भूमि में
रथोपस्थे - रथ के मध्य भाग में
उपविशत् - बैठ गये।

     अभी तक अर्जुन हाथ में धनुष और बाण ले सारथि के पास रथ में आगे खड़ा था। अब वह रथ के पीछे भाग में, जो विश्राम के लिए खाली रहता था और जिसे 'रथोपस्थ' कहते थे, धनुष बाण को हाथों से छोड़ कर बैठ जाता है। यह उसकी मानसिक विह्वलता का परिचायक है। इस प्रकार गीता की भूमि का स्वरूप यह पहला अध्याय समाप्त होता है।

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