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लघुसिद्धान्तकौमुदी अभ्यास प्रश्नावली

लघुसिद्धान्तकौमुदी अभ्यास      अब आपका संज्ञा प्रकरण पूर्ण हुआ | संज्ञा प्रकरण पूर्ण रूपेण शब्दतः और अर्थतः कंठस्थ हो जाए तभी आगे के प्रकरण पढ़ने के अधिकारी हो सकते हैं | अन्यथा आगे पढ़ना कठिन हो जाएगा | जैसे मकान बनाने वाले से कह दिया जाए कि जमीन से ऊपर एक हाथ छोड़ कर तब ईंट लगाओ तो खाली जगह छोड़कर एक हाथ ऊपर कैसे ईंटें लग सकती है ? ठीक इसी प्रकार व्याकरण रूपी मकान खड़ा करने के लिए सारे सूत्र , अर्थ , साधनी , स्थान , प्रयत्न , प्रत्याहार , संज्ञा , आदेश , आगम रुपी ईंटें तैयार हों और उन्हें क्रमशः बुद्धि एवं मस्तिष्क रूपी भूखंड के ऊपर बैठाते जाना होगा।

लघुसिद्धान्तकौमुदी पदसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

14-  सुप्तिङन्तं पदम्  1|4|14|| पदसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 14- सुप्तिङन्तं पदम् 1|4|14|| सुबन्तं तिङन्तं च पदसंज्ञं स्यात् | इति संञ्ज्ञाप्रकरणम् ||1||      सुबन्त और तिङन्त पद संज्ञक होते हैं।

लघुसिद्धान्तकौमुदी संयोगसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी संयोगसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 13- हलोऽनन्तराः संयोगः 1|1|7|| अज्भिरव्यवहिता हलः संयोगसंज्ञाः स्युः |      अचों से अव्यवहित हल् संयोगसंज्ञक होते हैं।

लघुसिद्धान्तकौमुदी संहितासंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी संहितासंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 12- परः सन्निकर्षः संहिता 1|4|109|| वर्णानामतिशयितः सन्निधिः संहितासंज्ञः स्यात् |      वर्णों की अत्यंत सन्निधि संहितासंज्ञक होती है अर्थात् वर्णों की अत्यंत समीपता को संहिता कहते हैं।

लघुसिद्धान्तकौमुदी 'अ' आदिसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी ' अ ' आदिसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 11- अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः 1|1|69|| प्रतीयते विधीयत इति प्रत्ययः | अविधीयमानोऽणुदिच्च सवर्णस्य संज्ञा स्यात् |

लघुसिद्धान्तकौमुदी सवर्ण संज्ञा विधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी सवर्णसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 10- तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् 1|1|9|| ताल्वादिस्थानमाभ्यन्तरप्रयत्नश्चेत्येतद्द्वयं यस्य येन तुल्यं तन्मिथः सवर्णसंज्ञं स्यात् | ( वार्तिकम् ) ऋलृवर्णयोर्मिथः सावर्ण्यं वाच्यम् |

लघुसिद्धान्तकौमुदी अनुनासिक संज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 9- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8|| मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम् - अ - इ - उ - ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः | लृवर्णस्य द्वादश , तस्य दीर्घाभावात् | एचामपि द्वादश , तेषां ह्रस्वाभावात् |      मुख और नासिका से एक साथ उच्चारित होने वाले वर्ण अनुनासिकसंज्ञक होते हैं।

लघुसिद्धान्तकौमुदी उदात्त, अनुदात्त, स्वरितसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी उदात्तसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 6- उच्चैरुदात्तः 1|2|29|| अनुदात्तसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 7- नीचैरनुदात्तः 1|2|30|| स्वरितसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 8- समाहारः स्वरितः 1|2|31|| स नवविधोऽपि प्रत्येकमनुनासिकत्वाननुनासिकत्वाभ्यां द्विधा |

लघुसिद्धान्तकौमुदी ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत-संज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी ह्रस्व - दीर्घ - प्लुत - संज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 5- ऊकालोऽज्झ्रस्व दीर्घप्लुतः 1|2|27| | उश्च ऊश्च ऊ३श्च वः , वां काल इव कालो यस्य सोऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात् | स प्रत्येकमुदात्तादिभेदेन त्रिधा ||      समाहार द्वन्द्व होने के बाद नपुंसकलिङ्ग ही होना चाहिए , किन्तु सूत्र में पाणिनि ने कहीं - कहीं ऐसा नहीं किया है , अतः सूत्रत्वात् पुॅॅॅंल्लिङ्ग मान लिया जाता है | सूत्रों से अन्यत्र ऐसी जगहों पर पुॅंल्लिङ्ग नहीं हो सकता , नपुंसकलिङ्ग ही होता है |

लघुसिद्धान्तकौमुदी प्रत्याहारसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी प्रत्याहारसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम् 4- आदिरन्त्येन सहेता 1|1|71|| अन्त्येनेता सहित आदिर्मध्यगानां स्वस्य च संज्ञा स्यात् यथाऽणिति अइउवर्णानां संज्ञा | एवमच् हल्अलित्यादयः || इस सूत्र में किसी पद की अनुवृत्ति नहीं आती है। अन्त्य इत्संज्ञक वर्ण के साथ उच्चारित आदि वर्ण मध्य के वर्णों का और अपना भी संज्ञा - बोधक होता है।

लघुसिद्धान्तकौमुदी लोपविधायक विधिसूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी लोपविधायकं विधिसूत्रम् 3- तस्य लोपः 1|3|9|| तस्येतो लोपः स्यात् | णादयोऽणाद्यर्थः |      उस इत्संज्ञक वर्ण का लोप होता है |      इत्संज्ञक के लिए प्रकरण के अनुसार अनेक सूत्र विद्यमान हैं | जिन वर्णों की हलन्त्यम् आदि सूत्रों के द्वारा इत्संज्ञा की जाती है , उनका यह सूत्र लोप करता है अर्थात् अदर्शन कर देता है |

लघुसिद्धान्तकौमुदी लोपसंज्ञाविधायक संज्ञासूत्र

लघुसिद्धान्तकौमुदी लोपसंज्ञाविधायकमं संज्ञासूत्रम् 2- अदर्शनं लोपः 1/1/60| प्रसक्तस्यादर्शनं लोपसंज्ञं स्यात् ||      ( पहले ) विद्यमान का ( बाद में ) अदर्शन होना , न सुना जाना लोपसंज्ञक ( लोपसंज्ञा वाला ) होता है।

लघुसिद्धान्तकौमुदी संज्ञा प्रकरण

लघुसिद्धान्तकौमुदी || श्रीगणेशाय नमः || लघुसिद्धान्तकौमुदी नत्त्वा सरस्वतीं देवीं शुद्धां गुण्यां करोम्यहम् | पाणिनीयप्रवेशाय लघुसिद्धान्तकौमुदीम् |      लघुसिद्धांतकौमुदी के प्रारंभ में कौमुदी कर्ता वरदराजाचार्य ने नत्वा सरस्वतीं देवीम् इस श्लोक से मंगलाचरण किया है | मंगलाचरण के तीन प्रयोजन है - 1- प्रारंभ किए जाने वाले कार्य में विघ्न ना आए अर्थात् विघ्नों का नाश हो , 2- ग्रंथ पूर्ण हो जाए अौर , 3- रचित ग्रंथ का प्रचार - प्रसार हो।

लघुसिद्धान्तकौमुदी भूमिका भाग-4

लघुसिद्धान्तकौमुदी  संस्कृत व्याकरण में परिभाषायें      अष्टाध्याई ग्रंथ लगभग 4000 सूत्रों से निर्मित है और पाठ 8 अध्यायों में विभाजित है | प्रत्येक अध्याय में 4 पद हैं | ( 5 सूत्रों को छोड़कर शेष ) समस्त सूत्रों का मूल रूप सौभाग्यवस पंडितों द्वारा सुरक्षित चला आया है |

लघुसिद्धान्तकौमुदी भूमिका भाग-3

sanskrit vykaran वरदराजाचार्य एवं उनकी प्रक्रिया      पाणिनीय व्याकरण की प्रक्रिया शैली को सरल एवं सुबोध बनाने वालों में अन्य उल्लेख्य नाम जुड़ता है वरदराजाचार्य का | ये भट्टोजिदीक्षित के शिष्य थे | इनके पिता का नाम दुर्गातनय था |

लघुसिद्धान्तकौमुदी भूमिका भाग-2

laghusiddhantkaumudi पाणिनि एवं अष्टाध्यायी      खेद पूर्वक कहना पड़ता है कि उन मनीषियों के ऐतिहासिक तथ्य आज यथार्थ रूप में उपलब्ध नहीं है किंतु अगत्या केवल आनुमानिक चिंतन से उनके देश कालादि का निर्णय किया जाता है क्योंकि प्राच्य चिंतक एवं मनीषियों ने इस भारत भूमि कठोर तपस्या एवं चिंतन निःस्वार्थ सामाजिक सुसंस्कार एवं सुशिक्षा हेतु किया था ,

लघुसिद्धान्तकौमुदी भूमिका भाग-1

|| श्रीगणेशाय नमः || लघुसिद्धान्तकौमुदी लघुसिद्धान्तकौमुदी      विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में संस्कृत भाषा प्राचीनतम है | यद्यपि भाषा विचार विनिमय के मूलभूत साधन के रूप में परिभाषित है , फिर भी संस्कृत भाषा मात्र है , यहीं तक सीमित नहीं है , हम हर एक भाषा का संबंध उसके राष्ट्र से केवल सामाजिक सांस्कृतिक रूप से नहीं , अपितु शाब्दिक रूप से भी पाते हैं | जैसे जर्मनी की भाषा को जर्मन , चीन की भाषा को चीनिया आदि | परंतु संस्कृत भाषा का नामकरण संस्कृत किसी सामाजिक या सांस्कृतिक कारण को धारण करते हुए नहीं बल्कि स्वयं में परिष्कृतता एवं परिमार्जितता की वैज्ञानिक प्रधानता से है।

गीताध्याय -2, श्लोक -17,18

geeta आत्मतत्व समस्त शक्ति का उत्स अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित् कर्तुमर्हति।। (17) अविनाशि - अविनाशी तु - तो तत् - उसको विद्धि - जान, येन - जिससे इदम् - यह सर्वम् - सम्पूर्ण ( संसार ) ततम् - व्याप्त है। अस्य - इस अव्ययस्य - अविनाशी का विनाशम् - विनाश कश्चित् - कोई भी न - नहीं कर्तुम् - कर अर्हति - सकता। अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।। (18) अनाशिनः - अविनाशी, अप्रमेयस्य - जानने में न आने वाले ( और ) नित्यस्य - नित्य रहने वाले शरीरिणः - इस शरीरी के इमे - ये देहाः - देह अन्तवन्तः - अन्त वाले उक्ताः - कहे गये है। तस्मात् - इस लिये भारत - हे अर्जुन! ( तुम ) युध्यस्व - युद्ध करो। "तू यह जान ले कि जिसके द्वारा यह सारा जगत व्याप्त है, वह तो अविनाशी है, क्योंकि इस अव्यय का नाश करने में कोई भी समर्थक नहीं है।" "नाशरहित, अमाप, नित्य, शरीरी आत्म...

गीताध्याय 2, श्लोक -16

सदसत्-विवेचन नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। असतः - असत् का तो भावः - भाव ( सत्ता ) न, विद्यते - विद्यमान नहीं है तु - और सतः - सत् का अभावः - अभाव न, विद्यते - विद्यमान नहीं है तत्वदर्शिभिः - तत्व दर्शी महापुरुषों ने अनयोः - इन उभयोः - दोनों का अपि - ही अन्तः - तत्व दृष्टः - देखा अर्थात् अनुभव किया है। "असत् का कभी अस्तित्व नहीं होता और जो सत् है, उसकी कभी अविद्यमानता नहीं होती। वास्तव में तत्वद्रष्टाओं ने इन दोनों का इस प्रकार अंतिम निश्चय किया है।"

गीताध्याय -2, श्लोक -14,15

geeta द्वन्द्वों की अनित्यता मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। (14) कौन्तेय - हे कुन्तीनन्दन! मात्रास्पर्शाः - इन्द्रियों के विषय ( जड पदार्थ ) तु - तो शीतोष्णसुखदुःखदाः - शीत (अनुकूलता ) और उष्ण ( प्रतिकूलता ) के द्वारा सुख और दुःख देने वाले हैं ( तथा ) आगमापायिनः - आने जाने वाले ( और ) अनित्याः - अनित्य हैं। भारत - हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! तान् - उनको ( तुम ) तितिक्षस्व - सहन करो। यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। (15) हि - कारण कि पुरुषर्षभ - हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! समदुःखसुखम् - सुख-दुःख में सम रहने वाले यम् - जिस धीरम् - बुद्धिमान पुरुषम् - मनुष्य को एते - ये मात्रा स्पर्श ( पदार्थ ) न, व्यथयन्ति - विचलित ( सुख-दुःख ) नहीं करते, सः - वह अमृतत्वाय - अमर होने में कल्पते - समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है।   "हे कुंती पुत्र! इंद्रियों और...

गीताध्याय -2, श्लोक -13

@geeta शरीर का शोक व्यर्थ देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।। (13) देहिनः - देहधारी के अस्मिन् - इस देहे - मनुष्य शरीर में यथा - जैसे कौमारम् - बालकपन, यौवनम् - जवानी ( और ) जरा - वृद्धावस्था ( होती है ), तथा - ऐसे ही देहान्तरप्राप्तिः - दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। तत्र - उस विषय में धीरः - धीर मनुष्य न, मुह्यति - मोहित नहीं होता। "देहधारी ( आत्मा ) को इस देह में जिस प्रकार बालपन, तरुणाई और बुढ़ापा प्राप्त होता है, उसी प्रकार ( आगे उसी आत्मा को ) दूसरी देह की प्राप्ति होती है। अतः इस विषय में ज्ञानी पुरुष मोहित नहीं होता।"

गीताध्याय -2, श्लोक -12

@geeta जीव की नित्यता न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। (12) जातु - किसी काल में अहम् - मैं न - नहीं आसम् - था ( और ) त्वम् - तू न - नहीं ( था ) इमे - ( तथा ) ये जनाधिपाः - राजा लोग न - नहीं ( थे ) न, तु, एव - यह बात भी नहीं है; च - और अतः - इसके परम् - बाद ( भविष्य में ) वयम् - ( मैं, तू और राजा लोग ) हम सर्वे - सभी न - नहीं भविष्यामः - रहेंगे, एव - ( यह बात ) भी न - नहीं है। "मैं किसी काल में नहीं था ऐसा नहीं, तू कभी नहीं था ऐसा भी नहीं, ये राजा लोग कभी नहीं थे ऐसा भी नहीं, और इसके बाद भी हम सब न होंगे ऐसा भी नहीं है ( अर्थात हम पहले भी थे, इस समय हैं और आगे भी होंगे )"

गीताध्याय -2, श्लोक -11

#geeta देही का स्वरूप श्रीभगवानुवाच अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।। (11) त्वम् - तुमने अशोच्यान् - शोक न करने योग्य का अन्वशोचः - शोक किया है च - और प्रज्ञावादान् - विद्वता ( पण्डिताई ) की बातें भाषसे - कह रहे हो; ( परन्तु ) गतासून् - जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये च - और अगतासून् - जिनके प्राण नहीं गये हैं, उनके लिये पण्डिताः - पण्डित लोग न, अनुशोचन्ति - शोक नहीं करते। "श्रीभगवान बोले- जिनके लिए शोक करना उचित नहीं, उनके लिए तो शोक कर रहा है और साथ ही ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें भी बघारे जा रहा है; परंतु जो यथार्थ में ज्ञानीजन होते हैं, वे न तो उनके लिए शोक करते हैं जिनके प्राण चले गए हैं और न उनके लिए ही जिनके प्राण नहीं गए हैं।"

गीताध्याय -2, श्लोक -7,8,9,10

#geeta अर्जुन का श्रीकृष्ण की शरण में जाना     भगवान् के इस तरह कहने पर अर्जुन अपने को टटोलता है। आत्म निरीक्षण करता है। बलपूर्वक मोह के परदे को उठाने की चेष्टा करता है। देखता है कि भगवान् जो कह रहे हैं, वही ठीक है। जिसे वह करुणा और दया समझ रहा था, वह वस्तुतः कायरता ही है। कहता है- कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। (7) कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः - कायरता रूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला ( और ) धर्मसम्मूढचेताः - धर्म के विषय में मोहित अन्तः करण वाला ( मैं ) त्वाम् - आप से पृच्छामि - पूछता हूं ( कि ) यत् - जो निश्चितम् - निश्चित श्रेयः - कल्याण करने वाली स्यात् - हो, तत् - वह ( बात ) मे - मेरे लिये ब्रूहि - कहिये। अहम् - मैं ते - आपका शिष्यः - शिष्य हूं। त्वाम् - आपके प्रपन्नम् - शरण हुए माम् - मुझे शाधि - शिक्षा दीजिये। "मेरा स्वभाव कायरता रूप दोष से सन गया है और ध...