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मार्च, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गीताध्याय -1, श्लोक -4/5/6

#गीता  पाण्डवों के विशिष्ट योद्धाओं के नाम तथा परिचय अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि। युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।। धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्। पुरुजित् कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।। युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् । सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ।। अत्र - यहाँ ( पाण्डवों की सेना में ) शूराः - बड़े-बड़े शूरवीर हैं, महेष्वासाः - ( जिनके ) बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं च - तथा ( जो ) युधि - युद्ध में भीमार्जुनसमाः - भीम और अर्जुन के सामान हैं ( उनमें ) युयुधानः - युयुधान ( सात्यकि ) विराटः - राजा विराट च - और महारथः  - महारथी द्रुपदः - द्रुपद ( भी हैं ।) धृष्टकेतुः - धृष्टकेतु च - और चेकितानः - चेकितान च - तथा  वीर्यवान् - पराक्रमी  काशिराजः - काशिराज ( भी हैं। ) पुरुजित् - पुरुजित् च - और कुन्तिभोजः - कुन्तिभोज ( ये दोनों भाई ) च - तथा नरपुङ्गवः - मनुष्यों में श्रेष्ठ  शैब्यः - शैब्य ( भी हैं ।) विक्रान्तः - पराक्रमी युधामन्युः - युधामन्...

गीताध्याय -1, श्लोक -3

#geeta प्रमुख योद्धाओं का वर्णन दुर्योधन का वाग्जाल पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। आचार्य - हे आचार्य! तव - आपके धीमता - बुद्धिमान् शिष्येण - शिष्य द्रुपदपुत्रेण - द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूढाम् - व्यूहरचना से खडी की हुई पाण्डुपुत्राणाम् - पाण्डवों की एताम् - इस महतीम् - बडी भारी चमूम् - सेना को पश्य - देखिये!      हमने पढ़ा कि पांडवों की व्यूहबद्ध सेना को देखकर दुर्योधन के मन में अज्ञात भय का संचार हो गया। उसका यह भय दूसरे श्लोक के 'तू' शब्द में तो प्रकट हुआ ही है, यहां भी 'महती चमूम्' कहने से उसका भाई परिलक्षित होता है। वास्तव में सेना तो उसकी अपनी बड़ी है। कहां उसके 11 अक्षौहिणी सेना और कहा पांडवों की सात। तथापि भीतर का भय बाहर शब्दों में प्रकट हो ही जाता है। वह द्रोणाचार्य को धीरे से इस बात के लिए सावधान कर देना चाहता है कि पांडव कुछ समय पूर्व तक भले ही दीर्घ 13 वर्षों के लिए बनवासी रह चुके हैं, तथापि उनके मित्र कम नहीं और इस...

गीताध्याय -1, श्लोक -2

geeta गीताध्याय -1, श्लोक -2 दुर्योधन का संशय धृतराष्ट्र के उस प्रकार प्रश्न करने पर संजय उवाच दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्।। तदा - उस समय व्यूढम् - वज्रव्यूह से खडी हुई पाण्डवानीकम् - पाण्डव सेना को दृष्ट्वा - देखकर तु - और आचार्यम् - द्रोणाचार्य के उपसङ्गम्य - पास जाकर राजा - राजा दुर्योधनः - दुर्योधन (यह) वचनम् - वचन अब्रवीत् - बोला।    यहां 'तु' शब्द से दुर्योधन के मन में भय का उदय सूचित होता है। संजय का भाव यह है कि कौरवों की विशाल सेना को देखकर पांडवों के मन में किसी प्रकार की हलचल नहीं हुई, पर दुर्योधन पांडवों का सैन्य देख विचलित हो जाता है। पांडवों की सेना व्यूह में खड़ी थी, इससे सूचित होता है कि पांडवों की ओर भी व्यूह रचना के जानकार धुरंधर योद्धा हैं। महाभारत के भीष्मपर्व में हमें प्राप्त होता है कि कौरवों की सेना को व्यूहाकार खड़ा देख युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा, "तात! महर्षि वृहस्पति के वचन से ऐसा ज्ञात होता है कि यदि शत्रुओं की स...

गीताध्याय - 1, श्लोक - 1

geeta गीताध्याय - 1, श्लोक - 1 धृतराष्ट्र का पुत्र मोह धृतराष्ट्र का संजय से प्रश्न धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।। (1/1) धृतराष्ट्र बोले - सञ्जय - हे संजय! धर्मक्षेत्रे - धर्मभूमि कुरुक्षेत्रे - कुरुक्षेत्र में समवेताः - इकट्ठे हुए युयुत्सवः - युद्ध की इच्छा वाले मामकाः - मेरे च  -  और पाण्डवाः - पाण्डु के पुत्रों ने एव  -  भी किम्  -  क्या अकुर्वत - किया?    धृतराष्ट्र के इस प्रश्न से ऐसा लगता है कि उन्हें भीष्म पितामह के आहत होने तक युद्ध का कोई समाचार ही नहीं मिला। पर यह संभावना ठीक नहीं मालूम पड़ती, क्योंकि संजय प्रतिदिन ही युद्ध की खबरें महाराज धृतराष्ट्र को सुना जाते थे। तब युद्ध के दसवें दिन ही इस प्रकार का प्रश्न धृतराष्ट्र के मन में कैसे उठा यह विचारणीय है। यह तो हम सभी जानते हैं कि दुर्योधन अपनी विजय के संबंध में आश्वस्त था, क्योंकि उसकी ओर 11 अक्षौहिणी की सेनाएं थी जबकि पांडवों की ओर केवल सात। फिर...

संजय को दिव्य दृष्टि का वरदान

संजय को दिव्य दृष्टि का वरदान       महर्षि व्यास ने देख लिया कि धृतराष्ट्र का मोह रोग असाध्य है, समझाने का उन पर कोई फल नहीं होने वाला है। अतः सामान्य वार्तालाप के अनंतर कहा -"बेटा! तेरे पुत्रों और अन्य राजाओं का काल आ पहुंचा है, वे युद्ध में एक दूसरे का संहार करने को तैयार हैं। यदि तुम संग्राम में इन सब को देखना चाहो, तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर सकता हूं। इससे तुम वहां का युद्ध भली भांति देख सकोगे।" इस पर धृतराष्ट्र बोले -"ब्रह्मर्षिवर! युद्ध में मैं अपने कुटुंब का वध नहीं देखना चाहता। आजीवन मेरी आंखें बंद रहीं। जब से मैं जन्मा हूं, अंधा ही जन्मा हूं। मैंने संसार की कोई भी वस्तु नहीं देखी। अब जबकि भाई से भाई लड़ने को तैयार है, आत्मीय-स्वजन एक दूसरे को मारने काटने के लिए उद्धत हैं, तो क्या अंत में कुल का यह संहार ही आंखें ले कर देखूं? नहीं-नहीं, महाभाग! मैं वह सब नहीं देखना चाहता। पर हां इतनी प्रार्थना अवश्य करूंगा कि आप ऐसी कुछ व्यवस्था कर जाइए, जिससे युद्ध का पूरा समाचार सुन सकूं।"      इस पर व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि का व...

धर्म भी आक्रामक बने

धर्म भी आक्रामक बने गीता में हम 'युध्यस्व' का स्वर सुनते हैं। श्री कृष्ण भगवान वास्तव में धर्म को भी उसी प्रकार aggressive (आक्रामक) होते देखना चाहते हैं, जिस प्रकार अधर्म आक्रामक हुआ करता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि अधर्म कितना आक्रामक होता है, वह समाज को बलपूर्वक अपने शिकंजे में लाना चाहता है। अधर्म का चलना ही डर और धमकी की डगर से होता है, पर धर्म, स्वभाव से, आक्रामक नहीं हो पाता। धर्म के क्षेत्र में संगठन शिथिल होता है। धर्म के पक्षधर लोग goody-goody किस्म के 'भले मानुष' हुआ करते हैं, जो अपने जीवन में तो धर्माचरण के लिए सचेष्ट होते हैं, पर दूसरों पर दुष्टों का आक्रोश देख चुपचाप किनारा काट लेते हैं, सामने आकर अन्याय का प्रतिकार करने का साहस नहीं बटोर पाते। श्री कृष्ण धर्म के इस goody-goody भाव को, सदाशयता के इस प्रदर्शन मात्र को पसंद नहीं करते। वह तो शठ के साथ शठता करने में विश्वास करते हैं। उनकी दृष्टि में दुर्योधन और भीष्म पितामह आदि में व्यवहारिक दृष्टि से अधिक अंतर नहीं है, इसीलिए अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं।       यदि अर्जुन युद...

श्रीकृष्ण पर पक्षपात का मिथ्यारोप

श्रीकृष्ण पर पक्षपात का मिथ्यारोप      एक और शंका पर विचार कर लें, कुछ लोग भगवान कृष्ण पर पक्षपात का दोषारोपण करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अनुचित रूप से पांडवों का साथ दिया और कौरवों से द्रोह किया। उन लोगों के मतानुसार कौरवों को ही राज्य प्राप्ति का अधिकार था, पांडवों को नहीं। अतएव वे लोग कहते हैं कि पांडवों का राज्य पर अधिकार का दावा करना न्यायोचित नहीं था। पर यदि हम महाभारत के युद्ध में राज्य के अधिकार संबंधी विधि नियमों को पढें, तो ज्ञात होता है कि तत्कालीन कानून की दृष्टि से पांडव ही राज्य के अधिकारी थे, कौरव नहीं। यह ठीक है कि धृतराष्ट्र बड़े थे और पांडे छोटे और सामान्य दृष्टि से एक धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्र ही राज्य के अधिकारी थे, पर विधान यह कहता था कि अन्ध और विकलांग व्यक्ति राज्य का अधिकारी नहीं बन सकता। अतएव धृतराष्ट्र के बदले न्यायोचित रूप से पांडू को राजा घोषित किया गया। पांडु की अकाल मृत्यु से शासन की बागडोर धृतराष्ट्र के हाथों में आई और वे इसलिए राजकाज संभालने लगे कि उनके और पांडु के पुत्र तब छोटे थे। सभी राजपूत्रों में युधिष्ठिर बड़े थे, इसलि...

महाभारत युद्ध और उसकी भूमिका

महाभारत युद्ध और उसकी भूमिका महाभारत कालीन युद्ध परम्परा      पहले हमने कहा था कि महाभारत कालीन समाज विज्ञान की दृष्टि से बड़ा उन्नत था। इसका पता हमें महाभारत में वर्णित विभिन्न प्रक्षेपास्त्रों के विवरण से लगता है। पहले हमने बताया था कि इन प्रक्षेपास्त्रों को आज का विज्ञान मिसाइल कह कर पुकारता है। ये प्रक्षेपात्र अपना काम करके चलाए जाने वाले के पास लौट आते थे, ऐसा भी महाभारत में लिखा मिलता है। अग्नेयास्त्र अग्नि की वर्षा करता था तो वरूणेयास्त्र जल बरसाता था। ब्रह्मास्त्र ऐसा अमोघ अस्त्र था, जिसकी विनाशकारी शक्ति की बराबरी नहीं थी। महाभारत में इन सब अस्त्र शस्त्रों के नाम और उपयोग तो मिलते हैं, पर उनका technical know-how या technical details यानी उनका यंत्र विज्ञान हमें उसमें नहीं प्राप्त होता। इससे कुछ लोग शंका करते हैं कि महाभारत में लिखी इन सब बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, बल्कि यह सब काल्पनिक है। उनका तर्क यह है कि यदि उस युग में भारत में विज्ञान इतनी बढ़ती पर था तो उस विज्ञान का एकाएक लोग इस भूल से कैसे हो गया? यह तर्क पर्याप्त वजनी है। भारत क...

महाभारत : एक विश्वकोश

महाभारत : एक विश्वकोश     गीता के रचनाकार महर्षि व्यास का यह महनीय रूप देखने के उपरांत अब थोड़ा सा विचार हम महाभारत पर भी कर लें, जिसका की गीता एक अंश है। सबसे पहले यह देखें कि इसका नाम 'महाभारत ' क्यों पड़ा? उक्त ग्रंथ के आदिपर्व (1/271-74) में ही हमें इसका कारण दिखाई देता है- एकश्चतुरो वेदान् भारतं चैतदेकतः। पुरा किल सुरैः सैर्वैः समेत्य तुलया धृतम्।। चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो हि अधिकं यदा। तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् महाभारतम् उच्यते।। महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम्। महत्त्वाद् भारवत्त्वाच्च महाभारतम् उच्यते।।    -'एक समय देवताओं ने इस भारत को और चारों वेदों को तराजू पर रखकर तौला, उस समय रहस्य सहित संपूर्ण वेदों से जब यह भारत महान सिद्ध हुआ, तो उसे महाभारत कहा जाने लगा। तुला पर रखने से यह महत्व और गुरुत्व दोनों में अधिक हो गया। अतः महान और भारी होने के कारण यह "महाभारत" कहलाता है।'     इस महाकाव्य की विषय वस्तु के संबंध में स्वयं कवि के मुख से ही सुनिए। वे ब्रह्मा जी को अपनी कृति के संबंध में बताते हुए कहते हैं (...

महाभारत और उसके रचयिता

महाभारत और उसके रचयिता महर्षि व्यास : व्यक्तित्व और कृतित्व     थोड़ी चर्चा महाभारत और उसके रचयिता महर्षि व्यास के संबंध में करते हैं। यह गीता के भी रचयिता हुए। तात्पर्य यह कि भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के वार्तालाप को छंदोंबद्ध कर उसे विस्तारित और विभाजित करने का श्रेय इन्हीं को प्राप्त हुआ। यह व्यास कौन थे? इनके दो नाम प्रमुख रूप से हमारे सामने आते हैं- एक कृष्णद्वैपायन व्यास और दूसरा बादरायण व्यास। कुछ लोग इन दोनों नामों को दो अलग-अलग व्यक्तियों के नाम बतलाते हैं। यानी उनका कहना है कि महाभारत आदि ग्रंथ के प्रणेता कृष्णद्वैपायन व्यास थे तथा ब्रह्मसूत्रों के रचयिता थे बादरायण व्यास। पर ऐसा मत भारतीय परंपरा के विरुद्ध है। भारतीय परंपरा में एक ही व्यास के अनेक नाम माने जाते हैं। कृष्ण उनका व्यक्तिगत नाम है। इस नाम का कारण यह हो सकता है कि उनका वर्णन कुछ श्याम हो। द्वीप में पैदा होने के कारण वे द्वैपायन कहलाए बदरीवन में तपस्या करने के कारण उनकी प्रसिद्धि बादरायण के नाम से हुई। वेद का व्यसन अर्थात विभाजन करने के कारण लोगों ने उन्हें व्यास के नाम से पुकारा। ...