यज्ञ का नया रूप कर्मयोग
गीता हमें कर्मयोग के रूप में एक ऐसा रसायन प्रदान करती है जो कर्मों के स्वाभाविक विष को सोख लेता है। हम तो दिन रात कर्म में जुटे रहते हैं, हमें जीने के लिए खटराग और भागदौड़ करनी पड़ती है। हम भला इस कर्म संकुल जीवन में उच्चतर तत्व का चिंतन कैसे कर सकते हैं? भगवान कृष्ण कहते हैं कि इस रसायन के द्वारा या भागदौड़, यह खटराग, यह तलस्पर्शी व्यस्तता ही मनुष्य को ऊपर उठाने का साधन बन सकती है। मजदूर कुदाल से जमीन खोलता है, किसान खेत में हल चलाता है, अध्यापक शिक्षा देता है, व्यापारी व्यापार करता है, स्त्रियां घर में रसोई पकाती है, और अधिकारी नाना प्रकार के प्रशासनिक कार्य करता है। यह सभी प्रकार के कर्म गीतोक्त रसायन के माध्यम से जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के साधन बन सकते हैं।
ईशावास्योपनिषद में इस प्रकार का एक संकेत मात्र दिखाई देता है, जहां गुरु शिष्य के समक्ष सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
ईशावास्यम् इदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।
-'यह सारा संसार भगवान का बैठक खाना है यही भाव त्याग का मूल है; इस ज्ञान को जीवन में धारण कर सभी कर्तव्य कर्म करते चले जाओ और किसी के धन का लालच मत करो।' ईशावास्योपनिषद में यह जो सिद्धांत बीज दवा हुआ है, उसी का विस्तार गीता में हुआ है। यहां हमें यज्ञ का नया रूप दिखाई देता है। श्री कृष्ण के मतानुसार हमारे शरीर की हर क्रिया, हमारे मन का हर स्पंदन यज्ञ का रूप धारण कर सकता है, यदि इन क्रियाओं और विचारों के पीछे ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना हो। तभी तो प्रत्येक कार्य को यज्ञ बना लेने का निर्देश देते हुए हुए अर्जुन से कहते हैं-
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।। (3/9)
-'हे कौंतेय, यज्ञ के अभिप्राय और भावना के बिना जो भी कर्म किए जाते हैं वह सभी बंधनकारक होते हैं। इसलिए तू जो भी कर्म करेगा, उसे यज्ञ की भावना से कर और इस प्रकार आसक्ति रहित होकर वर्तन कर।' यज्ञ की भावना से कर्म करने का क्या तात्पर्य है? -भगवत समर्पित बुद्धि से कर्म करना। तो क्या सभी प्रकार के कर्म यज्ञ बन सकते हैं? क्या दुष्कर्म भी भगवान को समर्पित करके किया जा सकता है? कृष्ण इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। (4/16)
-'हे पार्थ! कर्म क्या है, अकर्म क्या है इस संबंध में मनीषी जन भी भ्रमित हैं। अतः मैं कर्म का मर्म तुझे समझाता हूं, जिसे जानकर तो अशुभ से मुक्त हो जाएगा।'
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ।। (4/17)
-'कर्म को समझो, विकर्म को समझो और अकर्म को भी समझो, क्योंकि कर्म की गति गहन है।' यानी, कर्म के तीन रूप है- कर्म, अकर्म और विकर्म। विकर्म शास्त्र निंदित और विपरीत या अशुभ कर्म को कहते हैं। जिस कार्य को समाज ठीक नहीं समझता या जिसे हम नैतिक दृष्टि से ठीक नहीं समझते, उसे विकर्म कहते हैं। अकर्म उसे कहते हैं जिसमें जड़ता, आलस्य और तमोगुण की प्रधानता हो जहां शुभ कर्म का नितांत अभाव हो और व्यक्ति प्रमादी और निठल्ला हो। कर्म वह है जो शुभ, उचित और करणीय हो। कृष्ण कहते हैं कि विकर्म और अकर्म से बचो तथा कर्तव्य और करणीय कर्म करो। ऐसे कर्म ना करो जो समाज और राष्ट्र को क्षति पहुंचाते हो, जिन से स्वयं की हानि होती हो। असल में जो समाज और राष्ट्र को ठगता है, वह सबसे पहले अपने आपको ठगता है। वह इस तथ्य को नहीं जानता और अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी मारता है। ऐसा व्यक्ति अपने आप की हिंसा करता है और आत्मघाती होता है। यह एक अटल सत्य है कि जो कार्य समाज और राष्ट्र विरोधी होते हैं, वह सबसे पहले आत्म विरोधी होते हैं। इसलिए कृष्ण उपदेश देते हैं-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। (6/5)
-'मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं अपना उत्थान करें और अपने को गिरने ना दें; क्योंकि वह स्वयं अपना मित्र है और शत्रु भी।' वास्तव में मनुष्य ही स्वयं को उठाता है और अपने को गिराता भी हैं। लोग अपनी असफलता का दोष परिस्थितियों और अपने परिचितों के सिर पर मढ दिया करते हैं। पर यह सच नहीं है। असल में हम ही अपने पतन के कारण होते हैं और हम स्वयं खुद को उठाते हैं। जो व्यक्ति अपने आप को उठाता है वह अपने आपका मित्र होता है और जो अपने आप को गिराता है वह अपना शत्रु। इसलिए भगवान ऐसे कर्मों को करने का उपदेश देते हैं, जो करणीय है तथा ऐसे कर्मों का तिरस्कार करने के लिए कहते हैं, जिनसे समाज और राष्ट्र का नुकसान होता है। वह अकर्म और विकर्म से बचने की सलाह देते हैं। जो कर्म हमें परिस्थितियों से प्राप्त होते हैं उन्हें ईश्वर के प्रति समर्पित बुध से करने से वे यज्ञ बन जाते हैं। ऐसे कर्म बंधनकारक नहीं रह जाते बल्कि हमें ऊपर उठाते हैं। जब यह अभ्यास सधता है तब हमारे शरीर की प्रत्येक क्रिया यज्ञ मय बन जाती है-
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्मन् गच्छन् स्वपन् श्वसन् ।
प्रस्थम् विसृजन् गृह्णन् उन्मिषन् निमिषन् अपि ।। (5/8)
-हमारा देखना, सुनना, स्पर्श करना, गंध लेना, खाना, चलना, सोना, सांस लेना, बोलना, छोड़ना और ग्रहण करना, यह सभी यज्ञमय बन जाते हैं। यहां तक कि हमारी पलकों का उठना और गिरना जैसे सामान्य कार्य भी, जिनक अनुभूति हमें नहीं होती, यज्ञ रूप हो जाते हैं। कृष्ण कहते हैं-
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।। (5/10)
-'जो ब्रह्म को आश्रय और आधार मानकर, आसक्ति का त्याग करते हुए, कर्तव्य कर्म करता है, वह जल में कमलपत्रवत पाप से अलिप्त रहता है।' यही गीता की चरम अवस्था है, यही ब्रह्मनिष्ठ और स्थितप्रज्ञता की स्थिति है।
मनुष्य संसार में रहकर शांति की इच्छा करता है और संसार तो ऐसी जगह है जहां अशांति के वात्याचक्र बहा करते हैं। अशांति की भंवरें उठा करती है ऐसे दुख पूर्ण संसार में व्यक्ति ऐसा सुख पाना चाहता है। जो उसका पीछा ना छोड़े ऐसी परिस्थिति में गीता आकर हमें रास्ता दिखाती है। वह कहती है कि यह संसार झमेला और झंझट जरूर है फिर भी अशांति के वात्याचक्रों से भरे इस संसार में तुम्हें शांति मिल सकती है। पर इसके लिए तुम्हें अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। तुम आज जिस दृष्टि से अपने कर्मों का संपादन कर रहे हो उसमें आमूल परिवर्तन करना पड़ेगा। जब तुम भगवत समर्पित बुद्धि से, ईश्वर के प्रति प्रेम से प्रेरित होकर अपने कार्य करोगे, तो यह संसार झंझट या झमेला नहीं रहेगा। यह आनंद और सुख की खान बन जाएगा।
पिता बाजार के रास्ते से घर लौटता है। बाजार में रंग-बिरंगे कपड़ों की दुकान है, उसका ध्यान आकृष्ट करती है, वह सोचता है कि दुकान में जाकर अपने पुत्र के लिए कोई चीज देखनी चाहिए। वह दुकान में जाता है और अपने पुत्र के लिए एक कपड़ा खरीद लेता है, बच्चे ने पिता से वह खरीदने के लिए नहीं कहा था, अपितु पिता स्वयं अपने पुत्र के प्रेम और आकर्षण से खींचकर दुकान में जाता है और उसके लिए कपड़ा खरीद लेता है। सौदे पर अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च करते हुए पिता को क्लेश नहीं होता बल्कि उसे आनंद ही होता है। क्योंकि उसके पीछे स्नेह की प्रेरणा काम कर रही है। यदि बच्चे ने पिता से कहा होता, और पिता ने उसे अपना कर्तव्य समझकर पूरा किया होता, तो उसे इतना आनंद ना होता। अगर व्यक्ति कर्तव्य की भावना से कर्मों का संपादन करता है, तो उस में भारीपन आ जाता है। गीता के अनुसार 'ड्यूटी फार ड्यूटीज सेक' या 'कर्तव्य के लिए कर्तव्य' की भावना उचित नहीं है। क्योंकि इसमें एक खरोंच और संघर्षण का बोध होता है। इसमें बलात् कार्य करना पड़ता है और उससे सुख नहीं मिलता। गीता कर्तव्य के लिए कर्तव्य करने के स्थान पर पूजा के भाव से, यज्ञ के भाव से कर्म करने का उपदेश देती है। वह कहती है कि तुम अपना सारा कर्म ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए करो। जब ईश्वर की संतुष्टि के लिए कर्म किया जाता है, तब कर्म बोझ प्रतीत नहीं होता। जीवन की गाड़ी में संघर्षण तब पैदा होता है, जब उसके चक्कों में प्रेम रूपी तेल नहीं लगा होता। जब उसमें प्रेम रूपी तेल लग जाता है तो संघर्षण बंद हो जाता है। यदि ऐसा प्रेमभाव ईश्वर के लिए हो जाए, तो हमारा सारा कार्य उनकी पूजा बन जाता है। तब हम कहते हैं कि हे प्रभु मैं तेरी तेरी ही प्रसन्नता के लिए यह कर्म कर रहा हूं। जो कर्म तूने मेरे लिए निर्धारित किया है उसे मैं अपनी सारी कुशलता और शक्ति के साथ करूंगा, पर उसका सारा फलाफल तेरे चरणों में समर्पित है। यह योग की भाषा है।
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