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स्वधर्म का पालन

  स्वधर्म का पालन  

  अर्जुन को भय हो रहा था कि युद्ध रूपी घोर कर्म करने से वह पाप का भागी होगा। वह भूल गया था कि युद्ध उसका स्वधर्म है और स्वधर्म के पालन से पाप नहीं होता। उसका चित्त मोह से घिर गया था। वहां स्वजनों की आसक्ति में पडकर, या यह भी संभव है कि हार जाने की संभावना देखते हुए, युद्ध कर्म से निवृत्त होकर जंगल चला जाना चाहता था। भले ही अर्जुन ने भिक्षा के द्वारा जीवन यापन की बात कही, पर कृष्ण तो मनोवैज्ञानिक थे। वह मानव मन को पढ़ ले सकते थे। उन्होंने अर्जुन की दुर्बलता को भाप लिया और उसे बताया कि स्वधर्म को त्याग कर परधर्म ग्रहण करने का क्या दुष्फल होता है। उन्होंने अर्जुन से कहा-
श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। (3/35)
-'हे पार्थ! अच्छी तरह अनुष्ठित दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म उत्तम है, अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है, दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।' भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को स्वधर्म में स्थित रहने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे का धर्म ऊपर से कितना भी आकर्षक क्यों ना दिखता हो, पर जो हमारा स्वभाव प्राप्त कर्तव्य कर्म है, उसे छोड़कर दूसरे के धर्म को स्वीकार करने से अंततोगत्वा बड़ी हानि होती है। स्वधर्म भले ही विगुण और नीरस प्रतीत होता हो, पर यदि उसका अनुष्ठान 'योग' की भावना से किया जाए, तो वही हमारे लिए कल्याणकारी सिद्ध होता है। कारण यह है कि स्वधर्म सहज होता है, हमारी प्रकृति के अनुकूल होता है और पर धर्म आकर्षक दिखने पर भी गरिष्ठ होता है। स्वधर्म में यदि कोई दोष भी दिखे तो उस दोष का मार्जन करते हुए उसका अनुष्ठान करना चाहिए। संसार में ऐसा कोई कर्म नहीं है जो पूरी तरह निर्दोष हो। कर्म में गुण दोष दोनों रहते हैं।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषम् अपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।। (18/48)
-'हे कौंतेय! जो स्वभाव प्राप्त कर्म है, उसमें दोष दिखने पर भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए। जैसे आग के साथ हरदम धुआं लगा रहता है, वैसे ही सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त रहते ही हैं।'
    यदि मनुष्य सोचे कि मैं केवल निर्दोष कर्म करूंगा, तो भले ही वह सारी दुनिया में चक्कर लगा ले, उसे निर्दोष कर्म ढूंढे नहीं मिलेगा। अर्जुन को हठात् युद्ध में दोष दिखा। युद्ध उसका स्वभाव प्राप्त कर्म था, स्वधर्म था। स्वधर्म में दोष दर्शन करने के कारण वह विचलित हो गया और स्वधर्म को छोड़कर भिक्षा द्वारा जीवन यापन करने की बात कहने लगा। प्रकारांतर से उसे सन्यास धर्म बड़ा आकर्षक लगने लगा और वह उस परधर्म को अंगीकार करने की बात कहने लगा। अर्जुन नहीं समझ सका था कि उसकी इस मानसिक रुझान के पीछे कायरता और मनोदौर्बल्य कार्य कर रहा है। नहीं समझ सका था परधर्म उसके विनाश का कारण होगा और हठपूर्वक यदि वह उसे अंगीकार कर लेगा, तो 'इतो नष्ट: उतो भ्रष्टः' वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी। पर कृष्ण समझते थे। इसीलिए उन्होंने अर्जुन को फटकारा। गाण्डीवधारी अर्जुन को क्लीव कहा, नपुंसक कह कर पुकारा। उसे परधर्म की भयावहता बतलायी और स्वधर्म में स्थित रहने पर बल दिया।
    स्वधर्म का तात्पर्य किसी संप्रदाय से नहीं है। स्वधर्म का मतलब हिंदू धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म आदि से नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक अलग और विशेष धर्म होता है। उसका यह धर्म उसके संस्कारों पर, उसकी जन्मजात अभिरुचियों पर आधारित होता है। मानने की एक माता-पिता की 10 संतानें हैं। तो उनमें से प्रत्येक संतान का स्वधर्म दूसरी के स्वधर्म से भिन्न होगा स्वधर्म का पथ सबसे कम अवरोध वाला पथ होता है। स्वधर्म के अवलंबन से मनुष्य की प्रगति अपेक्षाकृत शीघ्र होती है। अपनी जन्मजात अभिरुचियों और मानसिक रुझान के माध्यम से मन को ईश्वर की ओर मोड़ने का अभिक्रम करना स्वधर्म कहलाता है। स्वधर्म पालन का प्रयोजन है मन को ईश्वराभिमुखी बनाना। कुछ परिस्थितियों के कारण अचानक जब हमारी वृत्तियां स्वधर्म पालन को छोड़कर परधर्म की ओर मुड़ने लगती है, तब उसे स्वधर्म त्याग कहते हैं। शनैः शनैः अभिरुचि में परिवर्तन और उन्नयन हो सकता है। संभव है जब मैं छोटा था तब मेरी किसी विशेष दिशा में थी। धीरे-धीरे मानसिक विकास के साथ मेरी रुचि में भी परिवर्तन होता गया। तो कह सकते हैं कि मेरा स्वधर्म भी मेरे मानसिक विकास के अनुरूप बदलता गया। इसे स्वधर्म त्याग नहीं करते। यह तो मानो क्रमिक रूपांतरण है विकास है। तब स्वधर्म त्याग का क्या मतलब है? यदि मैं हठात् किन्हीं कारणों से अपने स्वधर्म को एकदम छोड़ दूं और परधर्म अपना लूं ऐसा परधर्म, जिसमें मेरी पहले कभी आस्था नहीं थी, तो वह स्वधर्म त्याग कहलाता है। अर्जुन स्वधर्म को छोड़ना चाहता तां। युद्ध के पूर्व तक अर्जुन ने यही कहा था किं वह दुर्योधन को देख लेगा कर्ण से निपट लेगा और दुःशासन को मजा चखा देगा। उसने इससे पूर्व कभी भी संन्यास की बात नहीं कही थी। कृष्णा ने कभी अर्जुन के मुख से वैराग्य की बातें नहीं सुनी थी। अर्जुन ने हरदम अपने गाण्डीव की सराहना की थी। उसे अपने भुजबल पर गर्व था। गांडीव की टंकार ही उसका जीवन थी। जिस समय उसने कृष्ण के रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाने को कहा, तब भी उसमें क्षत्रियोचित शौर्य कार्य कर रहा था। और उसने अभिमान पूर्वक कृष्ण से कहा भी था-
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ।। (1/22)
-'मैं उन लोगों को देख लेना चाहता हूं, जो लड़ाई की कामना से यहां खड़े हैं तथा जिनसे इस रण उद्योग में मुझे युद्ध करना है।' जरा अर्जुन के इस वाक्य पर तो ध्यान दीजिए- 'कैर्मया सह योद्धव्यम्'- मुझे किन किन के साथ लड़ना है। यानी अर्जुन तब का युद्ध का आकांक्षी है। पर एक बार दोनों सेनाओं को देख लेने पर उसमें विषाद प्रवेश करता है। उसकी वृत्तियां हठात्, अचानक मोड़ लेती है और वह संन्यास की बातें करने लगता है। इसको स्वधर्म त्याग कहते हैं। यहां स्वधर्म का क्रमिक रूपांतरण या विकास नहीं है, बल्कि परिस्थितियों की चोट से उसका अचानक त्याग है। ऐसा त्याग मानसिक व्यामोह के कारण हुआ करता है। इसलिए कृष्ण परधर्म को भयावह कहते हैं। मानसिक व्यामोह की अवस्था में होने वाले कार्य भयावह की ही श्रेणी में आते हैं।
    तो, अर्जुन इसी व्यामोह से आक्रांत हुआ था और अपने स्वधर्म में दोष देख रहा था। श्रीकृष्ण उसे समझाते हुए कहते हैं, "पार्थ! संसार के सारे कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं। दोष और कर्म का परस्पर संबंध धुएं और आग के समान है। कोई दोष दिखा इसीलिए स्वभाव प्राप्त कर्म को छोड़ नहीं देना चाहिए। तू अपना कर्तव्य कर्म कर, अपने स्वधर्म का पालन कर। इसमें जो दोष तुझे दिखाई देता है, उससे छुटकारे की विधि तुझे बताएं देता हूं।"

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