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भगवत समर्पण कि भावना

भगवत समर्पण कि भावना


भगवान कृष्ण ने यह विधि बतलाई भी। विधि है भागवतसमर्पित बुद्धि से स्वधर्म का अनुष्ठान करना। कर्तव्य कर्म पूरी तत्परता और कुशलता के साथ करते हुए फलाफल भगवान पर छोड़ देना। कर्तापन का भाव अपने ऊपर न लादकर उसे भगवान पर लाद देना। विकर्म और अकर्म से अपना बचाव करते हुए कर्तव्य कर्मों को ईश्वर की पूजा मानते हुए करना।

    यहां पर एक प्रश्न उठाया जाता है। वह यह कि एक और तो कहा जाता है कि सबकुछ ईश्वर की प्रेरणा से होता है, और दूसरी ओर यह कहा जाता है विकर्म और अकर्म से अपना बचाव करो। अगर सभी कुछ ईश्वर की प्रेरणा है, तो विकर्म और अकर्म भी ईश्वर प्रेरित हैं। उनसे बचने की फिर कोशिश क्यों की जाए? क्यों ना यही मानकर चलें कि दुष्कर्म भी भगवान ही कराता है? इसका उत्तर यह है कि वह स्थित बहुत ऊंची है, जब भला और बुरा, शुभ और अशुभ सभी कुछ ईश्वर की प्रेरणा मालूम होता है। सामान्य अवस्था में ऐसा तर्क गड्ढे में ले जाने वाला होता है। आज हमें ईश्वर में विश्वास नहीं है, इसलिए हम ऐसा कुतर्क करते हैं। यदि वास्तविक रूप से हम ईश्वर में विश्वास ही हो जाएं, तो इस प्रकार के गलत तर्क हमें पीड़ित नहीं करेंगें। आज जीवन में जितने क्लेश हैं, वह नासमझी के कारण पैदा होते हैं। एक समय आएगा जब हम अध्यात्म की डगर में आगे बढ़ जाएंगे, और ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेंगे, जब अशुभ भी भगवान की ही प्रेरणा मालूम पड़ेगा। तब वृक्ष की एक पत्ती का हिलना भी ईश्वर प्रेरित जान पड़ेगा। पर यह हमारी आज की स्थिति में सत्य नहीं है। आज हम साधना की स्थिति में हैं, राहगीर हैं। आज हमारी भावना कैसी हो? यही कि जो कुछ मुझ से दुष्कर्म हो जाता है, या कुविचार मन में उठता है, वह मेरे अहंकार से प्रेरित होता है, और जो कुछ अच्छा होता है, वह ईश्वर की कृपा से होता है। यदि हमसे कुछ बुरा हो गया तो पश्चाताप करते हुए हम प्रभु से निवेदन करें, "प्रभो! ऐसा मुझसे और कभी ना हो। ऐसी मेरी  कुवृत्ति न हो। तुम मेरी अशुभ वृत्तियों को दूर कर दो। मैं तुम्हारी शरण आया हूं। मुझ पर कृपा करो।" एवंविध शरणागत भाव चित्त के विक्षेप को धीरे-धीरे दूर करता है और मन की एकाग्रता में सहायक होकर हमें योगारूढ बना देता है।

    परंतु यहां फिर से एक प्रश्न पूछा जा सकता है। ठीक है, हमने समझ लिया कि शरणागत भाव साधक को अध्यात्म के पथ पर ऊंचा उठा ले जाता है। पर यह कैसे सध सकता है कि जो कुछ भी हम करें, उसे ईश्वर समर्पित कर दें? उत्तर में हम कह सकते हैं कि ईश्वर का सतत स्मरण चिंतन करने से यह भाव सध सकता है। इस पर फिर प्रश्न उठा कि भगवान का निरंतर स्मरण भला कैसे किया जा सकता है? अगर हम हिसाब करते समय ईश्वर का स्मरण करें, तो क्या हिसाब में गड़बड़ी नहीं हो जाएगी? आप तो गीता का हवाला देते हुए कहते हैं कि योग कर्म करने की कुशलता है। तो इस प्रकार काम करते हुए अगर ईश्वर का स्मरण चिंतन किया जाए, तो क्या उससे कर्म में अकुशलता नहीं आएगी? कोई कह सकता है कि यदि मैं साइकिल पर बाजार जाते हुए ईश्वर का स्मरण करने लगूं तो क्या कोई दुर्घटना नहीं हो जाएगी? भक्तों ने श्रीरामकृष्ण से पूछा था, "महाराज! हर समय, कार्यों के बीच, ईश्वर का चिंतन कैसे किया जा सकता है? ठीक है कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जब कहा जा सकता है कि 'हाथ से काम मुंह से नाम'। पर जिस समय हम बुद्धि को निविष्ट कर कर्म में लगे होते हैं, तब ईश्वर का चिंतन कैसे हो सकता है?" उत्तर देते हैं श्रीरामकृष्ण। दांत की पीड़ा का उदाहरण देकर स्मरण के रहस्य को खोल देते हैं। जब दांत की पीड़ा होती है, तो वह मानो मन के एक भाग को पकड़ लेती है। मन का वह भाग हरदम दांत की पीड़ा में पड़ा रहता है। बाजार जाते, ऑफिस में काम करते, घर में बैठते बोलते सब समय दांत की पीड़ा का अनुभव होता रहता है। उसी प्रकार अभ्यास के द्वारा मन को भगवान के चरणों में इस प्रकार लगा देना चाहिए कि उनका स्मरण अन्तः प्रवाह के समान मन के भीतर सदैव बहता रहे। मन की ऐसी अवस्था दीर्घकालव्यापी अभ्यास से सिद्ध होती है। श्रीरामकृष्ण जैसा कहते थे जब संसार में काम करो तो एक हाथ से भगवान के चरणों को पकड़े रहो और दूसरे से काम करो, जब काम समाप्त हो जाए तो वह दूसरा हाथ भगवान के चरणों में लगा दो। यही सतत स्मरण का रहस्य है। हर कर्म के प्रारंभ और अंत में श्रीप्रभु की कृपा का स्मरण करो, बीच में अवकाश मिलने पर मन को पुनः उनमें लगा दो। हिसाब के पहले और अंत में श्रीभगवान का चिंतन कर लो। हिसाब के बीच में, कलम रखकर, फिर से उनकी कृपा का स्मरण कर लो। इससे ईश्वर का सतत स्मरण सधता है और कर्म पहले की अपेक्षा अधिक कुशलता से निष्पन्न होता है।

    एक सन्यासी हिमालय के रास्ते पर ऊपर चढ़ा रहे थे। बीच में उन्हें ठोकर लगी और वह कह उठे 'प्रियतम! इस क्षण तुम्हारी विस्मृति हो गई थी इसलिए मुझे ठोकर लगी।' कैसी अच्छी बात है! संसार में ठोकर लगती है, जब हम ईश्वर को भूल जाते हैं। ईश्वर का चिंतक स्मरण हिसाब में गड़बड़ी नहीं पैदा करता, या कार्य की क्वालिटी को खराब नहीं करता, बल्कि उसे उत्तम बनाता है। जो व्यक्ति कह रहा था कि साइकिल पर बाजार जाते समय ईश स्मरण करने से क्या टक्कर नहीं हो जाएगी, उससे पूछा जाए कि क्या सारे समय तुम साइकिल के चक्के को देखते रहते हो? क्या तुम्हारा मन इधर उधर कहीं नहीं जाता? देखा जाए तो इस व्यक्ति का मन संसार में सर्वत्र चक्कर काट रहा है और ईश्वर का चिंतन करने के लिए कहने पर वह दुर्घटना होने की दलील देता है। जो व्यक्ति हिसाब कर रहा है उसका मन जाने कहां भटकता रहता है। तात्पर्य यह है कि यह दलीलें लचर हैं। मन पर अगर अभ्यास द्वारा संस्कार डाले जाएं, तो वह सतत् ईश्वर का स्मरण करने में सफल हो सकते हैं।

    एक समय मुझे ठोकर लगी और चोट के कारण में लंगड़ाकर चलने लगा। दो दिन बाद मैंने एक सपना देखा। सपने में भी मैं लंगड़ा लंगड़ा कर चल रहा था। अब देखिए चोट जैसी एक सामान्य प्रक्रिया में मन पर इतना संस्कार डाल दिया कि स्वप्न में तदनुरूप क्रिया होने लगी। तो अगर हम जानबूझकर मन पर समर्पण के संस्कार डालते रहें तो ईश्वर के प्रति समर्पण भाव की एक अंतः सलिला मन में से बहाना क्यों संभव न होगा? इस अभ्यास को ही साधना कहते हैं। यही योग है, जिसका उपदेश गीता करती है। यही रसायन है, जो कर्म के विष को सोख लेता है और कर्म से लगने वाले बंधन तो छिन्न कर देता है।

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