
ईश्वर कल्पना नहीं परम सत्य
यहां पर कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर तो महज एक कल्पना है, इसलिए ईश्वर पर विश्वास करना भी कल्पना है। यह लोग कहते हैं कि तुम ईश्वर नाम का हौआ खड़ा कर देते हो। और यह मानने लगते हो कि सफलता विफलता उसी की कृपा है। इस प्रकार मन को दिलासा देने की कोशिश करते हो, उसके उत्तर में कहा जा सकता है, कि यदि तर्क के लिए थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि ईश्वर एक कल्पना है, तो यदि कोई कल्पना मनुष्य को टूटने से बिखरने से बचा सकती है, विपत्तियों के झंझावात से उसकी रक्षा कर, उसे खड़ा रहने की शक्ति प्रदान कर सकती है, तो ऐसी कल्पना को ग्रहण करने में दोष क्या है? फिर मैं पूछता हूं, क्या हमारा सारा जीवन ही एक लंबी कल्पना नहीं है? हम सदैव कल्पना में ही तो विचरण करते रहते हैं, हमारा जीवन कल्पना की एक लंबी गाथा है। थोड़ा विचार करके कि, हम कितने छड़ वर्तमान में रहते हैं। हम देखेंगे कि वर्तमान में हम प्रायः रहते ही नहीं या यदि रहते हैं, तो बहुत थोड़ा। शेष समय या तो हम अतीत की स्मृतियों में डूबे होते हैं, या फिर भविष्य के ताने-बाने बुनते रहते हैं। और अतीत और भविष्य दोनों ही कल्पनाएं हैं। अतीत इसलिए कि वह बीत गया, और भविष्य इसलिए कि वह आ जाना है। अतः यदि कोई कहे कि तुम ईश्वर को छोड़ दो क्योंकि, वह एक कल्पना है तो उससे कहा जा सकता है, कि यदि तुम भूत और भविष्य का चिंतन छोड़ सको तभी तुम ऐसा कहने के अधिकारी हो।
फिर एक पक्ष और भी है। यदि किसी कल्पना से ठोस लाभ होता हो तो वह ग्राह्य है। सामान्य व्यवहार एवं विज्ञान के क्षेत्र में भी कल्पनाओं का स्वीकरण हुआ है, अक्षांश और देशांतर रेखाएं आखिर क्या है? क्या महज कल्पना नहीं है? वह पृथ्वी पर कहीं खींची तो नहीं है, पर उनकी सहायता से हम मरुस्थलों को पार करते हैं, और हवाई जहाज में उड़कर अपने गंतव्य को पहुंचते हैं। दिशाएं भी केवल कल्पना ही हैं, पर हम दिशाओं की सहायता से विशाल समुद्र को पार कर जाते हैं। विज्ञान में हमें बिंदु और सरल रेखा की परिभाषाएं पढ़ाई जाती हैं, तो क्या जो बिंदु हम बनाते हैं या जो सरल रेखा खींचते हैं, वह परिभाषा के अनुसार ठीक है, नहीं बिंदु वह है जिसमें ना लंबाई है ना चौड़ाई, और सरल रेखा वह है, जिसमें लंबाई तो है पर चौड़ाई नहीं। अब किसी से कहो कि वैसा बिंदु बना दें और वैसी रेखा खींच दे, तो वह नहीं कर सकता। यहां पर भी हमें कल्पना करनी पड़ती है, मानलेना पड़ता है, कि यह बिंदु है और यह सरल रेखा। इसी कल्पना की भित्ति पर विज्ञान का इतना बड़ा शोध खड़ा है। अतः कल्पना से उसे ठोस लाभ होता देखा जाता है। तो अगर ईश्वरी रूपी कल्पना से मनुष्य बिखरने से बच सकता है, हताशा से अपनी रक्षा कर, फिर से उत्साह पूर्वक जीवन संग्राम में उतर सकता है, तो उसमें दोष क्या है?
और हम तो कहते हैं, बंधु ईश्वर कल्पना नहीं है। वह जीवन का परम सत्य है, उसे छोड़कर बाकी सब कल्पना है। वह अतीत में भी सत्य था, वर्तमान में भी सत्य है, और भविष्य में भी सत्य रहेगा। वह त्रिकालाबाधित सत्य है। शेष जिन्हें हम सत्य कहते हैं, वह वस्तुतः सत्य नहीं होते। वह कुछ समय तक के लिए अस्तित्ववान् प्रतीत होते हैं, पर उसके बाद उनका नाश हो जाता है। ईश्वर ही शाश्वत और अविनाशी है।
इस प्रकार गीता कर्म के फल के विषय में हमें जो सीख देती है, वह हमें पलायनवादी नहीं बनाती। वह कहती है कि हमें फलों के प्रति आग्रह नहीं रखना चाहिए, क्योंकि आग्रह का भाव मन को चंचल बना देता है। इस पर यह कहा जा सकता है कि जब हम बिना कर्म फल की चाह के कर्म कर ही नहीं सकते, तब अनासक्त होकर कर्म करने का,
फल की चाह न रखकर कर्म करने का क्या मतलब है।
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