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गीता योगशास्त्र

    गीता योगशास्त्र

     गीता मन को जानने की विद्या है उसे योगशास्त्र भी कहा गया है महर्षि पतंजलि ने जब अपना प्रख्यात योगसूत्र लिखा तब पहले उन्होंने योग की परिभाषा दी योग क्या है पतंजलि कहते हैं "योग वह उपाय है जिससे चित्त की वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती है " अभी तो हमारे मन की वृत्तियां प्रवाह मान है, जिस प्रकार नदिया नाले में जल बहता है उसी प्रकार मन भी अभिराम गति से बह रहा है हमारे जानते एक क्षण ऐसा नहीं आता जब मन विचारों से शून्य रहता हो/ जब हम सोते हैं और सपना देखते हैं तब भी हमारा मन प्रवाह मान रहता है हम सपने में जो दृश्य देखते हैं वह मन के प्रवाह के कारण ही संभव हो पाता है, केवल सुषुप्ति की दशा में स्वप्न विहीन प्रगाढ़ निद्रा की दशा में ही हमारा मन कुछ समय के लिए स्थिर और शांत होता है, अच्छा जब सुसुप्त में हमारा मन शांत होता है जब मन का प्रवाह कुछ देर के लिए बंद होता है तब क्या हम उसके स्वभाव को जान सकते हैं नहीं क्योंकि जो जानने वाला बन है वही सोया रहता है सुषुप्त के अतिरिक्त अन्य सभी समय मन का प्रभाव अभिराम रूप से बहता रहता है मन के इस प्रवाह को ज्ञान पूर्वक रोकना ही योग है/
    बाहर से हम बहने वाली नदियां नाले के प्रवाह की तीव्रता को नहीं जान पाते हम उसकी तीव्रता और सत्य का बोध तब होता है जब हम उसे बांधते हैं, जो लोग नदी या नाले के प्रवाह को बांधते हैं वहीं उसके भेद को जानते हैं, इस प्रकार हमें अपने मन के प्रवाह की सत्य का बोध तब तक नहीं होता जब तक वह बहता रहता है, और उसके साथ हम भी बहते रहते हैं, हम तब तक या नहीं जानते कि मन के इस प्रवाह में कितनी शक्ति छिपी हुई है/
    एक बार मैं गंगा के तीर पर स्नान कर रहा था, मैं कोई तैराक नहीं था बचपन में गांव के तालाब में हाथ पैर मार लिया करता था, मैंने तीर पर ही थोड़ा पैर मार कर देखा मुझे लगा कि मैं तो गंगा में अच्छी तरह से तैर सकता हूं क्योंकि मुझे आगे बढ़ने में कोई कठिनाई नहीं हुई मैं आगे बढ़ा थोड़ी दूर जाने पर किनारे पर खड़ा हुआ एक व्यक्ति चिल्लाया आगे मत जाओ बहुत गहराई है मैंने वहां पर जल की थाह  ली पता चला कि वहां तो जल अथाह  है, मैं वापस लौटा और 5 मिनट तक हाथ पैर मारने पर भी मैं मुश्किल से 1-2 गज वापस लौट सका इसका कारण यह था कि जब मैं किनारे से गंगा में तैर रहा था तब मैं प्रवाह के साथ था पर वापस लौटते समय मैं प्रवाह के विपरीत पड़ गया था, जब मैं गंगा के प्रवाह के साथ बढ़ रहा था तब मुझे उसकी ताकत का बोध नहीं हुआ पर जब मैं वापस लौटने का प्रयास करने लगा तब पता चला कि प्रवाह कितना तेज है, मैं प्रवाह की उलटी दिशा में तैर ही न सका जब मैं फिर से प्रवाह के साथ आगे बढ़ते हुए धीरे-धीरे प्रवाह को काटते हुए कोई 100 गज की दूरी पर किनारे लगा, यही बात मन के प्रवाह के साथ लागू होती है/

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