महाभारत युद्ध और उसकी भूमिका
महाभारत कालीन युद्ध परम्परा
पहले हमने कहा था कि महाभारत कालीन समाज विज्ञान की दृष्टि से बड़ा उन्नत था। इसका पता हमें महाभारत में वर्णित विभिन्न प्रक्षेपास्त्रों के विवरण से लगता है। पहले हमने बताया था कि इन प्रक्षेपास्त्रों को आज का विज्ञान मिसाइल कह कर पुकारता है। ये प्रक्षेपात्र अपना काम करके चलाए जाने वाले के पास लौट आते थे, ऐसा भी महाभारत में लिखा मिलता है। अग्नेयास्त्र अग्नि की वर्षा करता था तो वरूणेयास्त्र जल बरसाता था। ब्रह्मास्त्र ऐसा अमोघ अस्त्र था, जिसकी विनाशकारी शक्ति की बराबरी नहीं थी। महाभारत में इन सब अस्त्र शस्त्रों के नाम और उपयोग तो मिलते हैं, पर उनका technical know-how या technical details यानी उनका यंत्र विज्ञान हमें उसमें नहीं प्राप्त होता। इससे कुछ लोग शंका करते हैं कि महाभारत में लिखी इन सब बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, बल्कि यह सब काल्पनिक है। उनका तर्क यह है कि यदि उस युग में भारत में विज्ञान इतनी बढ़ती पर था तो उस विज्ञान का एकाएक लोग इस भूल से कैसे हो गया? यह तर्क पर्याप्त वजनी है। भारत का विगत 1000 वर्ष का इतिहास इतना धुंधला और अंधकार पूर्ण रहा है कि भारत के गौरवमय अतीत पर वास्तविक ही शंका होती है। और दूसरी ओर इस गरिमामण्डित अतीत की घोषणा करने वाले स्मृति चिन्ह आज हमें उपलब्ध है, जिनके बल पर हमें अपने विगत शौर्य, वीर्य, तेज और बहुमुखी प्रतिभा का पता चलता है। अतएव कहा जा सकता है कि महाभारत के युग में भारत भौतिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध तां। जीवन के हर क्षेत्र में उसने उल्लेखनीय प्रगति की थी क्या शिल्प, क्या रसायन, क्या युद्ध कला, क्या साहित्य और क्या धर्म-दर्शन, प्रत्येक अंग ही उस काल में सुपुष्ट दिखाई देता है। फिर महाभारत का भीषण नरसंहार हुआ और उसके साथ ही सारी विद्या भी नष्ट हो गई। विद्या तो पुरुषों का आश्रय लेकर चलती है। जब पुरुष ही मारे गए, तो अवलंबन के अभाव में विद्या भी मृत हो गई ऐसा प्रतीत होता है।
महाभारत से पता चलता है कि उस युद्ध में दोनों ओर मिलाकर कुल 18 अक्षौहिणी सेनाएं थीं। एक अक्षौहिणी सेना में 109350 पैदल, 65610 घोड़े, 21870 रथ, 21870 हाथी हुआ करते थे। इस हिसाब से यदि रथ और हाथी में एक-एक सवार के अलावा एक सारथि और एक महावत को पकड़े तो 18 अक्षौहिणी सेना में कुल 4523920 मनुष्य होते हैं। और हम महाभारत में ही पढ़ते हैं कि युद्ध के उपरांत पाण्डवों को मिलाकर मात्र 10 -15 योद्धा शेष रहे, बाकी सब तो युद्ध की विभीषिका में स्वाहा हो गए। अब कल्पना कीजिए कि वह नरसंहार कैसा भयानक रहा होगा! महाभारत हमें बताता है कि इतना बड़ा नरसंहार इसके पहले कभी नहीं हुआ था। धरा रक्त से सिंचित हो गई थी। उस विकराल संहार ने विश्व को ही मानों खत्म कर दिया था, क्योंकि तत्कालीन समस्त परिचित भू-भागों से योद्धागण उस युद्ध में भाग लेने के लिए आए हुए थे।
उस युग में युद्ध की परिपाटी भी कुछ विचित्र सी प्रतीत होती है। दोनों दल तत्कालीन राजाओं के पास सहायता मांगते हुए संदेशा भेजते। जिस दल का अनुरोध पहले पहुंचता राजा उसके अनुरोध को स्वीकार कर लेता और अपनी बड़ी सेना लेकर युद्ध में भाग लेने के लिए आ जाता। हो सकता है कि उस राजा की सहानुभूति दूसरे दल के साथ है, पर चूंकि पहले दल का आमंत्रण उसे पहले मिला है इसलिए परंपरा के अनुसार उसे पहले दल का ही साथ देना पड़ता। यही उस परिपाटी की विचित्रता थी। इसका दृष्टांत हमें श्रीकृष्ण के जीवन में दिखाई देता है। दुर्योधन और अर्जुन दोनों युद्ध के लिए सहायता की याचना करने श्री कृष्ण के पास जाते हैं। दुर्योधन पहले पहुंचा। श्री कृष्ण सोए हुए थे। अतः श्री कृष्ण के सिरहाने जाकर बैठ जाता है और उनके जागने की प्रतीक्षा करता है। अर्जुन भी इतने में वहां पहुंचा और दुर्योधन को सिरहाने बैठा देखा। वहां श्री कृष्ण के पैर की तरफ हाथ जोड़े हुए खड़ा रहा। जब भगवान उठे तो पैरों की ओर खड़े अर्जुन पर उनकी दृष्टि पहले पढ़ी और बाद में उन्होंने दुर्योधन को देखा। दोनों से आने का कारण जब भगवान ने को मालूम पड़ा, तो उन्होंने कहा कि क्योंकि अर्जुन को उन्होंने पहले देखा है इसलिए अर्जुन का अनुरोध वे पहले स्वीकार करेंगे। इस पर दुर्योधन ने आपत्ति करते हुए कहा कि वह तो फिर पक्षपात और अनुचित होगा। वह बोला "मैं पहले आया हूं पता मेरा अनुरोध पहले शिकार होना चाहिए।" अंत में जैसा कि हम पढ़ते हैं, भगवान कृष्ण ने एक ओर अपने को रखा और दूसरी और अपनी एक अक्षौहिणी चतुरंगिणी सेना को। अर्जुन ने भगवान कृष्ण को चुना और दुर्योधन को श्रीकृष्ण की एक अक्षौहिणी सेना प्राप्त हुई। इस कथा में हमें उस युग की पर पार्टी की एक झलक मिलती है।
तो हम कह रहे थे कि तत्कालीन विश्व के समस्त भू भागों के राजा गण अपने धुरंधर शूर वीरों को ले कुरुक्षेत्र के युद्ध में सम्मिलित हुए थे। इनमें से कई लोग अस्त्र शस्त्रों के जानकार थे। वह लोग प्रचंड रणबांकुरे थे और युद्ध विद्या की सूक्ष्मताओं से परिचित थे। पर दुर्भाग्य ऐसा हुआ कि वे सब के सब युद्ध में मारे गए और उनके साथ उनकी विद्या भी लुप्त हो गई। इसलिए महाभारत ग्रंथ जो कि युद्ध के 50 वर्ष बाद ग्रंथित हुआ, प्रक्षेपास्त्रों या यंत्र विज्ञान न दे सका। कारण यह था कि जो उसके जानकार थे वह तो युद्ध में मर गए थे। केवल अस्त्रों का परिचय और उपयोग मात्र ज्ञात था, अतः उतना ही वर्णन हमें महाभारत ग्रंथ में प्राप्त होता है।
एक बार अल्बर्ट आइंस्टाइन से किसी ने प्रश्न किया "अच्छा महाशय, यह बताइए तृतीय महायुद्ध के संबंध में आपकी क्या राय है?" उस समय अणु बम बन चुके थेऔर द्वितीय महायुद्ध में उसका प्रयोग जापान पर किया जा चुका था। उसकी भयंकरता को दृष्टिगत करते हुए प्रश्न कर्ता ने आइंस्टाइन से उपर्युक्त प्रश्न पूछा था। प्रश्न सुनकर आइंस्टाइन कुछ देर मौन रहे, फिर धीरे से बोले "यह तो मैं नहीं जानता कि तृतीय महायुद्ध का स्वरूप कैसा होगा। पर यदि कहीं चतुर्थ महा युद्ध हुआ, तो लोग लकड़ी और पत्थर से लड़ेंगे!"
कितना सटीक और अर्थ पूर्ण उत्तर है यह! इससे संभावित तृतीय महायुद्ध की विकरालता का बोध होता है। आइंस्टाइन मानते हैं कि तृतीय महायुद्ध इतना भयंकर होगा कि वह विश्व की समस्त संस्कृति और सभ्यता को नष्ट कर देगा, लोग आदिम अवस्था में पहुंच जाएंगे और एक दूसरे से लकड़ी और पत्थर से लड़ेंगे। कल्पना कीजिए कि तृतीय महायुद्ध हुआ (भगवान करे ऐसा ना हो) इसके पश्चात कुछ संस्कार वाले लोग बच रहे और उन्होंने अपने युग का इतिहास लिखने की ठानी। तो वह विभिन्न अस्त्र शस्त्रों और मिसाइल आदि का वर्णन तो करेंगे पर उनका यंत्र विज्ञान उनका technical know-how न लिख पाएंगे, क्योंकि उस विज्ञान के ज्ञाता ही तब न बचे रहेंगे। महाभारत ग्रंथ भी बहुत कुछ इसी प्रकार का इतिहास है।
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