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गीता में योग की परिभाषाएं

गीता में योग की परिभाषाएं

     योग क्या है? 'योगः कर्मसु कौशलम्'- कर्म करने की कुशलता ही योग है। जब हम अपनी समस्त शक्ति और बुद्धि के साथ कार्य करते हैं तो वह योग हो जाता है। यह योग का एक पक्ष है। योग का दूसरा पक्ष है- 'समत्वम् योग उच्यते'- अर्थात बुद्धि की समता का नाम योग है। जब योगः कर्मसु कौशलम् और समत्वं योग उच्यते को एक साथ जोड़ा जाता है तब योग का संपूर्ण स्वरूप हमारे सामने उपस्थित होता है। हमें अपनी सारी कुशलता से, और अपनी बुद्धि को संतुलित रखकर कार्य करना चाहिए। यह कैसे संभव है? 'ब्रह्मणि आधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः'- ब्रह्म को आश्रय और आधार मानकर अपने कार्यों को संपन्न करने से बुद्धि संतुलित बनी रहती है।
    हमारी बुद्धि असंतुलित तब होती है, जब कार्य करते समय हमारे मन में फल की चाह होती है। गीता इस तथ्य को जानती है, कि मनुष्य कर्म फल की भावना से प्रेरित होकर ही कर्म करता है, पर गीता यह भी कहती है कि कर्म करना तो तुम्हारे बस की बात है। किंतु कर्म का फल देने वाला एक ऐसा तत्व है, जो तुम्हारे अधिकार के बाहर हैं। इसलिए यदि तुम कर्मफल की चाह करोगे तो तुम्हारे मन में अशांति का उदय हो सकता है। क्योंकि संभव है, तुमने जिस फल को चाहा था, वह ना मिले, और जिसकी तुमने अपेक्षा नहीं की थी, वह प्राप्त हो जाय। तब तो तुम्हारा मन चंचल और विक्षुब्ध हो जाएगा। अतएव, तुम अपनी पूरी कुशलता के साथ कर्म तो करो, पर फल को ईश्वर के हाथ सौंप दो। यह कर्म का अटल सिद्धांत है, कि तुम जो भी कर्म करोगे उसका फल तुम्हें अवश्य मिलेगा। तुम जो भी अच्छा बुरा कर्म करते हो, उसका फल तुम्हें अनिवार्य रूप से प्राप्त होगा। गीता कर्म फल को अवश्यम्भावी बताती है और कहती है कि जब तुम्हें अपने कर्मों के फल मिलेंगे ही, तो तुम फल की चिंता क्यों करते हो? तुम यह कह कर कि मुझे अपने कर्म का ऐसा ही फल मिलना चाहिए, अदृश्य पर जोर कैसे डालें सकते हो? इसलिए कर्म तो करो, पर फल के लिए, ईश्वर पर निर्भरशील हो जाओ। यह गीता की सबसे बड़ी मनोवैज्ञानिक सीख है।
    गीता हमें भुलावे में नहीं रखती। कुछ लोग कहते हैं कि फल पर विचार न करना तो पलायनवाद है, जीवन से भागना है। पर यह पलायनवाद नहीं है। यह एक मनोवैज्ञानिक तर्क है। यह तर्क हमारे पैरों को विपरीत परिस्थितियों में खड़े रहने की शक्ति प्रदान करता है। गीता का कर्म सिद्धांत पूर्णरूपेण व्यवहारिक है। कृष्ण यह जो कर्म और उसके फल को ईश्वर को समर्पित कर देने की बात कहते हैं, वह एक मनोवैज्ञानिक सुझाव है। उससे कर्म का विष हमें हानि नहीं पहुंचा पाता।

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