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श्लोक बद्ध गीता महर्षि व्यास की रचना


श्लोक बद्ध गीता महर्षि व्यास की रचना

   एक बात और यदि गीता के श्लोकों को शब्दशः कृष्ण और अर्जुन के मुंह से निकला माने तो यह भी फिर मानना पड़ेगा कि कृष्ण और अर्जुन दोनों कवि थे। जो बातें भी पद्यबद्ध करते थे। यही नहीं, संजय और धृतराष्ट्र भी फिर कवि उपाधि प्राप्त कर लेंगे, क्योंकि उन्होंने भी छन्दोबद्ध भाषा का प्रयोग किया। सामान्य विचार की दृष्टि से यह संभावना भी उचित नहीं मालूम पड़ती। इस सब का निष्कर्ष यह हुआ कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तत्कालीन बोलचाल की भाषा में समझाया, उसकी मानसिक दुर्बलता को दूर किया और उसे युद्ध में प्रवृत्त किया। श्रीकृष्ण ने इस उपदेश रूपी उपादान को लेकर व्यास मुनि ने 'गीता' नामक ग्रंथ की रचना कर डाली ताकि कृष्ण और अर्जुन के संवाद का लाभ संसार की समस्त मानव जाति को मिल सके। तभी तो व्यास की प्रशंसा में कहां है-
नमोस्तु ते व्यास विशालबुद्धे
फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र।
येन त्वया भारत तैलपूर्णः
प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः।।
-'हे खिले हुए कमल दल के समान नेत्र वाले, विशाल बुद्धि व्यास जी। आपको नमस्कार, जो आपने महाभारत रूप तैल लेकर ज्ञानमय प्रदीप प्रज्वलित कर दिया।'
    ऊपर के एक पद्य में गीता को उपनिषद् रूपी गायों का दुग्ध रूपी अमृत कहा। तात्पर्य यह कि गीता उपनिषदों का निचोड़ है। जिस प्रकार गाय अपने भीतर के सार को अपने बछड़े के प्रेम से द्रवित हो दूध के रूप में प्रकट करती है, उसी प्रकार उपनिषद रूपी गायें अर्जुन रूपी बछड़े के प्रति स्नेह और करुणा से विगलित हो, गीता दुग्धामृत का दान करती हैं। बिना बछड़े के गाय नहीं पन्हाती उस के थनों में दूध नहीं उतरता। गाय के पन्हाने पर भी, यदि ग्वाला ना हो तो दूध नहीं निकाला जा सकता। इसी प्रकार उपनिषद रूपी गायों को पन्हाने के लिए अर्जुन रूपी बछड़े की आवश्यकता पड़ी। साधारण गाय को तो साधारण ग्वाला दुह ले सकता है। पर उपनिषद रूपी गायों को दुहने के लिए असाधारण ग्वाले की आवश्यकता पड़ी और ऐसा ग्वाला हमें गोपाल नंदन के रूप में प्राप्त होता है। यह ग्वाला उपनिषद् रूपी गायों का दोहन कर अमृत दुग्ध गीता के रूप में रख जाता है। इस अमृत दुग्ध के पान के अधिकारी कौन हैं? सुधीजन। जो विवेकी हैं, जिनके हृदय में इस दूध को पीने की अभिलाषा है, जिनकी बुद्धि में इस दुग्ध पान की क्षमता है, वह इसके अधिकारी हैं वह गीता ज्ञान को प्राप्त करने के सुयोग्य पात्र हैं।
    गीता को दुग्धामृत कहने का एक और अभिप्राय हो सकता है। विशुद्ध अध्यात्म विद्या केवल अमृत हैं और केवल कर्म, जल है। दोनों ही अपने आप में मनुष्य के लिए अपर्याप्त हैं। मनुष्य को दोनों चाहिए उसे अमृत भी चाहिए, साथ ही मर्त्यभाव भी। केवल अमृत से सृष्टि का कार्य नहीं होता। केवल मृत्यु से जगत की स्थिति नहीं होती। अमृत और मृत्यु का समन्वय ही जीवन है। स्वर्ग का अमृत और पृथ्वी का जल जब यह दोनों मिलते हैं तब दूध बनता है। केवल जल पीकर कोई जीवित नहीं रह सकता। पर केवल दूध पीकर जीवित रहना संभव है क्योंकि दुग्ध में अमृत का भी अंश मिला है। ठीक इसी प्रकार, गीता में भी ज्ञान रूपी अमृत और कर्म रूपी जल का मेल है। गीता की इस विशेषता के कारण उसे दुग्धामृत कहा। ज्ञान और कर्म का जैसा अपूर्व समन्वय गीता में प्राप्त होता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। तभी तो गीता को ब्रह्म विद्या कहा और साथ ही योगशास्त्र भी। ब्रह्मविद्या शास्त्र है, ज्ञान है, योग शास्त्र कला है, कर्म है। अध्यात्म और व्यवहार का अपूर्व समन्वय और संतुलन यह गीता है।

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