संजय को दिव्य दृष्टि का वरदान
महर्षि व्यास ने देख लिया कि धृतराष्ट्र का मोह रोग असाध्य है, समझाने का उन पर कोई फल नहीं होने वाला है। अतः सामान्य वार्तालाप के अनंतर कहा -"बेटा! तेरे पुत्रों और अन्य राजाओं का काल आ पहुंचा है, वे युद्ध में एक दूसरे का संहार करने को तैयार हैं। यदि तुम संग्राम में इन सब को देखना चाहो, तो मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर सकता हूं। इससे तुम वहां का युद्ध भली भांति देख सकोगे।" इस पर धृतराष्ट्र बोले -"ब्रह्मर्षिवर! युद्ध में मैं अपने कुटुंब का वध नहीं देखना चाहता। आजीवन मेरी आंखें बंद रहीं। जब से मैं जन्मा हूं, अंधा ही जन्मा हूं। मैंने संसार की कोई भी वस्तु नहीं देखी। अब जबकि भाई से भाई लड़ने को तैयार है, आत्मीय-स्वजन एक दूसरे को मारने काटने के लिए उद्धत हैं, तो क्या अंत में कुल का यह संहार ही आंखें ले कर देखूं? नहीं-नहीं, महाभाग! मैं वह सब नहीं देखना चाहता। पर हां इतनी प्रार्थना अवश्य करूंगा कि आप ऐसी कुछ व्यवस्था कर जाइए, जिससे युद्ध का पूरा समाचार सुन सकूं।"
इस पर व्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि का वरदान दिया और वह धृतराष्ट्र से बोले "राजन! यह संजय तुम्हें युद्ध का वृतांत सुनाएगा। संपूर्ण युद्ध क्षेत्र में कोई भी बात ऐसी न होगी, जो इससे छुपी रहे। यह दिव्य दृष्टि से संपन्न और सर्वज्ञ हो जाएगा। सामने हो या परोक्ष में, दिन में हो या रात में अथवा मन में सोची हुई ही क्यों ना हो, वह बात भी संजय को मालूम हो जाएगी। इसे शस्त्र नहीं काट सकेंगे, परिश्रम कष्ट नहीं पहुंचा सकेगा तथा यह यदि भूमि में बिना किसी प्रकार आहत हुए निकल आएगा।"
यह कह कर भगवान वेदव्यास चले गए। उधर युद्ध शुरू हो गया और व्यवस्था के अनुसार संजय प्रतिदिन युद्ध का आंखों देखा हाल महाराज धृतराष्ट्र को सुना जाते। इस प्रकार 9 दिन बीत गए। युद्ध के दसवे दिन कौरवों के प्रथम सेनापति भीष्म पितामह अर्जुन के बाणों से धराशाई हो गए और शरशैय्या पर सोकर अपने मर्त्य शरीर को छोड़ने के लिए शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करने लगे। उस दिन संजय संग्राम भूमि से शीघ्र लौट आए और बहुत दुखी होकर धृतराष्ट्र से बोले "महाराज! मैं संजय हूं, आपको प्रणाम करता हूं। शांतनुनंदन भीष्म जी युद्ध में मारे गए। जो समस्त योद्धाओं के शिरोमणि और धनुर्धारीयों का सहारा थे, वह कौरवों के पितामह आज बाणशैय्या पर सो रहे हैं।"
जब धृतराष्ट्र ने भीष्म पितामह के आहत होने का समाचार सुना, तो वह स्तब्ध रह गए। थोड़ी देर के लिए भी कुछ सोच ही न पाए। जब शोक का वेग कुछ कम हुआ, तो उन्हें युद्ध का पूरा समाचार प्रारंभ से जानने की इच्छा हुई। वैसे तो प्रतिदिन ही संजय उन्हें युद्ध का समाचार दे देते, पर अब धृतराष्ट्र विस्तार से ही सब सुनना चाहते थे कि युद्ध की शुरुआत किस प्रकार हुई। इसी उद्देश्य धृतराष्ट्र ने संजय से वह प्रश्न पूछा, जो श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम श्लोक के रूप में हमारे सामने आता है।
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