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धर्म भी आक्रामक बने

धर्म भी आक्रामक बने

गीता में हम 'युध्यस्व' का स्वर सुनते हैं। श्री कृष्ण भगवान वास्तव में धर्म को भी उसी प्रकार aggressive (आक्रामक) होते देखना चाहते हैं, जिस प्रकार अधर्म आक्रामक हुआ करता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि अधर्म कितना आक्रामक होता है, वह समाज को बलपूर्वक अपने शिकंजे में लाना चाहता है। अधर्म का चलना ही डर और धमकी की डगर से होता है, पर धर्म, स्वभाव से, आक्रामक नहीं हो पाता। धर्म के क्षेत्र में संगठन शिथिल होता है। धर्म के पक्षधर लोग goody-goody किस्म के 'भले मानुष' हुआ करते हैं, जो अपने जीवन में तो धर्माचरण के लिए सचेष्ट होते हैं, पर दूसरों पर दुष्टों का आक्रोश देख चुपचाप किनारा काट लेते हैं, सामने आकर अन्याय का प्रतिकार करने का साहस नहीं बटोर पाते। श्री कृष्ण धर्म के इस goody-goody भाव को, सदाशयता के इस प्रदर्शन मात्र को पसंद नहीं करते। वह तो शठ के साथ शठता करने में विश्वास करते हैं। उनकी दृष्टि में दुर्योधन और भीष्म पितामह आदि में व्यवहारिक दृष्टि से अधिक अंतर नहीं है, इसीलिए अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं।
      यदि अर्जुन युद्ध छोड़कर चला जाता, तो कौरव पक्ष की विजय होती, यानी अन्याय न्याय को दबोच बैठता। तब तो लोग यही कहते कि भाई, सत्य की विजय नहीं होती, न्याय की जीत नहीं हुआ करती, वास्तव में अन्याय और असत्य ही विजयश्री प्राप्त करते हैं। और ऐसी धारणा के वशीभूत होकर समाज पशुओं से भी बदतर बन जाता। इसीलिए महाभारत का युद्ध होता है और भगवान कृष्ण न्याय के, धर्म के पक्षधर बनते हैं। यह सत्य है कि यदि श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित नहीं किया होता। तो युद्ध न होता, तो यह भयानक नरसंहार भी ना होता। पर प्रश्न यह नहीं था कि कितने लोग युद्ध में मौत के घाट उतारते हैं, प्रश्न यह था कि धर्म बचता है या नहीं। इसी दृष्टि से श्रीकृष्ण के समस्त प्रयत्नों को आंकना होगा। वे तो भरसक प्रयत्न करते हैं कि युद्ध टल जाय और सम्मान पूर्वक समझौता कौरव और पांडवों में हो जाए। और दैव का विधान ही ऐसा रहा कि दुर्मति दुर्योधन किसी भी प्रकार समझौते के लिए राजी नहीं हुआ।
     इससे स्पष्ट है कि युद्ध कराने का दोस्त कृष्ण पर नहीं थोपा जा सकता। भले ही गांधारी ने युद्ध के उपरांत अपने निहित पुत्रों के विरह में कृष्ण को ही युद्ध के लिए दोषी ठहराया और उन्हें श्राप दिया, पर यह वही गांधारी थीं, जिन्होंने दुबारा द्युतकीड़ा से पूर्व धृतराष्ट्र के सामने दुर्योधन को भला बुरा कहा था और दुर्योधन को त्याग देने की सलाह दी थी। उनके वचन तो सुनिए। जब धृतराष्ट्र दुबार पांडवों के साथ द्युतक्रीडा के लिए दुर्योधन को स्वीकृत देते हैं, तो गांधारी उन्हें चेतावनी देते हुए कहती हैं (सभापर्व, 75/2-10)-
जाते दुर्योधने क्षत्ता महामतिरभाषत।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः।।
व्यनदज्जातमात्रो हि गोमायुरिव भारत।
अन्तो नूनं कुलस्यास्य कुरवस्तन्निबोधत।।
मा निमज्जीः स्वदोषेण महाप्सु त्वं हि भारत।
मा बालानामशिष्टानामभिमंस्था मतिं प्रभो।।
मा कुलस्य क्षये घोरे कारणं त्वं भविष्यसि।
बद्धं सेतुं को नु भिन्द्याद् धमेच्छान्तं च पावकम्।।
शमे स्थितान् को नु पार्थान् कोपयेद् भरतर्षभ।।
स्मरन्तं त्वामाजमीढ स्मारयिष्याम्यहं पुनः।।
शास्त्रं न शास्ति दुर्बुद्धिं श्रेयसे चेतराय च।
न वै वृद्धो बालमतिर्भवेद् राजन् कथंचन।।
त्वन्नेत्राः सन्तु ते पुत्रा मा त्वां दीर्णाः प्रहासिषुः।
तस्मादयं मद्वचनात् त्यज्यतां कुलपांसनः।।
तथा ते न कृतं राजन् पुत्रस्नेहान्नराधिप।
तस्य प्राप्तं फलं विद्धि कुलान्तकरणाय यत्।।
शमेन धर्मेण नयेन युक्ता या ते बुद्धिः सास्तु ते मा प्रमादीः।
प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्रीर्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान्।।
    -'अर्यपुत्र! दुर्योधन के जन्म लेने पर परम बुद्धिमान विदुर जी ने कहा था- यह बालक अपने कुल का नाश करने वाला होगा, अतः इसे त्याग देना चाहिए। भारत! इसने जन्म लेते ही गीदड की भांति हुंआ-हुंआ का शब्द किया था, अतः यह अवश्य ही इस कुल का अंत करने वाला होगा। कौरवों! आप लोग भी इस बात को अच्छी तरह समझ लें। भरतकुलतिलक! आप अपने ही दोष से इस कुल को विपत्ति के महासागर में न डुबाइए। प्रभो! इन उद्दंड बालकों की हां में हां नाम मिलाइए। इस कुल के भयंकर विनाश में स्वयं ही कारण ना बनिए। भारतश्रेष्ठ! बंधे हुए पुल को कौन तोड़ेगा? बुझी हुई वैर की आग को फिर कौन भडकायेगा? कुंती के शांति परायण पुत्रों को फिर कुपित करें का साहस कौन करेगा? अजमीढ कुल के रत्न! आप सब कुछ जानते और याद रखते हैं, तो भी मैं पुनः आपको स्मरण दिलाती रहूंगी। राजन्! जिसकी बुद्धि खोटी है, उसे शास्त्र भी भला बुरा कुछ नहीं सिखा सकता। मंदबुद्धि बालक वृद्धों जैसा विवेकशील किसी प्रकार नहीं हो सकता। आपके पुत्र आपके ही नियंत्रण में रहे ऐसी चेष्टा कीजिए। ऐसा ना हो कि वे सभी मर्यादा का त्याग करके प्राणों से हाथ धो बैठे और आपको इस बुढ़ापे में छोड़कर चल बसें। इसलिए आप मेरी बात मान कर इस कुलागार दुर्योधन को त्याग दें। महाराज! आपको जो करना चाहिए था, वह आपने पुत्र स्नेहवस नहीं किया। अतः समझ लीजिए, उसी का यह फल प्राप्त हुआ है, जो समूचे कुल के विनाश का कारण होने जा रहा है। शांति, धर्म तथा उत्तम नीति से युक्त जो आपकी बुद्धि थी, वह बनी रहे। आप प्रमाद मत कीजिए। क्रूरता पूर्ण कर्मों से प्राप्त हुई लक्ष्मी विनाशशील होती है और कोमलता पूर्ण बर्ताव से बढ़ी हुई धन-संपत्ति पुत्र पौत्रों तक चली जाती है।'
    गांधारी के ऐसा कहने पर धृतराष्ट्र ने जो उत्तर दिया, वह भी बड़ा महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं (उद्योगपर्व, 75/11)-
अन्तः कामं कुलस्यास्तु न शक्नोमि निवारयितुम्।।
    -'देवी! इस कुल का अंत भले ही हो जाए, परंतु मैं दुर्योधन को रोक नहीं सकता।'
     इसके बावजूद यदि भगवान कृष्ण का युद्ध कराने का दोष दिया जाए, तो वह तो दोष देने वालों का ही दोष है। दुर्योधन युद्ध ही चाहता था और वह तो पहले से ही उसकी तैयारी कर रहा था। अंततोगत्वा युद्ध भूमि में सेनाएं सजने लगी और दोनों ओर से युद्ध हेतु व्यूह रचना की जाने लगी। ऐसे समय भगवान व्यास धृतराष्ट्र के पास आये और उन्होंने धृतराष्ट्र को समझाने का अंतिम प्रयास किया। उन्होंने ज्योतिष के बल पर भावी अनर्थ की और धृतराष्ट्र का ध्यान खींचा और उनके दोषों की ओर संकेत करते हुए कहा (भीष्मपर्व, 3/57-58)-
लुप्तधर्मा परेणासि धर्मं दर्शय वै सुतान्।
किं ते राज्येन दुर्धर्ष येन प्राप्तोऽसि किल्बिषम्।।
यशो धर्मं च कीर्तिं च पालयन् स्वर्गमाप्स्यसि।
लभन्तां पाण्डवां राज्यं शमं गच्छन्तु कौरवाः।।
     -'राजन! यद्यपि तुम धर्म का बहुत लोप कर चुके हो, तो भी मेरे कहने से अपने पुत्रों को धर्म का मार्ग दिखाओ। ऐसे राज्य में तुम्हें क्या लेना है, जिससे पाप का भागी होना पड़े? धर्म की रक्षा करने से तुम्हे यश, कीर्ति और स्वर्ग मिलेगा। अब ऐसा करो, जिससे पांडव अपना राज्य पा सकें और कौरव भी सुख शांति का अनुभव करें।'
   इस पर धृतराष्ट्र बोले (भीष्मपर्व, 3/60-61)-
स्वार्थे हि सम्मुहय्यति तात लोके
मां चापि लोकात्मकमेव विद्धि।
न चापि ते मद्वशगा महर्षे
न चाधर्मं कर्तुमर्हा ही मे मतिः।।
     -'तात! सारा संसार स्वार्थ से मोहित हो रहा है, मुझे भी सर्वसाधारण की ही भांति समझिए। मेरी बुद्धि भी अधर्म करना नहीं चाहती, परंतु क्या करूं? मेरे पुत्र मेरे बस में नहीं है।'

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