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गीता का कर्म योग
गीता का कर्मयोग इस बात पर जोर देता है कि ईश्वर पर विश्वास करो और अपने जीवन की समस्त प्रेरणाओं का उत्स उसी को मानो। पूरी शक्ति के साथ हाथ का काम करो, पर फल का अधिकार स्वयं न लो, जिसका है उसी के पास रहने दो। कर्म करने का अधिकार तुम्हारा है और फल देने का अधिकार ईश्वर का है। इस क्रम को उल्टा ना होने दो क्रम उलट जाए तभी सारी विपत्ति है, और हममें से अधिकांश के जीवन में यह क्रम उल्टा रहता है। कर्म करने का अधिकार हम ईश्वर को दे देते हैं और स्वयं निठल्ले पड़े रहते हैं। कहते हैं कि ईश्वर की मर्जी हो तो वह करा लेगा, परंतु फल के लिए हम आग्रहवान होते हैं। इससे संतुलन बिगड़ जाता है और योग सिद्ध नहीं हो पाता। तो हम क्या करें? क्रम को किसी भी प्रकार उलट ने ना दें। जब कर्म करें, तो पूरी तत्परता और कुशलता के साथ, यह मानकर की कर्म करने का पूरा अधिकार हमारा है। पर फल के संबंध में सारी चिंता ईश्वर पर छोड़ दें। ईश्वर से कहें कि तुम ही कर्मफल प्रदाता हो तुम्हारी जो मर्जी हो करो। हमें तुम्हारा हर किया मंजूर है। यही उचित दृष्टिकोण है और गीताभगवती इसी दृष्टिकोण की शिक्षा देते हुए कहती हैं-
कर्मणि एव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।। (2/47)
-'तेरा अधिकार कर्म करने में ही है, फल में कभी नहीं। तू कर्म फल का हेतु मत बन। अकर्म के प्रति तेरा लगाव न हो।' श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू कर्मफल का हेतु मत बन। क्या तात्पर्य है इस कथन का? मनुष्य कर्म तो करता है, पर उसके फल का हेतु भी स्वयं बन जाना चाहता है। मनुष्य स्वयं यदि कर्म फल को प्राप्त करने का कारण बन जाए, तो वह कर्म से बंध जाता है। कोई वस्तु हमें कब बांधती है? जब उसकी चाह हममें होती है तब। कर्मफल हमें कब बांधता है? जब हम उसके लिए आग्रहवान होते हैं तब। गीता कहती है कि कर्म का फल तो कर्म के अटल सिद्धांत से तुम्हें मिलेगा ही, तुम्हें इसके लिए कारण बनने की आवश्यकता नहीं। जो चीज तुम्हें स्वयं होकर मिलने वाली है, उसके लिए छीना झपटी क्यों? कर्मफल का हेतु तो कर्म में निहित 'अपूर्व' नामक शक्ति है। तुम इस 'अपूर्व' का स्थान लेकर क्यों कर्मपाश नेह बंधना चाहते हो?
यह एक नया दृष्टिकोण है, जो गीता से प्राप्त होता है। कर्म करो फल के प्रति लगाव ना हो। हम कर्मफल का कारण न बने और अकर्म से भी दूर रहे। मनुष्य सोच सकता है कि जब मुझे कर्मफल से कोई प्रयोजन नहीं है, तो कर्म फिर करूं ही क्यों? इसलिए गीता माता कहती हैं कि नहीं, कर्म करने का प्रयोजन है। बिना कर्म किए जीवन का चरम लक्ष्य नहीं प्राप्त होता। अति एवं निष्क्रिय मत बनो, अकर्मण्यता से दूर रहो। कर्म को भगवत समर्पित बुद्धि से करो। इससे कर्मों का विष सूख जाता है। कर्मों में स्वाभाविक रूप से रहने वाली बंधन शक्ति स्खलित हो जाती है। यही कर्म करने का कौशल है, यही योग है, क्योंकि योग को कर्म करने का कौशल कहा गया है- 'योगः कर्मसु कौशलम्।
श्री रामकृष्ण देव से भक्तों ने पूछा, "महाराज! योग को कर्म की कुशलता कहा है। इसका क्या मतलब? श्री रामकृष्ण देव ने उत्तर में दो उदाहरण दिए। कटहल काटने की कुशलता किसमें है? इसमें कि हम कटहल तो कांटे, पर इस प्रकार काटे कि उसका दूध हाथों में ना चिपक जाए। शहद के छत्ते से शहद निकालने की कुशलता किसने है? इसमें कि हम शहद निकालें, पर मधुमक्खियां हमें काट ना खाएं। इस प्रकार कर्म करने की कुशलता इसमें है कि हम कर्म तो करें पर कर्मों में स्वभाव से जो बांधने की शक्ति है वह हमें लपेट न लें, कर्मों में जो विष नैसर्गिक रूप से भरा है वह हमें विषाक्त न कर दें। यही 'योग' शब्द का तात्पर्य है। 'योगः कर्मसु कौशलम्' तथा 'समत्वं योग उच्यते' इन दोनों परिभाषाओं का यही मिला जुला अर्थ है।
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