महाभारत और उसके रचयिता
महर्षि व्यास : व्यक्तित्व और कृतित्व
थोड़ी चर्चा महाभारत और उसके रचयिता महर्षि व्यास के संबंध में करते हैं। यह गीता के भी रचयिता हुए। तात्पर्य यह कि भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन के वार्तालाप को छंदोंबद्ध कर उसे विस्तारित और विभाजित करने का श्रेय इन्हीं को प्राप्त हुआ। यह व्यास कौन थे? इनके दो नाम प्रमुख रूप से हमारे सामने आते हैं- एक कृष्णद्वैपायन व्यास और दूसरा बादरायण व्यास। कुछ लोग इन दोनों नामों को दो अलग-अलग व्यक्तियों के नाम बतलाते हैं। यानी उनका कहना है कि महाभारत आदि ग्रंथ के प्रणेता कृष्णद्वैपायन व्यास थे तथा ब्रह्मसूत्रों के रचयिता थे बादरायण व्यास। पर ऐसा मत भारतीय परंपरा के विरुद्ध है। भारतीय परंपरा में एक ही व्यास के अनेक नाम माने जाते हैं। कृष्ण उनका व्यक्तिगत नाम है। इस नाम का कारण यह हो सकता है कि उनका वर्णन कुछ श्याम हो। द्वीप में पैदा होने के कारण वे द्वैपायन कहलाए बदरीवन में तपस्या करने के कारण उनकी प्रसिद्धि बादरायण के नाम से हुई। वेद का व्यसन अर्थात विभाजन करने के कारण लोगों ने उन्हें व्यास के नाम से पुकारा।
व्यास शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता है -विभाजन और विस्तार। तो कृष्णद्वैपायन ने वेद को विभाजित भी किया और विस्तारित भी। महाभारत को पढने पर मालूम पड़ता है कि तत्कालीन समाज में लोगों की आस्था धर्म और ईश्वर पर से उठती जा रही थी। वह भौतिकता के उत्कर्ष का युग था, जब विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति हो चुकी थी। अतएव स्वाभाविक रूप से लोगों की आस्था धर्म पर से हटती जा रही थी। यह बात दुर्योधन, दुःशासन आदि के चरित्र को देखने से स्पष्ट हो जाती है। ऐसे समय भगवान व्यास ने धर्म की पुनः प्रतिष्ठा के लिए आप्राण चेष्टा की। इस दिशा में उनका पहला कार्य हुआ वेद का चार भागों में विभाजन। पहले वेद कतिपय परिवारों के पास परंपरा से सुरक्षित था। पर वेद का वृहद भार उठाना एक ही परिवार के लिए बड़ा कष्ट साध्य व्यापार था। इसमें यह भी डर बना था कि यदि वह परिवार अचानक दुर्घटनाग्रस्त हो गया, तो वेद की परंपरा की लुप्त हो जाती। इसलिए व्यासदेव ने वेद को विभाजित किया और उसकी एक एक शाखा अपने एक एक शिष्य को दे दी। यह महत् कार्य था, जिसको संपन्न करने के कारण वे व्यास कहलाए।
महर्षि व्यास एक अत्यंत उदार चेता व्यक्ति थे। उनका हृदय निम्न वर्णों की दुर्दशा पर रोता था। वे शिक्षा के प्रसार को उस दुर्दशा को दूर करने का उपाय मानते थे। अतः उन्होंने महाभारत और पुराणों की रचना की, ताकि शूद्र एवं अन्य निम्न वर्ग के लोग इन ग्रंथों को पढ़कर अपने भीतर संस्कार उत्पन्न कर सकें। महर्षि व्यास वेद के अधिकार से शून्य जातियों में भी ज्ञान का प्रसार चाहते थे और उन जातियों के योग्य व्यक्तियों को समाज में उचित स्थान दिलाना चाहते थे। महाभारत की आख्यायिकाओं के माध्यम से उनकी यह महाप्राणता पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है। कौशिक ब्राम्हण का एक महिला से प्राप्त करना, फिर उसी का धर्म व्याध नामक कसाई से उपदिष्ट होना, इसी प्रकार जाजलि ऋषि का तुलाधार वैश्य से उपदेश ग्रहण करना ये सारे उदाहरण भगवान व्यास की सीमामुक्त मानवता को प्रकट करते हैं। और तत्कालीन समाज में उनके इस प्रयास का फल भी विपुल रूप से प्रकट हुआ। सूत जाति के लोमहर्षण और उग्रश्रवा ने वह सम्मान अर्जित किया, जो बड़े-बड़े ब्राह्मणों को भी दुर्लभ था।
भारत में शास्त्रों में श्रुति और स्मृति यह दो प्रकार की शास्त्र परंपराएं हैं। श्रुति के अंतर्गत वेद आते हैं और उस युग में वेदाध्ययन का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन नामों से प्रसिद्ध द्विज मात्र तक सीमित था। शूद्रों और स्त्रियों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित किया गया था। फिर उपर्युक्त तीन वर्णों के द्विजों में जिसका नियत समय में या विधिपूर्वक उपनयन संस्कार न हुआ हो, उसे भी वेदाध्ययन के अधिकार से च्युत कर दिया जाता था। इसका कारण यह बताया गया था कि यदि गूढ़ विद्या मन्द संस्कार संपन्न व्यक्ति के पास पहुंचे, तो विद्या के शिथिल हो जाने का भय बना रहता है। यदि मंद जठराग्नि वाला पुरुष पचाने में कठिन चीजों को खा ले, तो भले ही वह वस्तुएं अपने गुण में बड़ी पौष्टिक हों, पर उस व्यक्ति को तो अधिक हानि पहुंचाएंगीं, इस प्रकार यद्यपि वेद अत्यंत उदात्त और उन्नयन कारी शिक्षा प्रदान करते हैं, पर संस्कार हीन व्यक्ति के हाथ में पढ़ने से उनमें विकृति पैदा हो जाएगी। इस डर से उस युग के अधिकारी और अनधिकारी का विवेचन किया गया और एक सामान्य नियम के तौर पर स्त्री और शूद्र आदि को वेद जैसे गंभीर विज्ञान के अध्ययन से वंचित कर दिया गया।
इस नियम के और जो भी गुण रहे हों, पर इसका एक बड़ा दोष या हुआ कि जनता का एक बहुत बड़ा समुदाय ज्ञान की प्राप्ति से वंचित हो गया। यह बात भगवान व्यास के मन में हरदम खटकती रहती थी। वह सच्चे अर्थों में क्रांतिकारी थे। वह समाज में क्रांति लाना चाहते थे। पर उनकी क्रांति का मार्ग विध्वंसात्मक नहीं था। उन्होंने समन्वय का, बीच का मार्ग निकाला। उन्होंने कहा -"ठीक है, तुम श्रुतियों को शूद्रों और स्त्रियों के हाथों में नहीं देना चाहते तो मत दो। मैं एक नए प्रकार का साहित्य रच लूंगा। उसमें श्रुतियों का वेदों का सारा सार आ जाएगा और उसमें मैं वेदों में वर्णित गूढ़ तत्वों को सरल बनाकर उपस्थित कर लूंगा। इसे स्त्रियां, शूद्र सभी लोग पढ़ ले सकेंगे और इस प्रकार उन्हें भी शिक्षा का प्रसार हो सकेगा।" इस उद्देश्य से प्रेरित हो भगवान व्यास ने स्मृति शास्त्रों की परंपरा का शुभारंभ करते हुए महाभारत की रचना की, क्योंकि वे गंभीर ज्ञान को सरल बना कर समस्त वर्गों में उसका अधिकाधिक प्रसार करना चाहते थे। तभी तो महाभारत में लिखा है-
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम्।।
-अर्थात, स्त्री, शूद्र और विधिपूर्वक उपनयन संस्कार से शून्य द्विज लोग वेदों को पढ़ सुन नहीं सकते, इसलिए व्यास मुनि ने कृपा कर महाभारत की रचना की है।
इसी भावना से प्रेरित हो महामना वेदव्यास ने श्री भगवान की वाणी इस भगवत गीता को भी स्मृति का रूप ही प्रदान किया, जिससे उसका लाभ सर्व सामान्य जनता को मिल सके। यही कारण है कि गीता में जहां-जहां उपनिषदों के श्लोक आए हैं, वहां व्यास जी ने उन श्लोकों को किंचित परिवर्तित कर दिया है, जिससे उनका श्रुतिरूप कायम न रह सके और वेद अनधिकारी को भी उनका लाभ मिल सके। यह भगवान व्यास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य था, जिसकी भारतीय इतिहास में तुलना दुर्लभ है।
साहित्य क्षेत्र की भांति, महर्षि व्यास सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी एक प्रमुख नेता थे। वे बड़े भारी संगठक थे। पुराणों से विदित होता है कि उनका एक मंडल था। जहां कहीं धर्म और संस्कृति पर आघात सुनते, मंडल सहित वहां पहुंच जाते और धर्म एवं संस्कृत की रक्षा के लिए प्रयत्न करते। प्राचीन ग्रंथों से यह भी पता चलता है कि वह समय-समय पर ईरान आदि सुदूर देशों को भी जाते थे और पुनर्जन्म के सिद्धांत वहां के लोगों को समझाते थे।
पुराणों के माध्यम से उन्होंने तीर्थों मंदिरों और व्रत उत्सवों का प्रचार प्रसार किया। वह बड़े मनोवैज्ञानिक थे और समाज मनोविज्ञान से विशेष रूप से परिचित थे। उन्होंने समाज को संगठित रखने के लिए वर्ण गत अधिकारों का निषेध किया और धर्म के ऐसे अंगो पर जोर दिया, जिनमें वर्ण और जाति का भी किसी प्रकार की रुकावट न डालें, जिन पर मानव मात्र का समान रूप से अधिकार रहे। इसलिए उन्होंने पुराणों में भगवत भक्ति, नाम संकीर्तन, तीर्थ और व्रत उपवास आदि का ही विस्तृत संग्रह किया। यदि कहा जाए कि वर्तमान हिंदू समाज में जो कुछ थोड़ा संगठन आज भी दिखाई देता है, वह भगवान व्यास की ही कृपा है तो यह अतिशयोक्ति न होगी।
राजनीति के क्षेत्र में भी उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किए। महाभारत काल में हस्तिनापुर में पूरुवंशियों का राज्य था। तत्कालीन जनपदों और गणराज्य में वह सबसे प्रतिष्ठित राज्य माना जाता था। जब पुरुवंश संतानहीन होने के कारण दुर्दशा को प्राप्त हुआ, तब महर्षि व्यास की सामने आए और अपने प्रभाव से राज्य की प्रतिष्ठा कायम रखी। उस समय जरासंध आदि राजा गण संस्कृति के नाश के लिए कमर कसे हुए थे। वह लोग धर्मज्ञ व्यक्तियों का उत्पीड़न करते और धर्म की जड़ों को काटने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते। भगवान व्यास को इन लोगों की कुचेष्टाएं गवारा ना हुई। उन्होंने उन नृपतियों का दमन करने की ठानी। वह युधिष्ठिर के पास गए और उन्हे राजसूय यज्ञ करने के लिए उत्साहित किया। उद्देश्य यह था कि दिग्विजय के द्वारा दुष्ट राजाओं को दबा दिया जाए। वह अपने इस संकल्प में सफल हुए। बाद में जब राज्य के लिए धृतराष्ट्र और पांडु पुत्रों में युद्ध छिड़ गया, तो वे धृतराष्ट्र के पास गए और उन्हें बहुत समझाया। उन्होंने दुर्योधन को भी समझाने की कोशिश की। पर जब उनके इन प्रयत्नों का कोई फल न निकला और जब उन्होंने देखा कि युद्ध तो अब अनिवार्य है, तो उन्होंने पांडवों को सहायता देने का निश्चय किया और उनके द्वारा दुर्योधन आदि को दंड देने की योजना बनाई। इसी उद्देश्य से प्रेरित हो वह पांडवों के पास गए जब वह बनवासी थे। वहां जाकर अर्जुन को मंत्र का उपदेश दिया, तपस्या की विधि बतायी और उसे तपस्या के लिए हिमालय भेजा। और हम जानते हैं कि उसीसे अर्जुन को अतुलनीय शक्ति प्राप्त हुई, जिसके फलस्वरूप पांडव महाभारत के युद्ध में विजय हुए।
भगवान व्यास समन्वय के प्रतीक थे। तत्कालीन समाज में धार्मिक असहिष्णुता दिनोंदिन प्रबल होती जा रही थी। यह विराट भारतीय समाज भिन्न-भिन्न दर्शनों और भिन्न-भिन्न मतों के प्रचार के फलस्वरूप बहुत से छोटे-छोटे दलों में विभक्त हो गया था और यह सारे समुदाय आपस में झगड़ा किया करते। इसी प्रकार कर्म, उपासना और ज्ञान के अनुयाई भी एक दूसरे की निंदा करने में अपने पुरुषार्थ की सफलता मानते। ज्ञानियों की दृष्टि में उपासक और कर्मकांडी निम्न अधिकारी थे, अतएव वे निंदा के पात्र थे। उपासक, कर्मकांडियों को अपने से छोटा मानते और कर्मकांडी, ज्ञानियों को ढोंगी और पाखंडी समझते। इस पंथविद्वेष के कारण समाज में कलह का विष व्यापत हो गया था। ब्रह्मसूत्र और भगवतगीता के माध्यम से भगवान वेदव्यास ने इस विष को सोखने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने अलग-अलग राग अलापने वालों को एक सूत्र में बांधने की चेष्टा की। यह तो ऊपर कह ही चुके हैं कि वर्णविद्वेष के विष को दूर करने के लिए उन्होंने महाभारत और पुराणों की रचना की।
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