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गीता का अनुबंध चतुष्टय


    गीता का अनुबंध चतुष्टय

      संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन की ऐसी परंपरा है कि सर्वप्रथम अनुबंध चतुष्टय पर विचार किया जाता है। यह चार अनुबंध है- (1) विषय, (2) अधिकारी, (3) प्रयोजन और (4) परस्पर संबंध। अर्थात ग्रंथ किस विषय का प्रतिपादन करने वाला है, उसके पढ़ने के अधिकारी कौन हैं, पढ़ने का क्या प्रयोजन है और विषय एवं ग्रंथ का परस्पर संबंध क्या है। जब गीता के संबंध में हम इस अनुबंध चतुष्टय पर विचार करते हैं, तो गीता का महत्व बताने वाले यह दो श्लोक आंखों के सामने आते हैं-
पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं
व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्ये महाभारतम्।
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनीम्
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्।।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।
 -'पार्थ अर्जुन को प्रतिबोधित करने के लिए साक्षात स्वयं भगवान ने जिसको प्रकट किया, जिसे पुराणमुनि व्यास ने श्लोकबद्ध कर महाभारत के बीच ग्रंथित कर लिया, जो 18 अध्यायोंवाली और अद्वैतामृत की वर्षा करती है, जो भवरोग को दूर करने वाली भगवती है, ऐसी ही भगवत गीते अम्बे, मैं तुझ पर ध्यान करता हूं।'
    -'समस्त उपनिषद गाय हैं, उनके दुहनेवाले गोपालनन्दन हैं, पार्थ अर्जुन बछड़ा है और गीतामृतरूप इस दूध का पान करने वाले सुधीजन है।'
    उपर्युक्त पद्यों से गीता के अनुबंधों पर प्रकाश पड़ता है। उपनिषदोक्ता ब्रह्म जीव का अद्वैत या एकत्व ही इसका विषय है। तभी को गीता को 'अद्वैतामृतवर्षिणी' कहा। भव व्याधि को नष्ट करना इसका प्रयोजन है, इसलिए यह 'भवद्वेषिणी' कहलायी। भव व्याधि से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले सुधीजन विवेकीजन इसके अधिकारी हैं। विषय और ग्रंथ का परस्पर संबंध प्रतिपाद्य और प्रतिपादक का है। इस छोटे से पद्य में गीता के रूप पर बहुत कुछ कह दिया है। भगवान नारायण ने स्वयं पृथा पुत्र अर्जुन को प्रबोधित किया। अर्जुन का चित्त भ्रमित था। भगवान उसके भ्रम को अद्वैतामृत की वर्षा कर दूर करते हैं। व्यास इस अमृत को लेकर 18 अध्याय वाले ग्रंथ की रचना करते हैं।
    कुछ लोग कहा करते हैं कि आज हमें गीता जिस रूप में प्राप्त है, बिल्कुल उसी रूप में वह भगवान कृष्ण के मुख से निकली थी। पर यह कल्पना ठीक नहीं है। गीता के वर्तमान रूप में 700 श्लोक हैं। यदि वार्तालाप की गति से भी पढ़ा जाए, तो गीता का पूरा पाठ करने में लगभग डेढ़ घंटे लगेंगे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि गीता के श्लोकों को यदि अक्षरशः कृष्ण अर्जुन संवाद मान लिया जाए, तो यह संवाद डेढ़ घंटे चलता रहा। हम पहले अध्याय में पढ़ते हैं कि युद्ध के प्रारंभ की समस्त तैयारियां हो चुकी थीं। दोनों ओर से शंख फूंके जा चुके थे। नगाड़े और ढोल पीटे जा चुके थे। मृदंग और बिगुल आदि बजाए जा चुके थे। इसके बाद अर्जुन श्रीकृष्ण से रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में चलने को कहते है। कृष्ण रथ को अर्जुन की इच्छा अनुसार बीच में ले जाते हैं और अर्जुन विषाद को प्राप्त होता है। अर्जुन स्पष्ट कह देता है कि वह युद्ध नहीं करना चाहता। योगीराज कृष्ण को तो देखिए अर्जुन की बात सुनकर माथे पर कोई शिकन नहीं। वे जानते हैं कि अर्जुन यदि युद्ध ना करें, तो पाण्डवगण कौरवौं को परास्त ना कर सकेंगे, फिर भी अर्जुन की दुर्बलता युक्त वाणी सुनकर वे घबराते नहीं, बल्कि मानो मुस्कुराकर अर्जुन से कहते हैं-
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।। (2/10)
     यहां पर यह 'प्रहसन्निव' शब्द बड़े महत्व का है। कृष्ण अर्जुन के सारे विलाप आपको मानो हंसकर एक और ठेल देते हैं। इससे अधिक भीषण परिस्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती कि अर्जुन युद्ध करने के लिए राजी नहीं हो रहा है। देश देशांतर से योद्धागण आकर युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार खड़े हैं। एक संकेत मात्र बाकी है कि युद्ध शुरू हो जाएगा। ऐसी विषम परिस्थिति में अर्जुन युद्ध से अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ना चाहता है। वह कहता भले हो कि उसके हृदय में स्वजनों और गुरुजनों को देखकर करुणा उपजी है, पर असल में वह घबडा गया है और रोगी की तरह प्रलाप करने लगा है। कृष्ण अर्जुन के मानसिक दुर्बलता रूपी रोग को भाप लेते हैं और उसको दूर करने के लिए गीता का उपदेश करते हैं। कल्पना कीजिए कि कितनी देर तक यह बातचीत चलती रही होगी। यदि उपर्युक्त हिसाब से डेढ़ घंटा मानें, तो मतलब यह हुआ कि दोनों ओर की सेनाएं शंख और बिगुल फूंककर डेढ़ घंटे तक तमाशा देख रही हैं कि बीच में जाकर कृष्ण और अर्जुन क्या कर रहे हैं। परंतु यह संभव प्रतीत नहीं होता। लगता यही है कि बहुत अधिक हुआ तो आधे घंटे में कृष्ण ने अर्जुन को समझा कर युद्ध के लिए राजी कर लिया।

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