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श्रीकृष्ण पर पक्षपात का मिथ्यारोप

श्रीकृष्ण पर पक्षपात का मिथ्यारोप

     एक और शंका पर विचार कर लें, कुछ लोग भगवान कृष्ण पर पक्षपात का दोषारोपण करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अनुचित रूप से पांडवों का साथ दिया और कौरवों से द्रोह किया। उन लोगों के मतानुसार कौरवों को ही राज्य प्राप्ति का अधिकार था, पांडवों को नहीं। अतएव वे लोग कहते हैं कि पांडवों का राज्य पर अधिकार का दावा करना न्यायोचित नहीं था। पर यदि हम महाभारत के युद्ध में राज्य के अधिकार संबंधी विधि नियमों को पढें, तो ज्ञात होता है कि तत्कालीन कानून की दृष्टि से पांडव ही राज्य के अधिकारी थे, कौरव नहीं। यह ठीक है कि धृतराष्ट्र बड़े थे और पांडे छोटे और सामान्य दृष्टि से एक धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्र ही राज्य के अधिकारी थे, पर विधान यह कहता था कि अन्ध और विकलांग व्यक्ति राज्य का अधिकारी नहीं बन सकता। अतएव धृतराष्ट्र के बदले न्यायोचित रूप से पांडू को राजा घोषित किया गया। पांडु की अकाल मृत्यु से शासन की बागडोर धृतराष्ट्र के हाथों में आई और वे इसलिए राजकाज संभालने लगे कि उनके और पांडु के पुत्र तब छोटे थे। सभी राजपूत्रों में युधिष्ठिर बड़े थे, इसलिए वयः प्राप्त होने पर राज्य उन्हीं को मिलता। पर दुर्योधन इसे कैसे सह सकता था? अतएव दुर्योधन के हितैषियों ने यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि भले ही युधिष्ठिर का जन्म पहले हुआ हो और दुर्योधन का बाद नेह, पर दुर्योधन अपनी माता के गर्भ में पहले ही आ गया था। महाभारत में हम पढ़ते हैं कि दुर्योधन अपनी जननी के गर्भ में 2 वर्ष पड़ा रहा। इस बात को प्रमाण के तौर पर उपस्थित कर दुर्योधन के हितैषी यह प्रचार करने लगे कि दुर्योधन वस्तुतः युधिष्ठिर से बड़ा है, इसलिए राज्य का अधिकार उसी को मिलना चाहिए। अब अंत में राज सभासदों ने यह निर्णय लिया कि इस विवाद को मिटाने के लिए कौरव और पांडव दोनों में राज्य को बराबर बराबर बांट दिया जाए। युधिष्ठिर धर्मात्मा थे। उन्होंने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस प्रकार युधिष्ठिर और दुर्योधन आधे आधे राज्य के भागीदार बनें। इसके बाद द्यूतक्रीडा में पांडवों को छल कपट से कौरवों ने जीता और उन्हें 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास दिया। उचित तो यही था कि वनवास और अज्ञातवास से लौटने के बाद पांडवों को उनका आधा राज्य वापस दे दिया जाता। पर दुर्योधन इसके लिए तैयार नहीं हुआ। हम महाभारत में पढ़ते हैं कि दुर्योधन को समझाने की सारी चेस्टाएं विफल हो गई। अंत में भगवान कृष्ण पांडवों के दूत बनकर दुर्योधन के पास संधि का प्रस्ताव लेकर जाते हैं, पर वह उस प्रस्ताव को भी अमान्य कर देता है। पाण्डोः के हृदय की विशालता को तो देखिए। युधिष्ठिर जिन्हें पूरा राज्य पाने का अधिकार था, आधा राज्य के स्वामी बन कर उसे भी कौरवों के छल कपट से गंवा बैठते हैं और अंत में एक भाई के लिए एक गांव के हिसाब से 5 गांव मिलने से संतोष कर लेने की घोषणा करते हैं। वे श्री कृष्ण से कहते हैं (उद्योगपर्व, 72/15-17)-
अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दी वारणावतम्।
अवसानं च गोविन्द कंचिदेवात्र पंचमम्।।
पंच नस्तात दीयन्तां ग्रामा वा नगराणि वा।
वसेम सहिता येषु मा च नो भरत नशन्।।
न च तानपि दुष्टात्मा धार्तराष्ट्रोऽनुमन्यते।
स्वाम्यमात्मनि मत्वासवतो दुःखतरं नु किम्।।
    -'गोविंद! मैंने धृतराष्ट्र से यही कहा था कि तात्! आप हमें अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और अंतिम पांचवा कोई सा भी गांव जिसे आप देना चाहे, दे दें। इस प्रकार हमारे लिए 5 गांव या नगर दे दें, जिनमें हम पांचों भाई एक साथ मिलकर रह सके और हमारे कारण भरतवंशियों का नाश न हो। परंतु दुष्टात्मा दुर्योधन सब पर अपना ही अधिकार मानकर उन पांच गांवों को भी देने की बात नहीं स्वीकार कर रहा है। इससे बढ़कर कष्ट की बात और क्या हो सकती है?'
      जो चक्रवर्ती सम्राट रह चुके हैं उन युधिष्ठिर की मांग कितनी सामान्य है! पर अधर्मी दुर्योधन 5 गांव देने की कौन कहे, सुई की नोक बराबर जमीन भी पांडवों को नहीं देना चाहता। वह पांडवों को नष्ट कर देने पर तुला है और युद्ध की सारी तैयारियां कर रहा है। सन्धि प्रस्ताव लेकर जब श्री कृष्ण कौरव सभा में गए तो तरह-तरह से उन्होंने दुर्योधन को युद्ध की व्यर्थता के संबंध में समझाया और अंत में कहा (उद्योगपर्व, 124/58-62)
पश्य पुत्रांस्तथा भ्रातृञ्ज्ञातीन् सम्बन्धिनस्तथा।
त्वत्कृते न विनश्येयुरिमे भरतसत्तमाः।।
अस्तु शेषं कौरवाणां मा पराभूदिदं कुलम्।
कुलघ्न इति नोच्येथा नष्टकीर्तिर्नराधिप।।
त्वामेव स्थापयिष्यन्ति यौवराज्ये महारथाः।
महाराज्येऽपि पितरं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।।
मा तात श्रियमायान्तीमवमंस्थाः समुद्यताम्।
अर्धं प्रदाय पार्थेभ्यो महतीं श्रियमाप्नुहि।।
पाण्डवैः संशमं कृत्वा कृत्वा च सुहृदां वचः।
सम्प्रीयमाणो मित्रैश्च चिरं भद्राण्यवाप्स्यसि।।
    -'दुर्योधन! अपने इन पुत्रों, भाइयों, कुटुम्बीजनों और सगे संबंधियों की ओर देखो। यह श्रेष्ठ भरत वंशी तुम्हारे कारण कहीं नष्ट ना हो जाएं। नरेश्वर! कौरव वंश बचा रहे, इस कुल का पराभव ना हो और तुम भी अपनी कीर्ति का नाश करके कुलघाती न कहलाओ। महारथी पांडव तुम्हीं को युवराज के पद पर स्थापित करेंगे और तुम्हारे पिता राजा धृतराष्ट्र को महाराज के पद पर बनाए रखेंगे। तात! अपने घर में आने को उद्धत हुई राजलक्ष्मी का अपमान ना करो। कुंती के पुत्रों को आधा राज्य देकर स्वयं विशाल संपत्ति का उपभोग करो। पांडवों के साथ संधि करके और अपने हितैषी सहृदों की बात मानकर मित्रों के साथ प्रसन्नता पूर्वक रहते हुए तुम दीर्घकाल तक कल्याण के भागी बने रहोगे।'
      पर दुर्योधन के सिर पर तो कॉल नाच रहा था। उसे भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, विदुर और धृतराष्ट्र ने भी कृष्ण की बात मान लेने की सलाह दी, पर दुर्बुद्धि दुर्योधन अपने अहितकारी निश्चय से टस से मस ना हुआ। उसमें श्रीकृष्ण को दो टूक उत्तर देकर संधि की सारी संभावना ही समाप्त कर दी। उसने कहा -"केशव! इस समय मुझ महाबाहु दुर्योधन के जीते जी पांडवों को भूमिका उतना अंश भी नहीं दिया जा सकता, जितना कि एक बारीक सुई की नोक से छिद सकता है।"
     दुर्योधन अधर्म अन्याय का प्रतीक है और युधिष्ठिर धर्म न्याय के। महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच तो होता है, पर वह असल में अन्याय और न्याय का युद्ध है। जिस किसी प्रकार हम विवेचना करें, हम देखेंगे कि पांडवों ने सदैव न्याय का ही पक्ष लिया। कौरवों में पांडवों के प्रति सतत विद्वेष की अग्नि प्रज्वलित होती रहती थी। दुर्योधन ने पांडवों को लांछित और अपमानित करने में कोई कोर कसर न सखी। पहली बार द्यूतक्रीड में जब युधिष्ठिर सब कुछ गंवा बैठते हैं, उस समय पांडवों के प्रति दुर्योधन के वर्तन का ख्याल करें। द्रोपती आखिर कुरुवंशियों की ही बहू थी और उसका भरी सभा में किस प्रकार अपमान किया गया वह हम सभी जानते हैं। आज का समाज का अधर्म और अन्याय से कितना भी ग्रस्त क्यों न हो, पर सार्वजनिक रूप से किसी नारी का यदि उस प्रकार अपमान किया जाए, तो वह चुप नहीं बैठेगा। पर दुर्योधन की राजसभा को देखिए। एक से एक धुरंधर धर्मवेत्तागण वहां बैठे हैं। द्रोपती अपनी लज्जा को किसी प्रकार बचाते हुए करुण स्वर से धर्म की दुहाई देकर सभासदों से न्याय मांगती है और पूछती है कि उसका इस प्रकार अपमान किया जाना क्या धर्म संगत है? और ये धर्म के ज्ञाता भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण और कृप, पिता तुल्य धृतराष्ट्र सब के सब सिर गड़ा लेते हैं, द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर नहीं देते। यही अधर्म की पराकाष्ठा है। जहां धर्म अधर्म के सामने इस प्रकार चुप हो जाता है, अपना मुंह बंद कर लेता है, सिर झुका लेता है, ऐसा धर्म 'धर्म' नाम के योग्य ही नहीं है, बल्कि वह अधर्म से भी बढ़कर खतरा उत्पन्न करता है। यह है दुर्योधन और उसके दरबार का स्वरूप, जहां उसके स्वयं के कुल की नारी का इस प्रकार घोर अपमान किया जाता है।
     तभी तो महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य आदि को पूज्य कह कर उनसे लड़ने की अनिच्छा दिखाता है, तो श्रीकृष्ण उसे धिक्कार ते हैं। जिन भीष्म और द्रोण आदि ने अधर्म का पक्ष स्वीकार किया हो और धर्म के ज्ञाता कहाकर अधर्म होते देख भी अपनी आंखें मूंद ली हों, उन्हें मारने में किसी प्रकार का दोष श्री कृष्णा नहीं देखते। उन्हें छल कपट से मारना भी न्याय हैं। ऐसे लोग अधर्मियों की अपेक्षा भी अधिक खतरनाक है।

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