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गीताध्याय -1, श्लोक -3

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#geeta

प्रमुख योद्धाओं का वर्णन

दुर्योधन का वाग्जाल

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।
आचार्य - हे आचार्य!
तव - आपके
धीमता - बुद्धिमान्
शिष्येण - शिष्य
द्रुपदपुत्रेण - द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा
व्यूढाम् - व्यूहरचना से खडी की हुई
पाण्डुपुत्राणाम् - पाण्डवों की
एताम् - इस
महतीम् - बडी भारी
चमूम् - सेना को
पश्य - देखिये!
     हमने पढ़ा कि पांडवों की व्यूहबद्ध सेना को देखकर दुर्योधन के मन में अज्ञात भय का संचार हो गया। उसका यह भय दूसरे श्लोक के 'तू' शब्द में तो प्रकट हुआ ही है, यहां भी 'महती चमूम्' कहने से उसका भाई परिलक्षित होता है। वास्तव में सेना तो उसकी अपनी बड़ी है। कहां उसके 11 अक्षौहिणी सेना और कहा पांडवों की सात। तथापि भीतर का भय बाहर शब्दों में प्रकट हो ही जाता है। वह द्रोणाचार्य को धीरे से इस बात के लिए सावधान कर देना चाहता है कि पांडव कुछ समय पूर्व तक भले ही दीर्घ 13 वर्षों के लिए बनवासी रह चुके हैं, तथापि उनके मित्र कम नहीं और इस अल्प अवधि में ही उन्होंने इतनी बड़ी सेना इकट्ठी कर ली है।
     दुर्योधन कहता है कि आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र ने पांडवों की व्यूह रचना की है। उसने धृष्टद्युम्न न कह कर द्रुपद पुत्र कहा, धृष्टद्युम्न को आचार्य द्रोण का 'बुद्धिमान शिष्य' कहा। इन सब बातों में दुर्योधन की चतुरता और कुटिलता दोनों ही परिलक्षित होती हैं। द्रुपद के प्रति द्रोण का पुराना बैर था। महाभारत में प्रसंग है कि द्रोण और द्रुपद एक ही गुरु भरद्वाज के पास शिक्षित हुए थे। द्रुपद तो राजा पृषत् के पुत्र थे, अतः पृषत् की मृत्यु के उपरांत वे उत्तर पांचाल देश की गद्दी पर बैठे। द्रोणाचार्य विद्या संपन्न होते हुए भी लक्ष्मी की कृपा से वंचित थे। उनकी निर्धनता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वह अपने इकलौते पुत्र अश्वत्थामा के लिए भी दूध का प्रबंध नहीं कर सके थे और दूध के लिए रोते बेटे के हाथ में दूध के मिस खड़ीए का घोल देकर उसे चुप कराना चाहा था। पत्नी के बारंबार आग्रह करने पर द्रोण सहायता की याचना लेकर अपने पुराने मित्र राजा द्रुपद के पास जाते हैं, और द्रुपद अपने इस निर्धन मित्र को पहचानने से अस्वीकार कर देते हैं और द्रोण का अपमान करते हैं। तब से द्रोण के हृदय में द्रुपद से बदला लेने की भावना उपजती है और वह कौरवों और पांडवों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देकर, गुरु दक्षिणा के रूप में द्रुपद का राज्य मांगते हैं। द्रुपद युद्ध में पराजित होते हैं और बंदी बनाकर द्रोण के सम्मुख लाए जाते हैं। द्रोण अब चाहे तो द्रुपद के साथ यथेच्छ व्यवहार कर सकते हैं, पर पुरानी मित्रता का निर्वाह करते हुए वे द्रुपद को आधा राज्य देकर विदा कर देते हैं।
     अब द्रुपद के मन में प्रतिकार की भावना जागती  है। वे ऐसी संतान की कामना करते हैं, जो द्रोण का वध करें। अपमान के शोक से आतुर हो द्रुपद एक आश्रम से दूसरे आश्रम में किसी कर्म सिद्ध ब्राह्मण की खोज में भटकने लगे। अंत में गंगा तट पर कल्याणी नगरी में कश्यप गोत्र के दो नैष्ठिक ब्राम्हण याज और उपयाज के संबंध में उन्होंने सुना। वे उपयाज के पास गए और उनको अपनी सेवा के द्वारा संतुष्ट कर उनसे प्रार्थना की "महाभाग। आप कोई ऐसा कर्म कराइए, जिससे द्रोण को मारने वाला पुत्र उत्पन्न हो। मैं दक्षिणा के रूप में आपको एक अर्बुद गायें दूंगा तथा आपकी अन्य इच्छाएं भी पूर्ण कर दूंगा।" सुनकर उपयाज ने 'नहीं' कर दी। द्रुपद ने हार न मानी। वे पुनः 1 वर्ष तक निष्ठा से उपयाज की सेवा करते रहे। तब उपयाज ने कहा "राजन! तुम मेरे बड़े भाई याज के पास जाओ। उन्हें अर्थ की आवश्यकता रहती है।" द्रुपद याज के पास गए और अपनी सेवा से उन्हें संतुष्ट कर यज्ञ कार्य के लिए राजी कर लिया। याज की सम्मति से यज्ञ कार्य संपन्न हुआ। अग्निकुंड से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। तभी एक आकाशवाणी हुई 'इस पुत्र के जन्म से द्रुपद का सारा शोक मिट जाएगा। यह कुमार द्रोण को मारने के लिए ही पैदा हुआ है।
     धृष्टद्युम्न के इस प्रकार से जन्म लेने की बात सर्वत्र फैल चुकी थी। दुर्योधन इसीलिए धृष्टद्युम्न का नाम नहीं लेना चाहता, क्योंकि उसे चिंता है कि यदि द्रोणाचार्य को 'धृष्टद्युम्न' नाम सुनने से कहीं पिछली बातें स्मरण में आ जाएं, तो फिर वे भयभीत हो जाएंगे। अतः चतुराई से 'धृष्टद्युम्न' शब्द का उच्चारण ही वह नहीं करता, बल्कि दूसरी ओर द्रुपद पुत्र कह कर द्रुपद के प्रति आचार्य के बैर भाव को जगा देना चाहता है। दुर्योधन का मंतव्य यही है कि आचार्य द्रोण के मन में द्रुपद के प्रति रोष तो जागे, पर धृष्टद्युम्न की याद से उनमें भय न घुसे। इसीलिए वह द्रुपद पुत्र के दो विशेषण लगाता है 'आपका बुद्धिमान शिष्य'।
     बुद्धिमान शिष्य कहने का तात्पर्य यह भी हो सकता है कि जब आपका शिष्य इतना बुद्धिमान है, तो फिर आपकी बुद्धिमत्ता का कहना ही क्या! पांडवों की व्यूहरचना तो आप के शिष्य ने की है, अतएव उस व्यूह को छिन्न-भिन्न करने में आपको कोई विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ेगा, क्योंकि आपके शिष्य ने आप ही से तो सीखकर यह व्यूह रचा है।
      'बुद्धिमान' शब्द से यह भी ध्वनित होता है कि देखिए, पांडवों की सेना असल में है तो छोटी, पर धृष्टद्युम्न की व्यूहरचना की कुशलता के कारण वह महती दिखाई दे रही है। यहां पर द्रोणाचार्य का उज्ज्वल चरित्र भी दर्शनीय है। राजा द्रुपद तो उनके बैरी ठहरे, पर वह द्रुपद के पुत्र को शिष्य के रूप में स्वीकार करते हैं और उसे निष्ठा पूर्वक अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते हैं। जो धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य को मारने के लिए पैदा हुआ, उसी को द्रोणाचार्य द्वारा शिष्य रूप से ग्रहण इतिहास में एक विरल घटना है।

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