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गीता के उपदेश का लाभ किसे

गीता के उपदेश का लाभ किसे


    यहीं से हमारी साधना शुरू होती है और हम गीता के उपदेश सुनने के अधिकारी बनते हैं। साधक वह है, गीता का उपदेश सुनने का अधिकार उसे है, जिसे अपने भीतर यह दोनों आवाजें सुनाई देती हैं और जो कुपथ को छोड़कर सीधे रास्ते पर चलना चाहता है। वैसे तो गीता की पुस्तक 10 रूपये में उपलब्ध है कोई भी व्यक्ति उसे खरीद कर पढ़ सकता है। पर किसी ग्रंथ को पढ़ लेने से ही उसके मर्म को समझने की योग्यता नहीं प्राप्त हो जाया करती। गीता या धर्मशास्त्र उनके लिए नहीं है, जो दानव की आवाज में बह जाते हैं, अपने को अशुभ की प्रवृत्तियों में बहा देते हैं। गीता उनके लिए है, जिनके भीतर का देवता जाग गया है। इस देवता को पुष्ट करना ही गीता का प्रयोजन है।
     जिनके भीतर इस देवता को पुष्ट करने की कामना जगी है, वे विवेकी हैं, सुधी है और इसीलिए गीतारूपी दुग्धामृत का पान करने के अधिकारी हैं। अर्जुन के भीतर अचानक युद्ध स्थल में या मंथन शुरू हो गया। जो हलचल उसके जीवन में कभी नहीं आई थी, वह हठात् समरांगण में उभर उठती है। दानव देवता का मुखौटा पहनकर उसकी मन की आंखों के सामने खड़ा हो जाता है और उससे कहता है -'अपने ही हाथ से अपने आत्मीय स्वजनों को मारोगे? अपने पूज्य गुरुजनों का वध करोगे? अरे, अगर कौरव ही राजा बन जाते हैं तो क्या हुआ? आखिर वह तुम्हारे भाई ही तो हैं!' और अर्जुन इस झांसे में पड़ जाता है। वह भूल जाता है कि वह न्याय की रक्षा हेतु युद्ध करने आया है। भूल जाता है कि कौरव दल अन्याय का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह युद्ध छोड़कर भिक्षा द्वारा जीवन यापन की बात करने लगता है। बस उसके भीतर मंथन शुरू हो गया और वह गीता के उपदेश सुनने का अधिकारी बन गया।
     यही अर्जुन महाभारत युद्ध के पश्चात् एक दिन श्रीकृष्ण से गीता एक बार पुनः सुनाने का आग्रह करता है। पर कृष्ण उसके अनुरोध को टाल देते हैं। युद्ध के पश्चात पांडवों के अच्छे दिन आए हैं। अर्जुन निश्चिंत हैं और संसार के सुखों के भोग में रत है। एक दिन कृष्ण के साथ वह टहलने निकलता है। एकांत स्थान में प्रकृति की शोभा निहारते हुए दोनों बैठे हैं। कई प्रश्न उनके वार्तालाप में उठ रहे हैं। अचानक अर्जुन श्रीकृष्ण से अनुरोध के स्वर में कहता है, "भगवान्! अपने युद्ध भूमि में गीता का जो अपूर्व गायन किया था, उसे एक बार पुनः सुनने की इच्छा है। तब तो मेरा मन अत्यंत चंचल था और कई प्रकार की विपत्तियों से घबराया हुआ था। आपने तब तो कुछ उपदेश दिया था, उसे मैं अच्छी तरह ध्यान लगाकर सुनना सका था और वह सब मैं भूल भी गया हूं। अब तो आपकी कृपा से मेरी सारी चिंता दूर हो गई है और मेरा मन भी आनंद में है। यदि एक बार पुनः वही उपदेश सुना दे तो बड़ी कृपा होगी।" उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा था-
न शक्यं तन्मया भूयः तथा वक्तुम् अशेषतः।
परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मयाः।।
   -'हे अर्जुन! उस समय मैंने अत्यंत योग युक्त अंतः करण से उपदेश किया था। अब संभव नहीं कि मैं वैसा ही उपदेश फिर कर सकूं।'
     श्रीकृष्ण के इस कथन का क्या तात्पर्य है? यही कि गीता का उपदेश करते समय कृष्ण ब्रह्म तन्मयता की स्थिति में थे, समाधि की अवस्था में थे। अर्जुन के हृदय के मंथन ने कृष्ण के गुरु भाव को जागृत कर दिया था। अर्जुन को सुनने की स्थिति में देखकर कृष्ण का मन योग की उच्च स्थिति में जाकर आरूढ हो गया था। शिष्य जब विह्वल होकर गुरू के शरणागत होता है, तब ईश्वर गुरु के माध्यम से शिष्य पर कृपा करते हैं। परिस्थितियों से घबडाकर अर्जुन श्रीकृष्ण की शरण जाता है और कहता है -'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्' -'मैं आपका शिष्य हूं, आपका आपकी शरण आया हूं, मुझे शिक्षा दीजिए।' और श्रीकृष्ण शिष्य की यह विह्वलता, यह कातरता देखकर विगलित हो जाते हैं और योग युक्त हो जाते हैं। योग युक्त होने का अर्थ है समाधि का अनुभव करना। और समाधि में मनुष्य अडोल हो जाता है। पर यहां कृष्ण के रूप में हम ऐसे अद्भुत पुरुष को देख रहे हैं, जो समाधि में गीता का गायन करता है। अतएव गीता की भाषा को मैं समाधि की भाषा कहता हूं। गीता के समस्त उपदेश समाधि की भाषा में दिए गए हैं, वे ऋषि प्रसूत उपनिषद् मंत्रों के समान भगवान् के द्वारा देखे गए मंत्र हैं।
    इसीलिए, जब अर्जुन कृष्ण किससे एक बार पुनः गीता सुनाने का आग्रह करता है, तब वह कहते हैं कि अब वह संभव नहीं है। तब समरांगण में, कृष्ण अर्जुन की मनः स्थित को देखकर योग की उच्च अवस्था में अरुढ हो गए थे। तब अर्जुन यथार्थ अर्थों में श्रोता के गुणों से युक्त था। आज उसमें यथार्थ श्रोता की पात्रता नहीं है। आज जो कुछ वह कृष्ण से पूछ रहा है, उसमें तब का-सा ताप नहीं है, विकलता नहीं है। आज महज उत्सुकता वश वह पूछ रहा है। और अध्यात्म की विद्या, यह गूढ योग उन लोगों के लिए नहीं है, जो केवल उत्सुकता वश इसके पीछे जाते हैं। आज अर्जुन के प्राणों में खलबली नहीं है। इसीलिए कृष्ण गीता का फिर से उपदेश नहीं करते। कृष्ण बड़े उदार हैं। वे अर्जुन से ऐसा नहीं कहते हैं -"अर्जुन! आज तुझमें गीता सुनने की पात्रता नहीं है, इसलिए नहीं सुना रहा हूं;" बल्कि कहते हैं -"मुझमें ही सुनाने की पात्रता नहीं है, आज मेरा चित्त योगयुक्त नहीं है।" वे शिष्य दोष अपने शिर मढ लेते हैं।
     तो, गीता उनके लिए है, जिनके भीतर मंथन प्रारंभ हो गया है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि यदि आकुलता ना हो, यदि भीतर मंथन ना हो, तो गीता पढ़ी ही न जाए। गीता का पाठ तो सभी अवस्थाओं में किया जा सकता है। भड़कीले उपन्यास और कहानियां पढ़ने की अपेक्षा गीता के पठन से अवश्य ही लाभ होगा और संभव है कि धीरे-धीरे पाठक के ह्रदय में मंथन शुरू हो जाए। पर गीता पाठ का वास्तविक लाभ उन्हें प्राप्त होगा, जो संसार के द्वनद्वों से विकल होकर राह की खोज में है, जो सचमुच इंद्रियों और मन की गुलामी से त्रस्त हैं तथा इस गुलामी का खात्मा कर देना चाहते हैं।
     कई लोग महज पाठ के लिए गीता का पाठ करते हैं। वे पूजा उपासना का एक क्रम बना लेते हैं, जिसके अंतर्गत रामायण या गीता का नित्य पारायण भी होता है। यह कोई गलत बात नहीं है। यह अच्छा ही है। पर इस पारायण को ही सब कुछ समझ लेना गलत बात है। केवल पारायण किया जाए और अर्थ की ओर ध्यान ना हो, तो ऐसा पारायण विशेष लाभदायक नहीं होता। वैसे तो तोते को भी रामायण या गीता का अंश रटा देने से वह रामायण की चौपाइयां और दोहे बोलेगा, गीता के श्लोक दोहरा देगा पर उससे क्या? जब उस पर बिल्ली झपटेगी, तो वह 'टें-टें' करेगा, रामायण और गीता के बोल भूल जाएगा। हम भी अधिकांशतः तोते के समान होते हैं। बहुत से उपदेशों को दोहरा तो लेते हैं, पर जब व्यवहारिक जीवन में उन उपदेशों को उतारने का समय आता है, तो हम तोते के समान 'टें-टें' करने लगते हैं। इससे यह न समझ लेना चाहिए कि गीता का पारायण व्यर्थ है। तात्पर्य यह है कि पारायण के पीछे भाव होना चाहिए जीवन के शाश्वत मूल्यों को समझने का भाव, जीवन संग्राम को समझने का भाव, हृदय में चलने वाले देवासुर संग्राम में देवों को विजयी बनाने का भाव। यदि यह भाव हमें पारायण के लिए प्रेरित करता है, तो हम सही रास्ते पर कदम बढ़ा रहे हैं।

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